Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 126
________________ १२४ सोलहकारण धर्म । उपाय सामायिक मादि आवश्यक है, इसलिये इन्हें नित्यप्रति पालन करना चाहिये । एकासनसे बैठकर अथवा खड़े होकर मन, वमन कायको समस्त व्यापारोंसे रोक कर एकाग्रचित्त करना सो सममावरूप सामायिक हैं। अपने किये हुए दोषोंको | स्मरण कर उनपर पश्चाताप करना मो प्रतिक्रमण हैं । आगेके | लिए यथाशक्ति दोष न होने देने के लिये नियम करना ( दोषोंका 'त्याग करना } सो प्रत्याश्यान है। तीर्थकरादि अर्हत व सिद्धोंके गुण किर्तन करना सो समतन हैं ! मन मन माप शुद्ध करके चार दिशाओं में चार शिरोनति और प्रत्येक दिशामें सीन तीन आवर्त ऐसे बारह आवर्त करके नमस्कार करना सो वंदना ५ हैं और किसी समयका विशेष प्रमाणकरके उतने समय (सक एकासनसे स्थिर रहना तथा उतने समयके भीतर आए हुए समस्त उपसर्ग व परिषहोंको सहन करना सो कायोत्सर्ग | हैं । इस प्रकार विचार कर इन छहों आवश्यकोंमें जो सावधान | होकर प्रवर्तन करता है सो “ आवश्यका परिहाणी'' नामको भावना है। (१५) कालदोषसे अथवा उपदेश के अभावसे सांसारिक जीवोंके द्वारा सत्य धर्मपर अनेक आक्षेप होने के कारण उसका लोपसा हो जाता है। धर्म के लोप होनेसे जीव धर्मरहित होकर संसारमें नाना प्रकारके दुःख भोगते हैं। इसलिये ऐसे २ समयोंमें येन केन प्रकारेण समस्त जीवोंपर सत्य (जिन) धर्मका प्रभाव प्रगट कर देना सो ही प्रभावना हैं, और यह प्रभावना जिन धर्मके उपदेषोंके प्रचार करने, शाखोंके प्रकाशन व

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