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सोलहकारण धर्म ।
[ १२३ (९) शरीरमें किसी प्रकारकी रोगादिक बाषा या जानेसे परिणामोम शिथिलता व प्रमाद आ जाना संभव है । इसलिये साधर्मी साधु व ( गुहस्थ । जनोंकी सेवा उपचार करना कर्तव्य है। इस " वयावृत्यकरण" भावना कहते है।
१०) अहंन्त भगवानके द्वारा ही मोक्षमार्गका उपदेश मिलता है। क्योंकि वे प्रभु केवल कहते ही नहीं है किन्तु स्वयं मोक्षके सन्निकट पहुंच गये है । इसलिये उनके गुणोंमें अनुराग करना, उनकी भक्तिपूर्वक पूजन करना सो " अर्हद्भक्ति" भावना है।
(११) विना गुरुके सच्चे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती है और सच्चे उपदेशक, निरपेक्ष हितषी, आचार्य महाराज के गुणोंकी सराहना व उनमें अनुराग करना सो " आचार्य भक्ति '' नाम भावना है।
(१२) अददग्ध पुरुषके द्वारा सच्चे उपदेशको प्राप्ति होना दुर्लभ है, इसलिये समस्त द्वादशांगके पारगामी श्री उपाध्याय महाराजकी भक्ति करना, उनके गुणोंम अनुराग करना सो " बहुश्रुतभक्ति" नाम भावना है ।
(१३) सदा समान भावसे वस्तुस्वरूपको बतलानेवाले जिन सालोंका पठनपाठनादि अभ्यास करना, सो 'प्रवचनभक्ति' नाम भावना है।
(१४) मन वचन कायकी शुभाशुभ क्रियाओंको योग कहते है। इन ही योगोंके द्वारा शुभाशुभ कर्मोका आश्रव होता है। इसलिये यदि आश्रबके द्वारा ये योग रोक दिये जाय, तो संवर (कर्माप्रब बंद ) हो सकता है और संवर करनेका उत्तमोत्तम