Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 123
________________ सोलहकारण धर्म | [ १२१ आवश्यक है। क्योंकि जहां चर्म-चक्षु नहीं देख सकते हैं वहां ज्ञान चक्षु ही काम देते है । ज्ञानी पुरुष नेत्रहीन होनेपर भी अज्ञानी आंखवाले से अच्छा है। अज्ञानो न तो लौकिक कार्योहोमें सफल -- मनोरथ होता है और न पारलौकिक हो कुछ साधन कर सकता हैं । वह ठौर दौर उगाया जाता है और अपमानित होता है । इसलिये ज्ञान उपार्जन करना आवश्यक है इत्यादि । विचार करके विद्याभ्यास करना, व कराना सो " अभीक्ष्णज्ञानोपयोग " नामको भावना है । ( ५ ) इस जीवके विषयानुरागता इतनी बड़ी हुई है कि यदि तोन लोककी समस्त सम्पत्ति इसे भागने को मिल जाए तो मी तृप्ति न हो, तृप्ति तो क्या इसकी विषयाभिलाषाका असंख्य अंश भी पूरा न हो और जीव संसारमें अनन्तानन्त हैं, लोकके पदार्थ भी जितने हैं उतने हो हैं और सभी जीवोंको अभिलाषा ऐसों हो बड़ी हुई हैं, तब यह लोककी सामग्री किस किसकी किस अंश में तृम कर सकती हैं ? किसीको नहीं। ऐसा विचार कर उत्तम पुरुष अपनी इन्द्रियोंकों विषयोंसे रोककर मनको धर्मध्यान में लगा देते हैं। इसीको " संवेग " भावना कहते हैं । (६) जबतक मनुष्य किसी भी पदार्थ में ममत्व भाव रखता है, अर्थात् यह मेरो है इत्यादि भाव रखता है तबतक वह कभी सुख नही हो सकता है; क्योंकि पदार्थोंका स्वभाव नाशवान है; जो उत्पन्न हुए सो नियमसे नाश होंगे, जो मिले हैं सो विछुड़ेंगे, इसलिये जो कोई इन पदार्थोको ( जो उसे पूर्व पुण्योदय से प्राप्त हुए है ) अपने आप ही छोड़ देवें ताकि वे (पदार्थ) उसे न छोड़ने पायें तो निःसंदेह दुःख आनेका

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