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सोलहकारण धर्म । सो “विनय सम्पन्नता" नामकी भावना है ।
(३) विना मर्यादाके मन वश नहीं होता है, जैसे कि विना लगाम ( बाग--रास ) घोड़ा और बिना अंकुशके हाथी । इस लिये आवश्यक है कि मन व इन्द्रियोंके वश करनेके लिये कुछ मर्यादारूपी अंकुश रखना चाहिये । इसलिये अहिंसा ( किसी भी जीवको न सताना न मारना). सत्य ( यथार्थ वचन बोलना, परन्तु किसीको पीडाजनक न हो), अचौर्य ( बिना दिये हुए पर वस्तुका ग्रहण न करना ), ब्रह्मचर्य । स्त्री मात्रका अथवा स्वदार विना अन्य स्त्रियोंके साथ विषय--मैथुन सेवनका त्याग, ) और परिग्रह त्याग या परिग्रह परिमाण ( संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग या अपनी योग्यता या शक्ति अनुसार आवश्यक वस्तुओंका प्रमाण करके अन्य समस्त पदार्थोसे ममत्व त्याग करना, इसे लोभको रोकना भी कहते हैं ), इस प्रकार ये पांच प्रत और इनको रक्षार्थ सप्तशीलों ( ३ गुणवतों और ४ शिक्षावतों) का भी पालन करें तथा उक्त पांचों व्रतोंके अतीचार ( दोष) भी बचावें इन व्रतोंके निर्दोष पालन करनेसे न तो राज्यदंड होता है और न पंचदण्ड । ऐसा प्रती पुरुष अपने सदाचारसे सबका आदर्श बन जाता है। इसके विरुध्ध सदाचारी जनों को इस भवमें और पर भवमें भी अनेक प्रकार दंड व दुःख सहने पड़ते है, ऐसा विचार करके इन व्रतोंमें दृढ़ होना चाहिए । यह "शोलवतेष्वनतिनार" भावना है।
(४) हिताहितका स्वरूप विना जाने जीव सदव अपने लिये सुखप्राप्तिकी इच्छासे विपरीत मार्ग ग्रहण कर लेता है। जिससे सुख मिलना तो दूर होजाता है और दुःखका सामना करना पड़ता है। ऐसी अवस्थामे जान सम्पादन करना