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सोलहकारण धर्म ।
जिन धर्मके सेवन से अन्नादिसे लगे हुए जन्म मरणादि दुःख भी छूटकर सच्चे मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है तब और दुखोंकी क्या बात है वे तो सहज ही में छूट जाते हैं। इसलिये यदि यह कन्या षोडशकारण भावना भावे और पाले तो श्रीनिवा मोक्षसुखको पावेगी । तब महाशर्मा बोला - हे स्वामी ! इस व्रतकी कौनसी भावना है और क्या विधि है ? सो कृपाकर कहिये | तब मुनिमहाराजने इन जिज्ञासुओंको निम्न प्रकार व्रतका स्वरूप और विधि बताई । वे बोले :
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(१) संसार में जीवका वैरी मिथ्यात्व और हितू सम्यक्त्व हैं। इसलिये मनुष्योंका कर्तव्य हैं कि सबसे प्रथम मिथ्यात्व ( अतत्त्व श्रद्धान या उल्दा- विपरीत बद्धान) को वमन (त्याग) करके सम्यक्त्वरूपी अमृतका पान करें, सत्यार्थ ( जिन ) देव, सच्चे ( निर्ग्रन्थ ) गुरू और सच्चे ( जिन भाषित ) धर्मपरा श्रद्धा ( विश्वास ) लावे | तत्पश्चात् सप्त तत्व तथा पुण्य पापका स्वरूप जानकर इनकी श्रद्धा करके अपनी आत्माको पर पदार्थोंसे भिन्न अनुभव करे और अन्य मिध्यात्वी देव गुरु व धर्मको दूर होने इस प्रकार छोड़ दे जैसे तोता अवसर पाकर पिंजरेसे निकल भागता है । ऐसे सम्यक्त्वी पुरुषके प्रथम ( समभाव - सुख व दुःखमें एकसा समुद्र सरीखा गम्मीर रहना, घबराना नहीं ), संवेग ( धर्मानुराग सांसारिक विषयासे विरक्त हो धर्म और धर्मायतनोंमें प्रेम बढ़ाना ), अनुकम्पा ( करुणा दुःखी जीवांपर दया भाव करके उनको यथाशक्ति सहायता करना } और मस्तिक्य ( श्रद्धा- कैसा भी अवसर क्यों न आवे तो भी निर्णय किए हुए अपने सन्मार्ग में दृढ़ रहना, ये चार गुण प्रगट होजाते हैं उन्हें किसी प्रकारका मय ६ चिंता व्याकुल नहीं कर सकती हैं। वे घोर वीर सदा प्रसन्न चित्तही रहते हैं,