Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 119
________________ सोलइकारण धर्म । एक दिन वह कन्या अपनो चित्रसारीमें बैठी हुई दर्पणमें अपना मुख देख रही थी कि; इतने में ज्ञानसूर्य महातपस्वी श्रीमुनिराज उसके घरसे बाहर लेकर निकले सो इस अज्ञान रूपके मदमें मस्त कन्याने मुनिको देखकर खिड़कीसे मुनिक उपर थूक दिया और पूक कर बहुत हर्षित हुई। पृथ्वी समान क्षमावान श्री मुनिराज अपनी नीची दृष्टि किये हुए चले हो जा रहे थे कि, राजपुरोहित इस कन्याका उमत्तपना देखकर उसपर बहुत क्रोधित हुआ तथा उसे घमकाया और तुरन्त हो प्रासुक जलसे धीमुनिराजका शगेर प्रक्षालित किया, और बहुत भक्ति से वैयावृत्य कर स्तुति की। यह देखकर वह कन्या बहुत लज्जित हुई और अपने किये हुए नीच कृत्यपर पछताकर श्री मुनिके पास जाकर उसने नमस्कार किया और अपन अपराषकी क्षमा मांगी। फिर वह कन्या वहांसे मरकर तेरे घर यह कालभैरवी नामकी कन्या हुई है। इसने जो पूर्व जन्ममें मुनिको निदा व उपसर्ग रूप घोर पाप किया है, उसीके फलसे ऐसो कुरूपा हुई है। पूर्व संचित कोका फल भोग बिना छुटकारा नहीं होता है। इसलिये अब इसे समभावोंसे भोपना ही कर्तव्य है और आगेको ऐसे कर्म न बन्धे ऐसा उपाय करना योग्य है । तब पुनः यह महाशर्मा बोला- हे प्रभू । कुपाकर कोई ऐसा उपाय बताइये कि जिससे यह कन्या इस दुःखसे टकर सम्यक् सुखोंको प्राप्त हो । तब श्री मुनिराज बोले-वत्स सुनो संसारमें ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो मनुष्यों के लिये असाध्य हो, अर्थात् वह न कर सके। यह कितनासा दुःख है

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