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सोलहकारण धर्म ।
[ ११५ तब मुमशु ( मोक्षाभिलाषी) जीवों के कल्याणार्थ श्री जिनंद्र श्वके द्वारा मेघोंकी गर्जनाके समान *कार रूप अनक्षरी वाणी ( दिव्य ध्वनी) हुई । यद्यपि इस वाणीको सर्व उपस्थित सभाजन अपनी २ भाषामें यथासंभव निमशानावरण कर्मके क्षयोपशम अनुसार समझ लेते है सथापि गणघर (गणेश) जो कि मुनिकी सभामें अव चार ज्ञानके धारी हैं, उक्त वाणीको द्वादशांगरूप कथन कर भव्य जीवोको भेदा भेद सहित समझाते हैं सो उस समय श्री महावीरस्वामीके समवसरणमें उपस्थिन गणनायक श्री गौतमस्वामीने प्रभुकी वाणीको सुनकर सभाजनको साश सत्य, व सर्य, पंचास्तार इत्यादि स्वरूप समझाकर रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन सम्यक्शान. सम्यकचारित्र) रूप मोक्षमार्गका कयन किया और सागार ( गृहस्थ ) तथा अनगार ( साधु-गृहत्यागी ) धर्मका उपदेश दिया, जिसे सुनकर निकट 'भव्य ( जिनकी संसार-स्थिति थोड़ी रह गई है) अर्थात् मोक्ष होना निकट रह गया है. ) जीवोंने यथाशक्ति मुनि अथवा श्रावणफे प्रत धारण किये, तथा जो शक्तिहीन जीव थे और जिनको दर्शनमोहका उपाम व क्षय हुवा था। उन्होंने सम्यक्त्व ही ग्रहण किया ।
इस प्रकार जब वे भगवान धर्मका स्वरूप कथन कर चुके, सब उस सभा में उपस्थित परम धनालु भक्तराज श्रेणिकने विनययुक्त नम्रीभूत हो श्री गौतमस्वामी ( गणघर ) से प्रश्न किया कि " हे प्रभु ! षोड़श कारण व्रतको विधि किस प्रकार है, और इस व्रतको किसने पालन किया तथा क्या फल पाया? सो कृपाकर कहो, ताकि हीन शक्तिधारी जीव भी यथाशक्ति अपना कल्याण कर सके, और जिन धर्मको प्रभावना होवे।