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११४] सोलहकारण धर्म ।
एक दिन इसी राजगृही नगरके समीप उद्यान वनमें विपुलाचल पर्वतपर श्रीमद्देवाधिदेव परम भट्टारक श्री १००८ वर्तमानस्वामीका समवसरण आया, जिसके अतिशयसे वहाँके यन उपवनोंमें छहों ऋतुओंके फल फूल एक ही साथ फल और फूल गये, तथा नदी सरोवर आदि जलाशय अलपूर्ण हो गये, वनचर व जलपर आदि जीव सानन्द अपने अपने स्थानोंमें स्वतंत्र निर्भय होकर विचरने और क्रीड़ा करने लगे। दूर दुर तक रोग मरी व अकाल आदिका नाम भी न रहा, इत्यादि अनेकों अतिशय होने लगे, तब वनमाली फल और फूलोंकी डाली लेकर यह मादायक प्रचार
के लिये गया और विनययुक्त भेट करके सत्र समाचार कह सुनाये ।
राजा श्रेणिक यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ और अपने सिंहासनसे तुरत ही उतर कर विपुलाचलकी और मुंह करके पशेक्ष नमस्कार किया। पश्चात् वनपालको यथेच्छ पारितोषिक दिया और यह शुभ संवाद सब नगर भरमें फैला दिया, अर्थात् यह घोषणा करा दी कि महावीर भगवानका समवसरण विपुलाचल पर्वतपर आया है, इसलिये सब नरनारी वंदनाके लिये चलो और राजा स्वयम् भी अपनी विभूति सहित हर्षित मन होकर वंदनाके लिये गया ।
जाते २ मानस्तंभपर दृष्टि पड़ते ही राजा हाथीसे उतरकर पांच प्यादे समवसरण में रानी आदि स्वजन पुरजनों सहित पहुंचा
और सब ठौर यथायोग्य वंदना स्तुति करता हुआ गंधकुटीके निकट उपस्थित हुआ और भक्तिसे नम्रभूत हो स्तुति करके मनुष्योंकी सभामें जाकर बैठ गया और सब लोग भी यथायोग्य स्थानमें बैठ गये ।