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सोलहकारण धर्मं ।
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प्रचारणसे शास्त्रोंके अध्ययन व अध्ययनसे विद्वानोंकी सभायें करानेसे, अपने सदाचरणके कारणसे, लोकोपकारी कार्यं करनेसे, दान देनेसे, संघ निलालने व विद्यामन्दिरोंकी स्थापना व प्रतिष्ठादि करनेसे सत्य व्यवहारसे संयम नियम व तपादिक करनेसे होती है। ऐसा समझकर यथाशक्ति प्रभावनोत्पादक कार्यों में प्रवर्तना सो मार्ग प्रभावना" नाम भावना है ।
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( १६ ) संसार में रहते हुए जीवोंको परस्परकी सहायता व उपकारकी आवश्यकता रहती हैं ऐसी अवस्थामें यदि निष्कपट भावसे अथवा प्रेमपूर्वक सहायता न की तो परस्पर यथार्थं लाभ पहुंचना दुर्लभ ही है, इतना ही नहीं किन्तु परस्पर के विअनेकानेक नियां भी रही हैं। इसलिये यह परमावश्यक कर्तव्य हैं कि प्राणी परस्पर ( गायका अपने बछड़े पर जैसा निष्कपट और गाढ़ प्रेम होता है वैसा ही प्रेम करे। विशेष कर सामियोंके संग तो कृत्रिम प्रेम न करें ऐसा विचार कर जो अपना निष्कपट व्यवहार सामियों तथा प्राणी मात्रसे रखतें हैं । प्रवचन वारसख्य भावना कहते हैं ।
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इन भावनाओंको अन्तकरण से चिंतन करने तथा तदनुसार प्रवर्तन करनेका फल तीर्थकर नाम कर्मके आश्रयका कारण हैं । इस प्रकार भावनाओका स्वरूप कहकर अब व्रतकी विधि कहते हैं.
भादों, माघ और चैत्र (गुजराथी, श्रावण, पोष और फाल्गुन वदी १ से भादों, माघ, चैत्र सुदी १ तक ) मास में ( एक वर्ष में तीन वार ) पूरे एक मास तक व्रत करना चाहिये। इन दिनोंमें तेला बेला आदि उपवास करे अथवा नीरस, एक रस, ऊनोदर