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श्री सोलहकारण धर्म-दीपक [ सोलहकारण व्रत महिमा, सवैया
और व्रतकथा सहित
लेखक:स्व. धर्मरत्न पं. दीपचंदजी वर्णी
प्रकाशक:शैलेश डाह्याभाई कापडिया
दिगम्बर जैन पुस्तकालय, कापडिया भवन, गांधी चौक-सूरत।
पांचवी बार
वीर सं० २५१३
[प्रति १५..
" जैन विजय" प्रिन्टिंग प्रेस-सूरतमें शैलेश डाह्याभाई
कापड़ियाने मुद्रित किया।
मन्य-१-००
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प्रस्तावना
तोर्थ प्रकृतिका बंध करनेवाले श्री सोलहकारण व्रतको १६ भावनाओं के विशद वर्णनको यह पुस्तक हमने वो संवत् २४०२
(मासे ३६ वर्ष पहले ) ओ प. दोपचंदजो परवार वर्णो नरसिंहर "निवासो के लिखवाकर " दिगम्बर जैन " की भेंट में प्रकट को थो, वह इतनो लोकप्रिय हुई कि उसको दूसरी आवृत्ति वोर संवत् -२४४२ में निकालना पड़ी थी। वह कुछ हो महिनोंमें खतम हो जानेसे वोर संवत् २४६९ में तिसरी आवृत्ति प्रकट को गई थो वह भो पुरी हो जाने से यह चोयो आवृत्ति वोर संवत २४७८ में प्रगट को थो, वह बोक जाने पर पांचवी आवृत्ति प्रगट की जाती है ।
इस पुस्तक में "सोलहकारण धर्म" के साथ सोलहकारण महिमा सवैया व व्रतकथा भो शामिल को गई हैं। अतः सोलह कारण व्रत करनेवालोंको व सोलहकारण धर्मका स्वरूप जाननेवालों को यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी हो सकेगी।
हमारे भाई बहिन सोलहकारण व्रतके प्रोषधोपवास करते 'है उसके उपलक्ष में प्रभावनामें यह पुस्तक अवश्य बांटनी चाहिये । स्वाध्याय के लिये भी यह पुस्तक उपयोगो होगी, अतः सोलहकारण व्रतके दिनों में तो इसका पठनपाठन होना आवश्यक है । पर "सोलहकारण धर्म-दोपक" नामक चित्र भो बनाकर रख दिया है। जिसमें दोपक रखकर सोलह धर्मोके नाम बता दिये है ।
इस पुस्तक
आशा है इस पांचवी आवृत्तिका भो शोध हो प्रचार हो
जायगा |
सूरत, बीर संवत २५१३ शाख सुदी ३ आ. १.५६
निवेदक:---
'स्व. मूलचन्द किसनदास कापडिया, शैलेश डाह्याभाई कापडिया
ाशक
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॥ ॐ नः सिद्धयः॥ मालहकारण धमा
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पमता शीलवतेवनतीचारोऽभीषणज्ञानोपयोगसम्बेगी शक्तितम्यागतपसी साधुसमाधियावृत्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावष्यकापरि - हाणिमार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिनि तीर्थसत्यस्य ॥२४॥
( इति तत्वार्थसूत्र ० ६) __ अर्थ-दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलवतेषु अनतिचार, अभीष्ण ज्ञानोपयोग, सम्वेग, शक्तितःत्याग, तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अहंदभक्ति, आचार्यभक्ति, उपाध्यायभक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्व ये सोलहकारण भावनायें हैं । इनको धारण करने तथा बार बार चितवन करनेसे सर्वोत्कृष्ट ऐसी तीर्थङ्कर प्रकृतिका आनव तथा बन्च होता है। ___ भावार्थ-आस्रव दो प्रकारका होता है-भावालय और द्रव्यानक । आत्माके चैतन्य गुणके रागद्वेष रूप विभाग परिणमनको भावास्तव कहते हैं । और उन आत्माके विभाव स्वभावका निमित्त पाकर जो पुद्गल वर्गणाएं कर्मरूपसे प्राण होती हैं उसे द्रव्यास्रव कहते हैं। सो मे दोनों आरव भी
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२]
सोलहकारण धर्म ।
दो प्रकारके होते हैं - (१) शुभ ( २ ) अशुभ । शुभास्रवको पुष्य, अशुभ स्त्रको पाप कहते हैं । तात्पर्य - जीवके रागद्वेषादि रूप द्रव्यकर्मोके परमाणुओंका आत्माकी ओर आना सो अखब कहलाता है ।
इन द्रव्यकर्मो के वाति अधाति रूपसे दो भेद हैं। ज्ञानावरण ( ज्ञानको न प्रगट होने देनेवाला) दर्शनावरण ( देखनेकी शक्तिको पोकनेवाला), अंतराय (आत्मोपकारी कारणों में विघ्न करनेवाला) और मोहनी ( स्वस्वरूपसे भिन्न प्रवृत्ति करनेवाला) ये चारों पातिकर्म कहे जाते हैं। क्योंकि ये आत्माके स्वरूपका घात करने वाले हैं, नारों को ही है क्योंकि ये जीवके गुणोंको घातते अर्थात् आच्छादित करते हैं। इस कारण जीव अचेतसा हो जाता है ।
और आयु ( किसी भी गतिमें किसी नियत कालतक स्थिर रखनेवाला), नाम ( अनेक प्रकारके आकार, प्रकार, रूप, गति आदिको प्राप्त करानेवाला ), गोत्र ( ऊच नीचकी कल्पना करानेवाला और वेदनी ( सुखदुखरूप सामग्री मिलानेवाला ) ये चारों कर्म अघाति कहे जाते हैं। क्योंकि ये बाह्य कारण स्वरूप ही हैं। क्योंकि ये घाति कर्मोंके अभाव होते हुये आत्माका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते हैं। ये पुण्यरूप | शुभ ) और पापरूप (अशुभ) दोनों प्रकारके होते हैं । अर्थात् इनकी कितनी प्रकृतियां पुण्यरूप हैं और कितनी पापरूप हैं। इन पुण्य प्रकृतियोंमें सबसे उत्तम नामकर्मकी तीर्थङ्कर प्रकृति है । अर्थात् त्रैलोक्यमें तीर्थंङ्करके समान किसीका भी पुण्य तीव्र नहीं होता है ।
देव देवेन्द्र, नर नरेन्द्र, लग खगेन्द्र, पशु पश्वेन्द्र आदि सब ही वीर्थंकर भगवानके सेवक होते हैं । और जिस भवमें
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सोलहकारण धर्म । तीर्थकर प्रकृतिका उदय होता है, उसी भवमें यह जीव सम्पूर्ण घाति अधाति कोका नाश कर सिद्धपद (निर्वाण } को प्राप्त होता है। इसलिये यह तीर्थङ्कर प्रकृति सर्वथा उपादेय ( प्राप्त करने योग्य ) है।
सो जब कोई जीव उपर्युक्त सोलह भावनाएं, किसी केवली तथा श्रुत केवलोके निकट प्राप्त होकर भाता है और निरन्तर इनका विचार करके तन्मयी हो जाता है तब उसका तीर्थङ्कर प्रकृतिका आस्रव तथा बंध होता है । इसलिये यहां उन्हीं परम पुण्यकी कारण सोलह भावनाओंका स्वरूप विशेष रुपसे वर्णन किया जाता है !
सबसे प्रथम और मुख्य भावना दर्शन विशुद्धि है । क्योंकि दर्शन । सम्यकदर्शन या सम्यक्त) की शुद्धता बिना शेष भावनाएं कार्यकारी नहीं हो सकती हैं । नहा है।
दशन ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधार तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते ।. ३१ ।' विद्यावनस्य संभृतिस्थितिधुद्धिफलोदयाः । न मन्त्यसति सम्यक्त्वे जीजाभावे तरोरिव ॥ ३२ ॥
रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थात्-जान और चारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन ही मुख्यतया उपासना की जाती है। क्योंकि वह मोक्षमार्गमें लेवटियाके समान' कहा जाता है । जैसे बीजके विना वृक्षकी स्थिति, वृद्धि और फल आदिको संभावना ही नहीं होती है उसी प्रकार सम्यक्त्वके विना ज्ञान और चारित्रकी स्थिति बुद्धि और फलदातृत्वको संभावना ही नहीं होती है । इसलिये सबसे प्रथम दर्शनविशुद्धि भावनाको ही कहते हैं ।
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सोलह्कारण धर्म ।
() दशनविशुद्धि। आत्मा ( जीव ) का बह गुण, जो अनन्तानबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोग और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति मिथ्यात्व इन सात कर्मकी प्रकृतियोंके उपशम व क्षयोपशम व क्षय होनेसे प्रगट होता है उसे सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन गुण कहते हैं।
यह सम्यग्दर्शन के प्रकारका होता है... यि और व्यवहार !
निश्चय सम्यग्दर्शन सत्यार्थ स्वरूप अर्थात् पुद्गलादि परद्रव्योंस भिन्न निज शुद्ध स्वरूपका श्रद्धान होनेको कहते हैं। ऐसा ही कविवर पण्डित दौलतरामजीने छहढालामें कहा है
पाद्रव्यनते भित्र आपमे हाच सम्यक्त्व भला है। व्यवहार सम्पग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शनके कारण जीवादि प्रयोजनभूत तत्वोंके सथा इन ( तत्वों । के प्ररूपण करनेवाले सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शाख । धर्म) के श्रद्धानको कहते हैं।
यहां पर कारणमें कार्यका आरोपण करके ( उपचारसे) यह कथन किया जाता है। ___व्यवहार सम्यग्दर्शनका स्वरूप भगवान उमास्वामीने तत्वार्थसूत्र अध्याय १ में इसी प्रकार कहा है
तत्वार्थ श्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ अर्थजोव, अजीव, आश्रद, बन्ध, संवर, निर्जरा और. मोक्ष इन सातों तत्वोके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
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सोलहकारण धर्मं ।
और पंडित मेघावीजीने निम्न प्रकार कहा है
आप्तपरो न देवास्ति धर्मात्तद्भाषिताच हि । निषाद गुरुस्ती टोचनम्॥ २५९ ॥ धर्म संग्रह श्रावकाचार म० ४ )
समिति
अर्थ- आप्त. ( सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशीपनेको धारण करनेवाले देव ) और आमहीका कहा हुआ धर्म ( जिनधर्म तथा नियन्य गुरु ( सब प्रकारके बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित बीतराग मार्ग पर चलनेवाले ) के सिवाय अन्य रागो द्वेषी देव, हिंसामई विजय कषायांको पुष्ट करनेवाले धर्म ओर भेषी या सपरिग्रही गुरुओंको कल्याणकारी नहीं मानना | अवधि सत्यार्थ देव गुरु और धर्मका पका श्रज्ञान होना सो सम्यग्दर्शन है ।
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इसी प्रकार भिन्न भिन्न आचार्योंने सम्यग्दर्शनका स्वरूप कार्य, कारण व निश्चय व्यवहारको मुख्यता तथा गौणतासे भिन्न प्रकार का है । परन्तु तात्पर्य सबका एक ही है । अर्थात् स्वस्वरूप श्रद्धान होने ( भेद विज्ञानको प्राप्त होने ) के लिये जोवादि तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान होना परम आवश्यक है । और उन ( जीवादि तत्वांके कान करानेके लिये उनके कथन करनेवाले आप्त ( देव ), अगम ( धर्म) और गुरुका श्रद्धान होना आवश्यक है। इसलिये कारण में कार्यका आरोपण करके यह कहा गया है । क्योंकि देव गुरु, श्रर्भके छानसे श्रीवादि तत्वोंका श्रद्धान होता है । और जीबादि तत्वोंके श्रद्धा नसे निज स्वरूपका श्रद्धान होता है । निज स्वरूपका श्रद्धा होना ही सम्यग्दर्शन होने रूप कार्य है । और शेष दोनों लक्षण उत्तरोत्तर कारण स्वरूप तथा कारणके कारण स्वरूप
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सोलहकारण धर्म । है इसलिये व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है।
जीवादि तत्वोंका विवेचन द्रव्यसंग्रह, गोमटसार, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में विशेष रूपसे किया गया है, परन्तु संक्षिप्त रूपसे यहां भी कुछ कहते हैं
तत्त्व-पदार्थके यथार्थ स्वरूपको कहते हैं । सो पदार्थको उसके यथार्थ स्वरूप सहित दृढ़ श्रद्धान करना, यही तत्वार्थ श्रद्धान है । तत्वको पदार्थ द्रव्य वस्तु इत्यादि अनेक नामोंसे पुकारते हैं।
तत्त्व-मुख्यतया दो प्रकार के हैं-जीव और यजीव ।
जीव-उसे कहते हैं जो दर्शनज्ञान संयुक्त चैतन्य पदार्थ हो । यह जीव लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी अविनाशी अमू
कि अखंड अनन्तानन्त है । उनमें जो जीव सम्पूर्ण कर्मोको नाशकर मोक्षपदको प्राप्त हुए हैं वे सिद्ध जीव कहलाते हैं । वे संसार परिभ्रमणसे रहित स्वस्वरूपमें लीन हुए लोकशिखर के अन्त तनुवातदलय में नित्य शुद्ध परमात्म स्वरूपसे तिष्ठे. हैं । और जो जीव कर्म सहित हैं, वे संसारमें देव, नरक, पशु और मनुष्य आदि चतुर्गतियोंमें नानारूप घरते हुथे, स्वस्वरूपको भूले हुए परिभ्रमण करते हैं। ये संसारी जीव कहाते है वही संसारी जीव कर्मोका नाशकर सिद्ध (परमात्मा) पद प्राप्त करते व कर सकते हैं । ____ अजीव-- उसे कहते हैं जो चसन्यता रहित अर्थात् जड़ हो । उसके छ: भेद हैं अजीव,आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । अजीव दो प्रकार के होते हैं-मूर्तीक और अमूर्तीक । मूर्तीक ( रूपी ) जो स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण सहित हो । इसे पुद्गल द्रव्य भी कहते हैं । यह अण और स्कंध रूपसे
१-देखो विश्व तत्त्व चार्ट नं० १ ।
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सोलह्कारण धर्म |
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दो प्रकारका होता है ।
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अणु - पुद्गलका वह छोटेसे छोटा भाग है, कि जिसका दुसरा भाग न हो सके 1
स्कंध - दो आदि संख्यात, असंख्यात तथा अनंत अणुबाँके एक बंधानरूप पिण्डको कहते हैं । पुद्गल द्रव्य भी लोकमें अनन्तानन्त हैं ।
अमूर्तीक - जो स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण रहित हो । ये चार प्रकार के होते हैं- धर्म, अधर्म काल और आकाश । धर्म द्रव्य - जो पदार्थ जीव और पुद्गलको चलनेमें उदासीन रूपसे सहकारी कारण मात्र हो, प्रेरक न हो, जैसे मछलीको पानी। वह समस्त लोकाकाशमे व्याप्त अखंड संदेश एक ही तव्य है।
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अध द्रव्य – जो पदार्थ जीव पुद्गलको स्थिर रहने उदासोन रूपये सहकारी कारण मात्र हो प्रेरक न हो । जैसे पथिकको वृक्षकी शीतल छाया । यह द्रव्य भी वर्मद्रव्य के समान समस्त लोकाकाशमें व्याप्त अखंड असंख्यातप्रदेशी एक ही द्रव्य है ।
काल द्रव्य - वह पदार्थ है ( कोई कोई श्वेताम्बरादि बाचार्य कालको द्रव्य उपचारसे मानते हैं) जो पदार्थोंकी बस्था बदलने में उदासीन रूपसे निमित्त कारण हो । यद्द असंस्थात कालाणु रूप द्रव्य रत्नोंकी राशिके समान पृथक पृथक समस्त लोकाकाशमें भर रहा है। सो यह निश्चय और व्यवहार दो प्रकारका होता है ।
निश्चय काल - केवल वर्तमानरूप है। इसके असंख्यात प्रदेश परस्पर एक दुसरेसे भिन्न हैं जो कभी नहीं मिलते हैं, इससे इसको अकाय भी कहते हैं ।
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सोलहकारण धर्म |
व्यवहार काल - घड़ी घंटा दिवस आदिकी कल्पना रूप है जो निश्रम कालकी समयरूप पर्यायसे उत्पन्न होता है | एक पुद्गलका परमाणु जब मंदगतिसे एक कालाणु अन्य कालाणु पर जाता है और उसके जाने में जो समय लगता है उसे एक समय कहते हैं । जैसे पुद्गल परमाणु कालका अणु ( कालाण ) और आकाशका प्रदेश सबसे छोटा होता है, उसी प्रकार समय भी सबसे छोटा कालका विभाग है। ऐसे अनन्त समयोंकी १ आवली घडी घटा दिवस पक्ष मास वर्ष युग युगांतर आदिको कल्पना की जाती हैं ।
आकाश द्रव्य - वह पदार्थ है जो जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म और काल आदि द्रव्योको अवगाहना ( स्थान ) दे । यह भी दो प्रकार हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश ।
लोकाकाश-जहां उक्त जीवादि पांच द्रव्य पाए जावें । अलोकाकाश-जहां पर केवल आकाश मात्र ही हो । इसी अनन्त अलोकाकाशके मध्य में असंख्यात्प्रदेशी लोकाकाश है । यह भी अखण्ड एक द्रव्य है ।
आस्रव - जीवके रागद्वेषादि चैतन्य विभाग भावो द्वारा योगोंकी प्रवृत्तिके होने से पुद्गल ( द्रव्य कर्म परमाणुओका जीवकी ओर आना । यह शुभ और अशुभ दो प्रका होता है ।
शुभ अर्थात् पुण्य और अशुभ अर्थात् पाप ।
बन्ध - योग और कषायोंके निमित्तस जीव और पृगल कर्म परमाणुओंका एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होना सो आस्रव भेदके यह शुभाशुभ दो भेदरूप होते हैं ।
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संवर- आते हुये कर्म परमाणुओंको योगोंका निरोध:
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सोलहकारण धर्म । करके आनेसे रोकना । यह भी आस्रव तथा बंघकी तरह दो प्रकारका है।
निर्जरा--पूर्व कालके बंध हुए कम परमागुऔका सम्बन्ध क्रमनमसे तपश्चरणादिने द्वारा आत्मासे छुड़ाना ।
मोक्ष-बंधे हुए सम्पूर्ण देव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्मीका जीवसे सर्वथा सदाके लिने सम्बन्ध छूट गाना ।
इस प्रकार संक्षेपसे तत्त्वोंका स्वरूप कहकर अब देव, धर्म और गुरुका स्वरूप कहते हैंसत्यार्थ देवका स्वरूप
आप्न नाच्छिन्नदोषण मयज्ञ नागाना । भवितव्यं नियागे ना पथा ह्यासता भवेत् ।।५।। भनिगायाजन्मान्तकमयस्मयाः । न रापमा यस्याप्तः म प्रकीत्यते ।। ६ ।
(रलकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थ –नियमसे जो धोतरागी अर्थात् क्षुधा, वृषा, वुढापा, रोग, जन्म, मरण, भंप, गर्व, राग, द्वाप मोह चिन्ता, रति, अरति, स्वेद, खेद निद्रा, और आश्चर्य, इत्यादि दोषोंसे रहित, सर्वज्ञ अर्थात् अलोक सहित तीनों लोको समस्त पदार्थोंको उनकी त्रिकालवी पर्याों सहित एक ही समयमें जाननेवाला और हितोपदेशी अर्थात् वस्तु स्वरूपका यथार्थ कथन करनेवाला ही आप्त ( देव ) होता है । अन्यथा देवपना नहीं हो सकता है।
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सोलहकारण धर्म ।। सत्यार्थ गुरुका स्वरूप-- विषयाशायशाती तो निरारम्भोऽपरिग्रहः । शानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० ॥
( रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थ-जो पांचों इन्द्रियों के विषयोंकी आशाके वशसे रहित हो, आरम्भ रहित हो, दश प्रकार बाह्य (क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी. दास, कुष्य और भांड। और चौदह प्रकार अन्तरङ्ग ( मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद ) परिग्रहोंसे रहित हो । ज्ञान (सम्यग्ज्ञान), ध्यान (धर्म या शुलाम्यान ) तप ( अनशन, ऊनोदर-अवमोदर्य, प्रतपरिसंख्यान, रस परित्याग. विविक्त शय्यासन और कायक्लेश अर्थात् परिषह तथा उपसर्ग सहन करना ये ६ प्रकार बाह्य तप और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, और ध्यान ये छ: अभ्यन्तर तप, इस प्रकार तपशरणमें ) लवलीन हो वह तपस्वी अर्थात् गुरु प्रशंसा करने योग्य है। सत्यार्थ शास्त्र (धर्म) का स्वरूपआसोपज्ञमनुल्लङ्घयम दृष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत्साचे शास्त्र काप घट्टनम् ।।९।
(रत्नकरण्ड प्रावकाचार अ० १) अर्थ-जो आप्तका कहा हुआ हो, वादी प्रतिवादियों द्वारा खंडन न किया जा सके, प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणोसे विरोध रहित हो, पूर्वापर दोष रहित हो, वस्तुस्वरूपका उपदेश करनेवाला हो, सब जीवोंका हितकारक हो और मिथ्यामार्गको खंडन करनेवाला हो, सो ही सत्यार्थ शास (धर्म) है।
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सोलहफारण धर्म । उपर कहे अनुसार सत्वों तथा देव, धर्म, गुरुका श्रद्धान करते हुए सम्यग्दर्शनको बढ़ानेवाले अष्ट अङ्गोंको भी धारणा करना चाहिये । क्योंकि कहा है
दर्शनम् नाङ्गहिनं स्यादल छेतु भशवलिम् । मात्राहीनस्तु किम् मंत्रो विषमच्छी निरस्यति । ६० ।।
(धर्मसंग्रहश्रावकाचार अ० ४) अर्थ-अङ्गहीन सम्यग्दर्शन संसारसंततिको छेदनको समर्थ नहीं है, जिस प्रकार मात्राहीन मंत्र विषवेदनाको दूर नहीं कर सकता है । इसलिये निम्न लिखित अष्ट अङ्गोंको भी धारण करना आवश्यक है
१) निःशदूत- अर्थात् जिनागममें शंका न करना, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि समझने में न आवे तो पूछना भी नहीं, प्रश्न भी नहीं करना, केवल समझे वा न समझ परन्तु हां हां महाराज, जी महाराज कहते जाना इत्यादि । किन्तु अभिप्राय यह है कि मनमें यह हड़ श्रद्धान रखना कि जिनेन्द्र भगवानने तत्त्वका जो स्वरूप कहा है, वह तो यथार्थ ही है । परन्तु मेरी बुद्धिमंदताके कारण समझमें नहीं आया इसलिये समझने के अभिप्रायसे (जिज्ञासु भावसे) सवितंकों द्वारा प्रश्न करके समझाने में निःशाशित अङ्ग खंडित नहीं किन्तु मंडित होता है । कारण हांजी हांजी द्वारा मानी हुई बातमें कभी भूल होना, भ्रम पड़ना थान भ्रष्ट हो जाना भी संभव है । परन्तु वादविवादपूर्वक समझे हुए विषयमें फिर शंका ही नहीं रहती है। क्योंकि वह समझकर ग्रहण करता है । परन्तु जो लोग समझते तो कुछ नहीं है; केवल कुतकों द्वारा समय नष्ट करना चाहते हैं उनके लिये चाहे जो नियम
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सोलहकारण धर्म ।
बना लिया जाय । इसलिये सम्यग्दृष्टि पुरुष सदव जिनागम में श्रद्धा रखकर : करी है ।
(२) नि:काक्षित-अर्थात् संसारके विषयभोगीको विनाशोक और दुःखोंसे भरे हुए जानकर उन में लवलीन नहीं होना । अर्थात् भोगाकांक्षा रूप निदानादि न करना ।
३. निबिचिकित्सा-साधर्मीजनों व रत्नत्रयके धारी साधुजनों के मलिन शरीरको देखकर घृणा न करके उनके गुणामें अनुराग करना । तथा ग्लानि रहित हो वैयावृत्तादि करना ।
(४) अनुहष्टि -देव अदेव, धर्म अधर्म, सुगुरु कुगुरु, इत्यादिका विचार करके उनमें भेद करना, और देव, धर्म, गुरु, तत्वादिका यथार्थ श्रद्धान करके शेषको मन, बचन, काय व कृत कारित अनुमोदनापूर्वक त्याग करना ।
(५) उपहन-जिन कारणोंसे सस्य धर्मपर झूठे आसेप होते हों व धर्मका हास्य या निंदा होतो हो, उन कारणोंको रोके, दबावे, तथा प्रगटपने अपने गुणों की प्रशंसा और दूसरोंके छते व अनछत गणों की निंदा नहीं करना ।
(६) स्थितिकरण सम्यग्दर्शन व सभ्याचारित्रसे डिगते हुवे जीवाको उपदेशादि द्वारा अथवा अन्य किसी प्रकारसे स्थिर करना ।
(3 वात्सल्य----साधर्मी भाइयोके प्रति तथा जीव मात्रासे भी गाय और उसके बछडेके समान निष्कपट प्रेम रखना, और स्वशक्ति अनुसार उनकी सेवा सुश्रुषा, सहायता व भक्ति आदि करना।
() प्रभावना-सर्वत्र सर्वोपरि सच्चे ( जैन धर्मका .अभावं प्रगट करना ।
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सोलहकारण घम । अब २५ मलदोषोंकों कहते हैं - मि च मदाष्टः च षडेवाऽऽयतनानि च । शंकादयोऽष्टसम्भक्त्वे दोषाः म्यु: पंचविशतिः ।।२९||
( धर्मसंग्रह श्रावकाचार अ० ४) अर्थ तीन : देव, लोक और गुरु । मुढ़ता, अष्ट ( शान, कुल, जाति, बल, सम्पत्ति. तपश्चरण रूप ऐश्वर्य ) मद, छह (कुदेव. कु.गुम्, 'कुनाई और जुडेज सेगक, तुम रोवः और. कुधर्म रोवक अनायतन और आठ | शंका, कांक्षा, ग्लानि, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितीकरण अवात्सल्य और अप्रभावना । दोष, इस प्रकार सब मिलकर पञ्चीस मलदोष हुवे, इनका त्याग करना चाहिये । इनका कुछ सक्षिप्त वर्णन नीचे किया जाता है
देव मदुता। भय, आशा, स्नेह या लोभादिके वश हो करके रागी दोषी देवोंको तथा जिनदेवको भी पूजना व उनकी मानता मानना सो देवमूढ़ता है। कारण, किसी भी प्रकारको लौकिक सिद्धिकी इच्छा करके जो देवपूजादि करना सो देव मूढ़ता है । क्योंकि कार्यकी सफलता असफलता जो होगी वह अपने ही किये हुवे पूर्व पुण्य और पापक के अनुसार यथायोग्य होगी। इसमें कोई देव देवो कुछ भी कर नहीं सकते हैं । क्योंकि पुण्य कर्म तो मंद कषायोंसे किये हुवे सपश्चरण दया दान व्रत शील संयम ध्यान ज्ञानादिसे होता है। सो इनमें ने प्रवृत्ति कर देवोंकी मानता मानना भूल है, मूढ़ता है, अज्ञान है। यदि कहो कि तब तो जिनदेवकी भी उपासना नहीं करना ठहरा सो ठीक है। लौकिक अभिप्रायोंकी सिद्धिके
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सोलहकारण धर्मं ।
अर्थं जिनदेवकी भी पूजा सेवा करना व्यर्थ है । जिनदेवकी पूजा को इस अभियान करना चाहिये कि यह नीप ( मैं ) जो कर्मवश संसार में जन्ममरणका दुःख पा रहा है, विषयकषायों की तृष्णामें घोर दुःख पा रहा है उससे किसी प्रकार छूटे। सो हे जिनदेव ! आपने इन विषय कषायोंको क्षीणकर कर्मोपर विजय पाई है और जन्ममरणसे रहित हुवे हो, इसलिये हमको अपना अविनाश मोक्षपद देवी ( आपका पद हमें भो मिले विचारनेका अवसर है कि जो देव स्वयम् काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, मान, खेद, चिंता, भय, विस्मय, ग्लानि आदिके वश में हुवे दुःखित हो रहे हैं, वे दूसरोंका दुःख कैसे दूर कर सकते हैं !
दुःख तो दूसरोंका उसीके कारण दूर हो सकता है जिसने प्रथम अपना सब प्रकारका दुःख दूर करके सच्ची स्वाधीनता ( मोक्षपद ) प्राप्त की हो। और यह बात जिनदेव हो में पाई जाती है । इसलिये निरीच्छा होकर जिनदेवको पूजा, स्तवन, गुण, कीर्तन करना चाहिये। यहां इतना और ध्यान रखना चाहिये कि कालदोषसे कितने ही लोगोंने जैनके नामसे अनेक प्रकारके संसारी देवों जैसे यक्ष, दिकपालादि देवोंकी पूजा भी चला दी है और वे उसकी पुष्टिमें भोले लोगोंको अनेकों युक्तिशुन्य प्रभाणों द्वारा बहुका लेते हैं । तथा कितने चोवीस तीर्थंकरोंको परम दिगम्बर वीतराग मुद्राको बिगाडकर, उनकी प्रतिमाओं को मुकुट कुंडल हीरादि आभूषणसे तथा आगो आदिसे अलंकृत करके भो उन्हें वीतरागदेवको मूर्ति बताते हैं । सो परीक्षा करके हो सच्चे १८ दोष रहित देवका आराधन करना चाहिये और इनके सिवाय : अन्य रागी, द्वेषो आदि . कुदेवोंकी पूजादि करना देवमूढ़ता है ।
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सोलहकारण धर्मं ।
गुरुपूढ़ता
आरम्भ और परिग्रहके धारो, लोकमें अपनी प्रतिष्ठा पानेके इच्छुक, यंत्र मंत्र तंत्रोंके द्वारा युवक युवतियोंको फंसाकर द्रव्य कमानेवाले, तथा योगकी ओट में भोग भोगनेवाले, मठाधीश, अखाड़ेवाले महन्त नाना प्रकारके कल्पित भेवधारी गुरुओं ( साधुओं) की सेवा करना सो पाखण्ड ( गुरु मूढ़ता है । कारण जो अपना घर स्त्री पुत्र आदि त्यागकर भी त्यागी नहीं हैं, जो वनमें रहकर भी गृहस्थोसे अधिक आरम्भ परिग्रह रखते हैं, बात बात में श्राप देनेके लिये दुर्वासा ऋषिको होड करते हैं, लोगों को ठगने के लिये पुत्र पुत्रादि देनेके ठेकेदार बनते हैं, किसीकी हार, किसीको जीत कराते है, जो स्त्री पुत्र के मर जानेके कारण वियोगी होकर साधु हुए है। या स्त्री न मिलने के कारण या किसी रूपवान स्त्री हो के लिये साधु हुए, या घन लुट जाने से या धन कमानेके लिये हो साधु हुए हैं, या जो परिश्रम करके व्यापार, मजदूरी आदिके द्वारा द्रव्य न कमाकर कायर हुए, अपने जीवननिर्वाहका यही साधन बना भस्मी लगाकर, भगवे कपडे पहनकर जटा बढाकर या मूडाकर भेषधारी बकुल ध्यानी साघु हो जाते हैं । सो भला जब ये विचारे स्वयम् अपने आत्माके ठग, अपनाही कल्याण करनेमें असमर्थ, अक्षरज्ञान शून्य, अपने मठ या पदकी रक्षार्थ पण्डि तोंको नौकर रखकर उनके द्वारा पूजापाठ कराते और आप केवल मुंह चलाकर आशीर्वाद देनेवाले लोग दूसरोंका क्या भला कर सकते हैं ? सिवाय इसके लिये अपने पूजकों और शिष्योमे दण्डनीति धारणकर टेक्स ( कर ) वसूल करते और खूब मजे उडाते हैं। अपने पांव पुजवाना ही इनका उपदेश है। इसलिये परम दिगंबर मुद्राधारी बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहसे
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सोलहकारण धर्म ।
विरक्त सच्चे कल्याण करनेवाले दिगम्बर जैन मात्र ही होते हैं । उनके सिवाय शेष उपर कहे अनुसार जो आरम्भी व परिग्रही गुरुमोंको मानना मो गुरुमृढ़ता है, त्याज्य है ।
लोक (धर्म) महता ।
"
विना समझे अर्थात् हिताहित, गुण अवगुण आदिका विचार विना किये, जो देखा देखी धर्म समझकर किसी कार्यमे प्रवृत्ति करना सो लोकता है। जैसे नदीमें नहाने से, पहाड़ पर से गिरने से संडे मुस्तन्दे भिखमंगों को खिलानेसे, तीर्थोंमें जाकर जीमनवार करनेसे, मरनेके बाद श्राद्धादि पिण्डदान करनेसे, दूसरोके पुत्र पुत्र्यादिका विवाह करा देनेसे बालू रेत व पत्थरोंका ढेर करने; सती होना, इत्यादि सब लोक मुहता है। कहा है
कोटि जन्म तप तर्षे ज्ञान बिन कर्म शरें जे । ज्ञानीक क्षण में त्रिगुप्ति, पड़न
दरें ते ।
( छह ढाला )
अर्थ - अज्ञानी करोड़ जन्मों में तप करके जितने कर्मोकी निर्जरा करता है ज्ञानी उतने क्या उनसे भी अनन्तगुणे कमकी निर्जरा मन, वचन और कायकी क्रियाको रोककर क्षणभर में कर देते हैं । इसलिये सम्यग्ज्ञान और श्रद्धासहित ही क्रिया फलदायक होती है, धर्म कहाती है । शेष क्रियासं कुछ लाभ नहीं, व्यर्थका कायक्लेश परिश्रम और द्रव्य व समयका व्यय करना है |
इस प्रकार ये तीन मूढता और उपर कहे आठ प्रकार के मद ( अहंकार), छः अनायतन और निःशंकित आदि गुणोंसे
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सोलहकारण धर्म |
जिन
लो
उल्टै माठ दोष इत्यादि पचीस मल दोष हैं उनको सर्वथा प्रकारसे टालकर निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करना चाहिये ।
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निर्मल सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेसे प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, ओर आस्तिक्यता तथा मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ इत्यादि चार चार भाव भी प्रकट होते हैं ।
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प्रशम - अर्थात् कषायोंकी मंदता होनेसे विषयों में अरुचिका होना ।
सम्वेग – संसार के दुःखोंसे भयभीत रहना तथा धर्मानुराज सहित यथाशक्ति संयम धारण करना ।
अनुकम्पा - प्राणी मात्र पर दयाभावका होना ।
आस्तिक्य- धर्म और धर्म के फलमें श्रद्धा ( दृढ़ विश्वास ) का होना अर्थात् कभी भी कठिनसे कठिन अवसर आनेपर ( रोग, शोक, भय, विश्मय, खेद, दरिद्रता इत्यादि उपस्थित होनेपर ) भी मनमें इस प्रकारको शंका न होना, कि धर्म करनेसे हो धर्मात्माओं को कष्ट आते हैं, और पापी आनन्द मनाते हैं, या यह पंचमकाल है, इसमें धर्म नहीं फलता, पाप हो फलता है इत्यादि । यद्यपि यह देखनेमें जाता है, कि वर्तमान में बहुत से सदाचारी पुरुषोंको कष्ट और पापियोंको सुख भोगने में आता है. परन्तु इससे यह न समझना चाहिये कि धर्मका फल दुःख और पापका फल सुख है, किन्तु यही दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि सदैव धर्मसे सुख और पाप से दुःख ही मिलता है ।
कितनी हो बहिनें मातायें केवल इसलिये ही पवित्र दिगम्बर
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सोलहकार धर्म |
जैन धर्म की श्रद्धासे शिथिल होजाती हैं कि " दि० आचायोंने तो श्री पर्याय मोक्ष नहीं बताया है", सो उनको जानना चाहिये कि यदि स्त्री पर्यायसे मोक्ष होता तो दिगम्बराचार्य क्यों ना कहते ? क्या उनके कहनेसे या उनके द्वारा उपदेशित धर्मको धारण करने ही से मोक्ष जानेसे रुक सकते हैं ? कदापि नहीं। फिर दिगम्बराचायको थियोंसे कोई द्वेष तो था ही नहीं जो ऐसा कहकर स्त्री जातिको निर्बल बताकर उनका चित्त दुखाते । जो महात्मा सूक्ष्म जीवोंकी भी रक्षाका उपदेश करे और मोटे पंचेंद्री प्राणीका चित्त दुखावे, क्या यह धर्मत्रालोके कभी सम्भव हो सकता है ? अथवा क्या अन्य कहने से हो मोक्ष हो जाता है ?
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क्या मोक्ष कोई ऐसी वस्तु है जो केवल आशीर्वाद देने मात्र से ( अनुग्रह ही मिलते। हमारी माता बहिनों और पुत्रियोंको धर्मका स्वरूप समझकर धर्म में ढ़ हो जाना चाहिये, विकल्पको त्याग देना चाहिये। इस प्रकार दृढ श्रद्धान करके उन्हें सच्चे देव वर्म गुरुकी भक्ति करना और अपना पवित्र जोवन शील संयम व्रतादि सहित बिताकर संलेखना - मरण करना चाहिये, इससे बीलिंग छेद होकर अवश्य हो अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त हो सकेगा, इत्यादि । ऐसा न करके क्यों त्यों संसारी सुखोंके लोभके वश होकर जो सच्चे दिगम्बर जैन धर्मको छोड़कर अन्य प्रकार विना विचारे देखादेखी करके प्रवर्तता है सो हो लोक ( धर्म ) मुड़ता है।
यह जो वर्तमान में उल्टा फल दृष्टिगत होता है, उसका कारण उन धर्मात्मा व पापात्मा जीवोंके पूर्वोपार्जित पाप मा पुण्य ( धर्म ) का फल है न कि वर्तमानका, इसलिए लोगोंको ( प्राणियोंको) उनके शुभ अशुभ भावों व कर्मोंका शुभाशुभ
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२० ।
सोलहकारण धर्म । रखन. इत्यादि), क्षमा ( अन्य प्राणियोंके द्वारा अपने उपर किये हुए उपासर्गोको सहन करना अर्थात् किन्हीं प्राणियोंपर क्रोध न करना) परोपकारिता, धर्य, पुरुषार्थ इत्यादि । अब यहां प्रश्न यह होता है कि सम्यग्दर्शनको प्रधानपद क्यों दिया जाता है ? तो उत्तर यह है कि स्वपरकल्याणाभिलाषी (मुमुक्ष ) प्राणी कल्याण ( मोक्ष) के सत्य मार्गकी ( सम्पग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी ) खोज व परीक्षा करके उसपर अपना दृढ़ विश्वास जमा लेता है। और फिर यदि वह प्राणी किसी कारणवश उस मार्गसे ध्युत होकर विपर्यय मार्ग पर भी चलता है ( चारित्रभ्रष्ट हो जाता है।) बौर अपना श्रद्धान जैसाका वैसा ही स्थिर रखता है, तो संभव है कि कमो वह फिर सम्यक मार्ग ग्रहण कर सकेगा, मयोंकि यह पारित होते हुए भी अपने विश्वाससे भ्रष्ट वही हुआ है । इसलिए उसे कल्याण मासि भ्रष्ट नहीं कर सकते है। __ जैसे स्वामी समंतभद्राचार्य, स्वामी माघनंदी मुन्यादि चारित्रनष्ट होकर भी दर्शनभ्रष्ट न होनेके कारण पुनः मोक्षमार्गमें स्थित हो गये थे, परन्तु जो पुरुष चारित्रपर कदाचित् दृढ़ हो । भले प्रकार पालता हो ) परन्तु दर्शन ( श्रद्धा ) से च्यूत हो गया है, तो उसका वह ज्ञान और चारित्र सभ्यग्ज्ञान और सम्य चारित्र नहीं कहा जा सकता है। यह । ज्ञान व चारित्र मिथ्याज्ञान व मिथ्या चारित्र ही जानना चाहिये और वह अवश्य छूट जायगा, वह भ्रममें पड़कर भ्रष्ट हो जायगा और प्रधान न होने के कारण फिर मोक्षमार्गमें नहीं लग सकेगा, अर्थात् वह अनंत संसारमें भटकता फिरेगा:
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सोनाहकारण धर्म । कुन्दकुन्दस्वामीने कहा भी हैदसणभट्टा भट्टा दसणमट्टस्य पत्थि णिवाणं । सिज्मति चरियभट्टा दंसणभट्टा पा मिज्झति ॥३।।
-दर्शन पाहुड । अर्थ-सम्यग्दर्शन भ्रष्ट जीव' ही भ्रष्ट कहा जाता है। सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट जीवको निर्वाणपद नहीं प्राप्त होता है । चारित्र रहितको तो कभी भी हो सकता हैं, पर दर्शन भ्रष्ट तो कभी भी सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है।
इस प्रकार संक्षिप्तसे दर्शनविशुध्धि भावनाका स्वरूप कहा । अब शेष भावनाओंका स्वरूप कहते हैं। यद्यपि यह दर्शनविशुध्धि भावना इतनी विस्तृत है कि इसके अंतर्गत
और सब भावनायें आ जाती हैं, तथापि भिन्न भिषा करके समझाते हैं । परन्तु यह स्मरण रहे कि इस साधनाके बिना अन्य भावनाएं कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं। वे सब इसीके साथ साथ फलवती होती हैं । इसलिये इसे न भुलाकर ही उन्हें चितवन करना चाहिए । सो ही कहा हैदर्शन शुद्ध न होवत जबलग, तबलग जीव मित्थ्याति कहावे। काल अनन्त फिरे भवमें, अरु दुःखनकी काहिं पार न पावे। दोष पचीस रहित वसुगुणयुत, सम्यग्दर्शन शुद्ध कहावे । ज्ञान कहे तर सोहि बड़ो जो मिथ्यात तमी जिन मारग घ्यावे॥
इति दर्शनविशुब्धि भावना।
भावना ]
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सोतहकारण मर्म । (२) विनयसम्पन्नता । विनय-अर्थात् नम्रतापूर्वक निष्कपट भावसे आदरसत्कार करना । विनय पांच प्रकारकी होती है-दर्शन, ज्ञान चारित्र, तप और उपचार विनय ।
दर्शनविनय-सम्यग्दर्शन निर्दोष धारण करना तथा सम्यगरदृष्टी जीवोंका यथासंभव आदरसत्कार करना ।
ज्ञानविनय-सम्यग्ज्ञानको धारण करना तथा सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंका तथा सम्यग्ज्ञानका विनय ( यथासंभव आदरसत्कार) करना और उन ग्रन्योंका जिनमें सम्यग्ज्ञानका कथन किया गया है. यथायोग्य पूजनादि करना, परन्तु केवल ग्रन्थोंकी पूजन व उन्हें अच्छेर वेष्टनोंमें लपेट कर रख देना तथा नमस्कार इत्यादिको ही ज्ञानविनय न समझ लेना चाहिए । यथार्थ में ज्ञानविनय वही है, जो सम्यग्ज्ञानको धारण करना, पढ़ना, पढ़ाना उपदेश सुनकर सरलता व नम्रतापूर्वक धारण करना, उपदेश देना, सम्यग्ज्ञानका प्रचार करना, ग्रन्थोंका प्रकाश व प्रचार करना इत्यादि । __चारित्रविनय-सम्यक्चारित्र यथाशक्ति रुचिपूर्वक कल्याण कारी जानकर धारण करना, तथा सम्यकचारित्रके धारी पुरुषोंम पूज्यभाव रखना, उनकी विनय सुभूषा सत्कारादि करना ।
तपविनय-पथाशक्ति इन्द्रियोंको वश करके मनको वश करना और सम्यक् तपधारी साधु तपस्वियोंमें पूज्य भाव रखना, उनकी विनय सुश्रूषा वयावृत्त सत्कारादि करना ।
उपचारविनय--अपनेसे गुणाधिक्य पुरूषों में भक्तिभाव
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सोलहकारण मर्म ।
[२३ सना, उनके आगे आगे नहीं चलना, नहीं बोलना, जमको आदर सहित उच्चासन देना, नम्रतापूर्वक मिष्ट वचन बोलना, उनकः आज्ञा मानना इत्यादि । प्राणियोंमें यह गुण होना परमावश्यक है । विनयो पुरुषका कोई भी शत्रु संसारमें नहीं रहता है, विनयो सबका प्रोतिभाजन होता है, विनयीको गुरु आदि शिक्षकम ण प्रेमसे विद्या पहाते हैं, विनयोको कष्ट आनेको शंका नहीं रहती, लोग उनकी सदैव सहायता करने में तत्पर रहते हैं. परन्तु अभिमानीके तो निष्कारण प्रायः सभी शत्रु बन जाते हैं । इसलिये विनयगुण सदैव धारण: करना चाहिए । ___ जैसा कि कहा हैदेव तथा गुरुराय तथा, तप संयम शील व्रतादिक धारी । पापके हारक कामकं सारक, शल्यनिवारक कम निवारी ।। . धर्मकै धीर हरें भवपीर, कषायको चौर संसारके तारा । ज्ञान कहे गुण सोहि लहे, जु विनय गह मनपचकाय सम्हारी ।।
इति विनयसम्पन्नत्व भावना || २॥
(३) शालव्रतेषु अतिचार
शोलतेषु अनतिचार--अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अथवा अपरिग्रहप्रमाण, ये पांच धत और इनको निर्दोष पालनार्थ क्रोधादि कषायोंके रोकनेको शीलवत कहते हैं, और शीलवतोंके. पालन करनेमें मनचकायको निदोष
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सोलहकारण धर्म । प्रवृत्ति सो शोलबतेषु अनतिचार भावना कहीं जाती है। अथवा हिंसा, मुल, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे एकदेश विरक्त होनेपर पांच अणुव्रत +दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदंड त्यायव्रत ये तीन गुणवत+और सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिणाम व्रत और अतिथिसंविभाग व्रत ये चार शिक्षाक्त ऐसे ५ व्रत और ७ शील सब मिलकर १२ व्रत हुए, सो इनको ६० । १२४५) अतिचार रहित पालना, सो मी शीलवतेषु अनतिचार भावना कहाती है । ___ यथार्थमें शील आत्माके स्वभावकों कहते हैं इसलिए मात्माके स्वभावसे भिन्न जो परभाव तिन सबको रोककर स्वभावरूप प्रवृत्तिका होना यही शील है। परन्तु व्यवहारमें मैथुन ( कामसेवन ) आदि क्रियाओसे विरक्त होनेको भी शील कहते हैं।
यह व्यवहार शील दो प्रकारका होता है- एक गृहस्पका, दुसरा साधुका । गृहस्थका शील स्वदार-सन्तोषरूप होता है। और साघुका मन वचन कायसे खीमात्रके संसर्गका त्यागरूप होता है । शोलको ब्रह्मचर्य भी कहते हैं ।
ब्रह्मचर्य ही ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकारके सुखोंका प्रधान साधन है । हमारे देशमें प्राचीन कालसे यहीं पद्धति चली आ रही है, कि बालक बालिकायें जिसने कालतक विद्या अध्ययन करें, वहांतक वे अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करें। इस ब्रह्मचर्य व्रतके चिह्नरूप यज्ञोपवीत (जिसे ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं, ) द्विजातिके पुत्रोंको आठ वर्षकी अवस्था होनेपर पहिना दिया जाता है। और ब्रह्मचर्य के निर्दोष पालनार्थ, इसके विरोधी कामोत्तेजक कारणोंको, जैसे मनमंजन बगाना, बालोंका सम्हारना, इत्र फुलेल आदिका बेप
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सोलाहकारब बर्म । करना, सुंदर सुपर ववाभूषण पहिनना, विलासी नरनारियोंकी संगतिमें रहना, कामकथाओंका कहना सुनना, पुष्ट स्वादिष्ट होजा जा, इस्पादि ते दिया जाता है। उन्हें विद्याध्ययन कालपर्यत गुरुके घर ही रहना पड़ता है जिसे गुरुकुलको प्रया कहते हैं। __ यह प्रथा यद्यपि कालके फेरसे अन्यरूपमें बदल गई है, तो भी किसी अंशमें अभी काशी नालंदा आदि स्थानोंमें बराबर प्रचलित है। जहांतक इस प्रथाका प्रचार यथार्थ रीतिसे रहा वहांतक ही इस देश में अकलंक निकलंक जैसे धुरन्धर विद्वान् होते रहे, और धर्मका डंका बजाते रहे हैं, परन्तु जबसे विद्यार्थियोंने इस प्रथाको छोड़ा और उनके मातापिताने अज्ञानवशर्ती होकर उनका पाणिग्रहण अल्प बयमें कराना आरम्भ कर दिया, तभीसे उनके विद्योपार्जन मार्गमें बड़ा भारी रोड़ा (पत्थर) अटक गया-आड़ा आ गया। आजकलके विद्यार्थी मोड़ोसी महिनतसे घबरा जाते हैं। उन्हें फूल ( ताजा ) और कामिनिया आईल, बर्फ, दूध, बादाम, मिश्री, अर्क, गुलाबकेवड़ा, खशकी टट्टो और पंखेका किवाय, मोजा, गुलू बन्ध, स्वेटर, छाता और जूता इत्यादि सामान तो आवश्यक हो गया है। इसके विना तो वे पढ़ ही नहीं सकते हैं।
जब प्राचीन कालके ब्रह्मचारी विद्यार्थी धूप ठंड आदिको कुछ पर्वाह न कर सिंह शावक (बच्चा ) के समान विचरते थे, जिस कार्यको हाथमें लेते उसे पूरा करके ही छोड़ते थे। इसका कारण उनका ब्रह्मचर्य ही था। आज जो आवश्यकतायें होने लगी हैं, यह सब निर्बलताका कारण है। उनके अल्प वसमें वोर्यका क्षय होना ही कारण है। इससे यह
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सोसहकारण कर्म । तात्पर्य निकलता है कि ज्ञानोपार्जनके लिये बहावय्यं ब्रतको . बहुत बड़ी आवश्यकता है । और ज्ञानसे सब प्रकारका सुख होता है जो आगेको भावनामें कहेंगे।
दूसरी बात यह है कि सदासे यह नियम चला आ रहा है कि " बोर भोग्या वसुघरा" अर्थात् " जिसको लाठी उसको भैंस" तात्पर्य जो बलवान होता है, वही पृथ्यो पर राज्य करता है। निर्बल सदा दबाये जाते हैं। एक ही सिंह अपने बलसे समस्त जंगलके जानवरों पर राज्य करता और निर्भय रहता है । उसका कारण एक ब्रह्मचर्य ही है। वह अपने जीवन में एकवार हो कामसेवन करता है और एक हो वारम अपने ही समान ( बलिष्ट) पुत्र उत्पन्न कर देता
___ जबकि ब्रह्मचर्य के नष्ट होनेसे हमारे बहुतसे भाई अपने जीवन में सन्तानका मुंह देखनेको तरसते तरसते मर जाते हैं, और यदि सन्तान भो प्राप्त करलें तो अधिक समयतक उसे साथ न रख सकें (सन्तानका वियोग अल्प हो वयमें हो जाय)यदि सन्तान जीवित भी रही तो निरंतर वैद्योंको हाजिरी देना पड़े इत्यादि । जबकि सन्तानको निरंतर रोग और
औषधिसेवनसे ही फुर्सत ( अवकाश ) नहीं मिलती तो वे संसारका क्या सुखानुभव कर सकते हैं ? वे तो सदैव विषयके स्वादकी इच्छासे तरसते तरसते यमराजके पाहुने बन आते हैं । न वे अपना भला कर सकते न दूसरोंका ही, केवल आयुके दिन गिनने रहते हैं, उन्हें अपना ही जीवन भाररूप हो जाता है । इतने पर भी बहुतसे अज्ञानी मदोन्मत्त हापीके समान अपनी पत्नी व पतिके सिवाय अन्य की पुरुषोंके साथ अपने वीर्यको नष्ट करते हैं । सो उन्हें शारीरिक हानि तो।
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सोलहकारण पसे । [२७. होती है, परन्तु और भी अनेकानेक आपत्तियोंका साम्हना करना पड़ता है।
लोकनिन्दा, पञ्चदण्ड, राज्यदण्ड भोगना पड़ता है। आतशक, भगन्दर, प्रमेहादि रोगांसे शरीर जरित हो जाता है। अंग भंग कराना पड़ता है और कभी कभी तो कितने ही लोगोंको इस महा अपराधके कारण जीवनसे भी हाथ घो डालना पड़ता है। कामी पुरुष की, माता, बहिन, बेदर भाई, वेटा आदि भी ध्यान नहीं रखते हैं ।
ज्यों ज्यों शरीर जर्जर, निर्बल और तेज होन, घातुक्षीण होता जाता है कामेच्छा त्यों त्यों उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। उन्हें कभी भी तृप्ति नहीं होती। कदाचित् वे स्वयम् कामसेवन न भी कर सके, तो दूसरोंको सेवन कराकर प्रसन्न होते हैं । कामी पुरुष सदा आर्तरूप रहते हैं। उनकी दृष्टि सदा विषले सांपोंके समान निज परको दुखदाई होती है। कामो पुरुष यदि स्वकीम सन्तोष न करके वेश्या तथा परली सेवन करता है तो उसकी की भी प्रायः अपने पतिको कुमागमें आरूढ़ देखकर कामके वशीभूत हो अन्य पुरुषको अपना शोलरूपी भूषण लूटा देती है। हाय ! यह काम कैसा. भयंकर पिशाच है कि इसका प्रस्या हुआ प्राणी फिर नहीं निकल सकता । जितने अनर्थ, अन्याय और दुःख हैं वे सब कामके वश होकर ही किये जाते हैं ।
इस कामरूपी पिशाचसे बचनेक लिये हमें उन महापुरुषोका जीवनचरित्र सा स्मरण रखना चाहिये कि जिन्होंने इसे जड़मूलसे उखाड़ कर फेंक दिया गया है। जैसे भीष्मपितामह ( जिन्हें गुरु गंगेय भी कहते हैं) ने याजीव स्त्रीमात्र का त्यागकर अखंड ब्रह्मचर्य पालनकर इस भूमिकी शोभा बढ़ाई
त ह ।
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सोलहकारण । थी। भगवान नेमिनाथ स्वामी राजुलसो भन्द्रमुखी मृगनयनी सीका त्याग करके गिरनार पर ध्यानस्थ हुए थे। भगवान महावारने बाल्यावस्थामें हो इसे जीतकर संसारको कल्याणमागे दिखाया था । स्वामी पार्श्वनाथने मो इसे बाल्यावस्थाम ही निर्बल करके मोक्षमार्ग ग्रहण किया था। नारीभूषण ब्राझी और सुन्दरी कुमारियोने तथा अनन्तमती, सेठकी कन्यानं कुमारी अवस्था हो व्रत लिया था। इसके सिवाय और भी महावली जितने नरनारी पृथ्वी पर हुए हैं यह सब ब्रह्मचर्यका ही प्रताप था।
ब्रह्मचर्यके बिना जैसे ज्ञानप्राप्ति नहीं होती, ऐहिक सुख भी वंसे हो नहीं मिल सकता, और उसी प्रकार व्रत, संयम, नियम. धर्म दान, पूजा, स्वाध्याय, ज्यान इत्यादि कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य विना निर्बलता होती है, निर्बलतासे अनुस्साहता बढ़ती है, अरुचि होती जाती है, अस्थिरता बनी रहती है, कायरता, घेरे रहती है । इसलिये चित्त कमी एकान नहीं होता है।
भगवान उमास्वामीने कहा हैउसमसंहननस्यकाग्रचिंसानिरोघो ध्यानम् अन्तर्मुहर्तात् ।
(सत्वार्थसूत्र ३० ९ सू० २७) अर्थ--उत्सम अर्थात् वनवृषभनाराच संहननवाले पुरुषोंक भी एकाग्रचिताको रोकनेरूप ध्यान अन्तर्मुहूर्त । ४८ मिनट तक ) ही स्थिर रहता है । __सो मला जब ऐसे महाबली ही अपने ध्यानको ४८ मिनट तक स्थिर रख सकते हैं, तो वे ब्रह्मचर्य भ्रष्ट निबल पुरुष
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सोसहकारण धर्म । किस प्रकार ध्यान स्थिर रख सकते हैं, और जब ध्यान संयम तप ही नहीं कर सकते तो इनके विना मोक्ष कहाँ ? क्या इन निर्बलोंकी यह सामर्थ्य हो सकती है कि ये आये हुए उपसर्ग व परीषहोंको सहन कर सकें? नहीं, कभी नहीं। दे ब्रह्मचर्य पालनेवाले घोर और पांडव ही थे, जो दुष्ट कौरवोंके सम्बन्धी भाइयों द्वारा लोहनिर्मित अग्निमयी आभूषण पहिराये जानेपर भी ध्यानसे नहीं डिगे ।
के बाल सफारी पाश हो, यो आठ दिन तक बराबर कमठके जीव द्वारा होते हुए वर्षी आदिका घोर उपस गं सहते रहे । वे ब्रह्मचर्य की महिमा जाननेवाले सुकुमाल जी ही थे, कि जिनके शरीरको तीन दिन तक स्यालिनीने अपने बच्चों सहित भक्षण किया पर वे ध्यानसे न डिगे। वे महाराज बाहुबलि थे जो एकासन खड़े हुवे तप करते रहे कि जिनके शरीरपर वेलें चढ़ गई, सांप लिपट गये, चिकाटयोंने घर बना लिये तो भी सुमेरुवत् निश्चल खड़े रहे ।
वे भगवान ऋषभनाथ ही थे, जो प्रथम ही छः मासके उपवास धारणकर ध्यानमे लीन हो गये और छ: महिने तक भाजनांतराय होते रहनेपर भी व्रतमें आरूत बने रहे. जबकि साथमें दीक्षा लेनेवाले अन्य ४००० राजाओंने झुघाओने तृषासे पीड़ित होकर तप भग कर दिया. और ३६३ पाखंड मत चला दिये, इत्यादि अनेकों दृष्टांत पुराण ग्रन्यों और इतिहास में भरे पड़े हैं जो बह चर्य की महिमा गा रहें हैं, इसलिये ब्रह्मचर्य व्रतको उभय लोक हितकारी जानकर पालन करना चाहिये ।
भंड वचन बोलना, रसकथा करना, सीटने । खराब गालियां ) बकना, खोटे गीत गाना, की पुरुषोंके रूपका अवलोकन करना, उनसे एकान्तमें वार्तालाप करना, सियोंसे
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सोलहकारण धर्म |
वैयावृत कराना, भूत या भावी विषयभोगोंका विचार करना, दूसरोंका विवाहसम्बन्ध मिलाना, स्वपति व पत्नीमें भी अत्याशक्त रहना, कामाङ्गीको छोड़कर अन्य अंगों द्वारा कामचेष्टा करना, राकेश कृषि त पदार्थोंसे निर्मित नरनारियों व उनके अंगोंकी कल्पनाकर उनके साथ या पुरुष पुरुष या खी खीके साथ कामक्रीड़ा करना अथवा अपने ही हस्तादि अंगों द्वारा वीर्यपात करना सो सर्व हो व्यभिचारसेवन करना है, ब्रह्मचर्य व्रतको दूषित करना है, तथा अपने आपको अपने अनुयायियों सहित चार दुःखसागरनर्क में ढकेलना है। इसलिये निर्दोष ब्रह्मचयं पालना चाहिये । [ब्रह्मवयं विना समस्त जप, संयम, ध्यान ढोंग मात्र है, विना अंककी बिंदियोंवत् व्यर्थ है ।
निर्दोष ब्रह्मचर्यको पालनेसे हो समस्त व्रत निर्दोष पचते हैं सो ही कहा है
शील सदा सुखकारक है, अतिचार विजित निर्मल कीजे । दानव देव करें तिस सेव करें न विवाद पिशाचतीजे ॥ शील बड़ो जगमें हथयार, सुशीलकी उपमा कौनकी दोजे । "ज्ञान' कहे नहिं शीलसमो व्रत, तार्ते सदा दृढ़शील घरीजे ॥ ३॥
इति शीलव्रतेष्वनतिचार भावना ।
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सोलहकारण धर्म ।
(४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
अभोक्ष्ण ज्ञानोपयोग अर्थात् निरन्तर तत्त्वोंका अभ्यास करना । जाननेका नाम ज्ञान है, और जाननेमें चितको लगाना सो उपयोग है, इसलिये निरन्तर जो जानने योग्य पदार्थों को जानते रहना सो अभोक्ष्ण ज्ञानोपयोग है ।
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ज्ञानमें उपयोग रखनेसे दिनोंदिन अभ्यास और अनुभव बढ़ता जाता है । अनुभवी पुरुष कभी धोखा नहीं खाता है, उससे भूल होना संभव नहीं है, और भूल न होनेसे दुःख नहीं होता है। ज्ञानी वस्तुस्वरूपके विचारमें मग्न रहते हैं इसलिये ज्ञानोको दुःख नहीं होता । असल बात यह है कि ज्ञानमें सदा उपयोग रहने से मन अन्यत्र नहीं डोलता है, विषयोंकी ओर नहीं जाने पाता है, तब विषयोंको चाहरूप वाह भी उत्पन्न नहीं होने पाती है । यत्रतत्र उपयोग न जाने से और तो क्या अपने शरीरमें होती हुई बेदना तक भी नहीं मालूम होती है, इस प्रकार ज्ञानी सदा सुखी रहता है। ज्यों ज्यों ज्ञान बढ़ता है त्यों त्यों आत्माकी शक्ति प्रफुल्लित होतो जाती है, आत्मामें एक अपूर्व ही आनन्दका विकाश होने लगता है, संसारके क्षणिक विषयस्वादरूप सुख तुच्छ भासने लगते हैं, क्रोधादि कषायें धीरे धीरे छोड़कर भागने लग जाती हैं, सहनशीलता, घयंवादि गुण बढ़ते जाते हैं, घबराहट नहीं रहती है । यथार्थ में ज्ञानीके सुखका अनुमान ज्ञानी हो कर सकता है। अज्ञानी विचारा क्या जाने ?
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सोलहकारच वर्ष ।
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दशा तो ऐसी है जैये---
भैसके आगे बीना बाजे, मैंस रही रोपांय | बैलहिं दोनों षटरस भोजन सो क्या स्वाद लखाय ॥
किसी कविने ठीक कहा है
पूछे कैंसा ब्रह्म हैं, कती मिश्री मिष्ट । स्वादे सो जाने सही, उपमा मिले न ईष्ट ||
यथार्थमें जैसे प्रसूताकी पीड़ाका अनुभव वंध्या नहीं कर सकती है, उसी प्रकार अज्ञानी सच्चे ज्ञानानंदका अनुभव नहीं कर सकते हैं । और व्यवहारमें भी ज्ञानी पुरुष ही सुखी देखे जाते हैं, क्योंकि अज्ञानी तमाम दिन कठिन परिश्रम करने पर भी उदरभर भोजन प्राप्त नहीं कर सकता, जब कि ज्ञानी पुरुष थोडे परिश्रमसे मनवांछित द्रव्य और भोग सामग्रियां प्राप्त कर लेते हैं। देखो, राजकीय बड़े बड़े न्यायाधीशों आदिके पदों पर विद्वान पुरुष ही शोभा पा रहे हैं। सेठों साहूकारोंके यहां उनकी सम्पूर्ण संपत्तिके अधिकारी एक प्रकार से विद्वान ( उनके मुनीम गुमास्ते ही हो रहे हैं। जहां तहां जितने बड़े बड़े पदाधिकारी मिलेंगे वे सब विद्वान ही होंगे ।
चाहे वह (ज्ञानी ) अन्धा हो, लुला लंगड़ा हो, काना हो, गूगा हो, कुरूप हो, होनांग व अधिक अंगवाला हो, परन्तु उसके पास जो गुप्त रत्न ( ज्ञान ) है उसीके कारण उसका संसार में आदर होता है ।
और घन तो दायादार बंटा सकते हैं. राजा लूटा सकते हैं, चोर चुरा सकते हैं, अग्नि भस्म कर सकती है, परन्तु वह एक ज्ञान घन ही ऐसा है, जो इन सब भाइयोंसे निर्भय है
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सोलहकारण धर्म ।
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वह इस भव नाश होना तो दूर रहा, परन्तु परभव तक साथ जाता है ।
एक विचित्रता इसमें यह है कि यह देनेसे बढ़ता है और न देनेसे घटने की संभावना रहती है ।
राजाका मान उसके जीतेजी उसीके राज्यक्षेत्र में होता है, परन्तु -
ज्ञानीका सम्मान सर्वत्र और सदा होता रहता हैं ।
भाज न तो चौबीसों ( ऋषभनाथसे लेकर महावीरस्वामी तक ) तीर्थंकर विद्यमान हैं, न बाहुबलि भरत आदि केवली, न कुन्दकुन्दाचार्यं, न समंतभद्राचार्य न अकलंकाचार्य, न जिनसेना 'वार्य न अमृतचंद्र कवि, न द्यानतराय कवि, न दौलतराम कवि, न बनारसीदासजी, न भैया भगवतीदास, न वृन्दावन, न भागचंद, न टोडरमलजी, न पंडित आशावरजी, न सदासुखदासनी, न जयचन्दजी इत्यादि ।
परन्तु अहा ! आज भी उनकी वाणी और उनके कृत्योंके कारण वे अमर हो रहें हैं । उनके ज्ञान ही की यह महिमा है कि हम लोग उनको वाणी, उनके अनुभव और उनके हितोपदेशों से आनंद - लाभ कर रहे हैं । हम आज भी उनके इस वसुन्धरापर विद्यमान न होते हुवे परोक्ष रीतिसे उनका सत्कार करते हैं, पूजा करते हैं. उनके स्मारकरूप तदाकार प्रतिबिम्ब (मूर्ति) बनाकर रखते हैं, उस मूर्तिके सन्मुख उनका गुण स्तवन करते हैं । क्या कोई भी जैना किसी मूर्तिकी पूजा करता है ? क्या जैनी मूर्तिपूजक है ? नहीं कभी नही । वे किसी अचेतन मूर्तिकी पूजा कभी नहीं करते हैं,
३
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: सोलहकारण धर्म । किन्तु मूर्तिको उन परमात्मा तीर्थकर देवोंका स्मारक समझकर ही उस मूर्तिके सम्मुख होकर उनके गुणकीर्तन, स्तवन, पूजन करते हैं।
जैनी मूर्तिको परमात्मा नहीं मानते हैं, किन्तु उसे केवल मात्र स्मारक ही समझते हैं. अर्थात् उनकी यह वैराग्यमई शांतमूति उन :महात्माओंके चरित्रोंका स्मरण करानेवाली शांति और वैराग्य उत्पन्न कराने के लिये प्रधान निमित्त कारण है। चाहे वह पत्थर धातु, काष्ठादिकी बनायी जाय और चाहे चित्रपटमें बनायी जाय, परन्तु उस मुर्ति व पटम जिसकी कल्पना है उसका स्मरण मूर्ति व पद देखते ही अवश्य हो जाता है। स्मरण होते ही अनुकरण करने की इच्छा होती है, और अनुकरण करनेसे तत्सदृश हो सकते हैं। इसो अभिप्रायसे मूर्तिकी स्थापना की गई है।
तात्पर्य-ज्ञानका ऐसा ही माहात्म्य है कि ज्ञानियोंको स्मरण रखनेके लिये उनकी मूर्ति तक बनाकर पूजी जाती है । और तो क्या, जिस स्थानमें वे ज्ञानी कभी एकवार भी पधारे होवें, वह स्थान भी पूजने लगता है। अहा ! ज्ञान कसा उत्तम पदार्थ हैं, कि जिसके स्मरण मात्रसे आनंद मा जाता है । इसलिये यदि लौकिक या पारलौकिक अथवा दोनों प्रकारके सुखोंकी इच्छा है, तो निरन्तर सम्यग्ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये । कहा भी हैशान सदा जिनराजको भाषित, आलस छोड़ पड़े जु पढ़ा। दो दशदोष अनेक हि भेद, सुझान मतिं श्रुत पंचम पावे ॥ चौ अनुयोग निरंतर भापत, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे । वान कहे नित ज्ञान अभ्यासते, लोकालोक प्रत्यक्ष दिखावे ॥
इति अभीक्षण-ज्ञानोपयोग भावना ॥ ४ ॥
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सोलहकारण धर्म |
(५) संवेग भावना |
संवेग — अर्थात् संसारके विषयोंसे भयभीत होना और धर्म, धर्मात्मा तथा धर्म के फलमें अनुराग करना सो ही संवेग - भावना है । संसारके विषयभोग सब इन्द्रियोंके आधीन हैं, और इन्द्रियां शरीरके आश्रित हैं । शरोर रोग जस और मृत्युकर सहित है, अतएव इन्द्रिय विषयभोग भी विनाशवान हैं। विनाशिक वस्तुमें प्रीति करनेसे वियोगके समय अवश्य ही दुःख होता है ।
यदि यह मान लिया जाय कि जबतक शरीरका साथ है, Tea हो इसमें प्रीति करना चाहिए, तो उत्तर 'यह है कि इसका यह भी भरोसा नहीं कि अमुक समय तक स्थिर रहेगा, न जाने श्वास जो बाहर निकलता है, वह फिर पीछे आता है या नहीं। फिर इस शरीरका साथ पाकर अच्छे अच्छे सुगंधित पदार्थ भी दुर्गंधित हो जाते हैं, इसको सम्हालते सम्हालते भो यह दिनोदिन क्षीण होता चला जाता है, सच्चे आत्मोपकारीको सुअवसर पर घोखा दे जाता है, व्रत संयम तपादिक परिवह सहन करनेमें कायरता धारण कराता है । जो लोग निरंतर शरीरका ही दासत्व करते रहते हैं उनका भी शरीर रोगों से परिपूर्ण होता हुआ देखा जाता है । हाय ! जिस शरीरकी इतनी सेवा की जाती है, वह आयुके अन्त होते ही यहीं पड़ा रह जाता है, और पलभर के लिये पदभर भी साथ नहीं जाता । हाय ! यह कैसा कृतज्ञ है ?
सो जब शरीरकी ही यह दशा है, तब शरीर से संबंध रखनेवाले पुत्र, कलत्र, मित्र आदिकी कथाका तो कहना ही
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३६ ]
सोलहकारेण कर्म ।
क्या है ? वे तो निरे स्वार्थी ही हैं । जबतक उनसे मिष्ट भाषण करते रहोगे, उनके द्वारा होते अनर्थो में अन्यायोंपर दृष्टिपात न करोगे, उनकी इच्छा पुकार कर देवेंने यहांतक वे भी तुम्हारी स्तुति करेंगे, तुम्हें पिता, दादा, भाई, मित्र स्वामी, बेटा आदि अनेक नाते लगाकर संबोधन करते रहेंगे, तुम्हारे दुःख दर्द में यहांतक प्रीति दिखाएंगे कि यदि तुम्हारे लिये उनका शरीर भी लग जाय तो लगाने को तैयार है, परन्तु यह सब दिखावा मात्र है, अवसर मानेपर सब दूर भाग जांयेंगे और एक दूसरेका मुंह देखने लगेंगे, कोई भी साथ देनेवाला दृष्टिगोचर न होगा ।
जैसे मिठास देखकर मक्खियां भन भन करके घेर लेती हैं. उसी प्रकार ये लोग भी पच इन्द्रिय मनुष्याकारकी बड़ी बड़ी मक्खियां हैं। ये अर्थ ( द्रव्य और काम ( विषय ) के नोलुपी जहांतक स्वार्थ देखते हैं, लिपटे रहते हैं, परन्तु ज्यों ही द्रव्यरूपी रक्त मांस सुखा, त्यों ही मुर्दोंके समान छोड़ देते हैं । इसलिये ऐसे स्वार्थीजनोंसे प्रेम कर उनके लिए अपने आत्माका बिगाड़ करना उचित नहीं है । इस प्रकार संसार देह भोगोंके स्वरूपका विचार कर उनसे सदा भयभीत रहना, उनमें मग्न न होना, यथाशक्ति उनसे दूर रहकर धर्मका सेवन करना, यही सवेग भावना है।
धर्म' वस्तुके स्वभावको कहते हैं । उत्तमक्षमादि दश प्रकारु भी धर्म कहा है । रत्नत्रयवो भी धर्म कहते हैं और अहिंसा पालन करना भी धर्म है । यद्यपि यहां चार प्रकार धर्म कहा है परन्तु यथार्थ में इन चारोंमें कुछ भी अंतर नहीं भिनता
१ देखो दशलक्षणधर्म पुस्तक ।
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[ ३७.
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नहीं है, सब एक ही हैं । इसलिये इनका सेवन करना धर्म और वर्मात्माओं में प्रीति रखना । धर्म में प्रीति उसीकी हो सकती है जो विषयों व कषायों में भासक्त न हो । विषयी पुरुष धर्मात्मा संवेगी वैरागी पुरुषोंकी हंसी उड़ाते हैं, उनको वर्मसेवन करनेमें विघ्न करते है, उपसर्ग करते हैं जिसतिस प्रकार धर्मसे च्युत करनेका प्रयत्न करते हैं, परन्तु जो निरन्तर संवेग भावनाका चितवन करते हैं, वे विघ्नोको, उपसर्गीको, - सहन करते हैं, उपहाससे भयभीत नहीं होते हैं । ज्यों ज्यों लोग उन्हें धर्म च्युत करना चाहते हैं, त्यों त्यों वे ओर भी में दृढ़ होते जाते हैं ।
सोलहकारण भ्रमं ।
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फल इसका यह होता है, कि निंदक लोग पापकर्म. बांधकर दुर्गतिको जाते हैं। पुरुष धर्मध्यानके मोगसे स्वर्गादिक सुखोंका अनुभव कर फिर मनुष्य हो अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस भावनाका चितवन निरंतर करना योग्य है । जैसा कि कहा है
मातन तातन पुत्रकलत्रन, संपति सज्जन ए सब खांदो । मंदिर सुंदर काय सखा सब, को, ये को हम अन्तर मोटी ॥ भाव कुभाव घरी मन भेदत, नाहि संवेग पदारथ छोटो । ज्ञान कहे शिवसाधनको, जैसे शाहको काम करे जु वनटी ॥ ५॥३ इति संवेग भावना |
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सोलहका रण धर्म ।
(६) शक्तिवस्त्याग भावना ।
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शक्तितस्त्याग --- अर्थात् शक्ति अनुसार त्याग ( दान )
करना ।
दान चार प्रकारका होता है- आहारदान, औषधिदान, शास्त्र: दान और अभयदान। ये चारों दान निश्चय और व्यवहार रूप से दो प्रकार हैं
निश्चय आहारदान - अपने व परके आत्मामें उस अव्यावाघ गुणको ( वेदनी कर्मको नाश कर ) प्रगट कर देना, कि जिससे क्षुधा ही न लगेगी तो क्ष धाके उपशमार्थ जो आहार किया जाता है, उसके भक्षणकी भी आवश्यकता न रहेगी, यही निश्चय बाहारदान है ।
व्यवहार आहारदान - अपनी व परकी क्ष वाके उपशमार्थ शुद्ध प्रासु खाद्य सामग्रियोंका भक्षण करना व कराना । निश्चय औषधिदान - अपने व परके आत्माको जन्म, जरा, मृत्यु इन त्रिरोगोंसे छुड़ाकर अविनाशी अखण्ड सुखोंको प्राप्त करा देना, सो निश्चय औषनिदान है ।
व्यवहार औषधिदान -- शुद्ध प्रासुक औषधियोंके द्वारा अपने च परके शरीर में उत्पन्न हुवे, बात पित्त व कफादिकके प्रकोपनसे जो रोगादिक उत्पन्न होवे उनको दूर करना सो व्यवहार औषधिदान है ।
निश्चय शास्त्रदान- अपने व परके आत्मा में सम्यक् ज्ञानशक्तिका विकाश कर देना ।
व्यवहार शास्त्रदान - पढ़ना व पढ़ाना, उपदेश करना क कराना, पुस्तकें तथा शास्त्र प्रकाशित कर जिज्ञासु जनों में
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सोलहकारण धमं 1
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बितरण करना, सरस्वती भण्डार तथा वाचनालय स्थापित करना, विद्यालय बनवाना, उत्तीर्ण छात्रोंको पारितोषिक देकर उनके उत्साहको बढ़ाना, जनसाधारणमें विद्याका प्रचार करना ग्रन्थोंका सर्वसाधारणमें प्रचारार्थं अनेक भाषाओं में भाषान्तर ( उल्था ) करना, प्राचीन शास्त्रोंकी खोज करना. जोर्ण ग्रन्थोंका फिरसे लिखवाना, ग्रन्थोंको इतने सरल और इस ढंगसे लिखें कि जिससे हरकोई समझ सके । सदा ऐसे भाव रखना कि कोई भी प्राणी सम्यग्ज्ञानसे वंचित न रह जावे इत्यादि, सो व्यवहार शास्त्रदान है ।
निश्चय अभयदान - अपने व परके आत्माओंको विषय कषाय ( मोह रूप प्रबल वैरीसे बचाना अर्थात् किसी प्रकार किंचिन्मात्र भी संक्लेशता न होने देना' ।
व्यवहार अभयदान - अपने व परके प्राणोंकी रक्षा करना, मरनेको यथाशक्ति प्रयत्न करके बचाना, उनका भय दूर करना सो व्यवहार अभयदान है ।
1
दान - यथार्थ में वही कहा जाता है जो स्वपरोपकारार्थं दिया जाता है, जैसा कि तत्वार्थसूत्र में कहा है “अनुग्रहार्थस्वस्थातिसर्वो दानम् । " और जिस दानसे विषयकषायोंकी अपने व परके परिणामोंमें तीव्रता होवे, वह दान दाम नहीं कहा जा सकता है, वह कुदान है ।
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ب
उक्त चारों व्यवहारदान निम्नलिखित चार प्रकारसे दिया जा सकता है - भक्तिदान, करुणादान, समदान, कीर्तिदान |
अपने से गुणाधिक्य महापुरुषोंकों दान करना सो भक्तिदान है। यह दान सुपुत्रों (मुनि, अर्जिका, श्रावक और भाविका इन चार प्रकार संघों ) को हो भक्तिभावसे दिया जाता है । दुःखित, भुखित, दीन, अनाथ, असहाय, निर्बल जीवोंको
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सोलाकारण वर्मः। उनके दुःख दूर करनेके विचारसे जो दान दिया जाता है सो करूणादान है । इसमें सुपात्र कुपात्र विचारकी मुख्यता नहीं है, किन्तु करूणा ( दया । भावको हो मुख्यता रहती है। ___ अपने ही समान पुरुषों सम्बंधियों जैसे माता, पिता, भाई, बहिन, फुवा, भानजी, बेटो, बेटा, जंवाई, बहनोइ, साला, श्वसुर, समधि, समधन, विदाई विवाहन आदिको जो द्रव्य भेट स्वरूप देना ( दान करना ।, सहायता पहुंचाना, भोजनादि करना, जीमनवार करना, जातिमोजन करना दगादि, सः सब समदान या व्यवहारदान है। इसमें भी पात्रापात्रके विचारकी मुख्यता नहीं है, केवल अपने व्यवहारकी मुख्यता है । क्योंकि इसमें प्रायः बदला भी होता है। यह दान लिया भी जाता है और दिया भी जाता है।
कोतिदान-जो अपने व्यवहारानुसार केवल मान बड़ाई पानेके विचारसे दिया जाता है। इसमें भी पायापात्रके विचारकी मुख्यता नहीं है, केवल कीति ( यश } प्राप्त करने व मान बड़ाई पानेकी ही मुख्यता है । "इन चारो प्रकारोंमें सबसे उत्तम भक्तिदान है, क्योंकि वह सुपात्रों ही को ज्ञानपारित्रकी वृद्धिके अर्थ दिया जाता है ।
उसके बाद करुणादान भी उत्तम माना गया है। यद्यपि इसमें पात्रापात्रके विचारको मुख्यता नहीं होती, तो भी फरुणाभावोंसे जो निःस्वार्थ परोपकार किया जाता है, इसीसे सराहनीय है परोपकार करना भी गृहस्थोंका एक मुख्य कर्तव्य कहा है-- परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः, परोपकाराय दुहन्ति गावः । परोपकाराय वहन्ति नद्याः, परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥
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सोलहकारण धर्म। अर्थ-परोपकारके लिये वृक्ष फलते हैं, गाय दूध देती है, -मदी बहती है, तब यह शरोर भो परोपकारके लिये है। और कहा है--
तरुवर कबहु न फल भख, नदी न पीये नीर । पर उपकार ही कारणे, धन जिन घरो शरीर ।। समदान-मध्यम है क्योंकि यहांपर परम्पराके व्यवहार चलानेहोकी मुख्यता है और यह गृहस्थोंको कभी कभी लाचार होकर, पासमें द्रव्य न होते हुवे भी उधार लेकर करना पड़ता है, यह यथार्थमें दान नहीं है अदलेका बदला, गलाना भूण है, जो देना लेना पड़ता है। इसको इस समय विशेष आवश्यकता बढ़ाने को नहीं हैं।
कोतिदान---यह निकृष्ट वा कुदान है। इसको बिल्कुल हो आवश्यकता नहीं है । क्योकि इससे दाता और पात्र दोनोंके विषयकषायों तीव्रता होतो है। इस दानने ही इस देशमें भिखारियोंको संख्या बढ़ा दी है, या यों कहो कि देशको भिखारो बना दिया है, इसी दानके लोलुपी बडे बडे लष्टमुष्ट संडे मुस्तन्डे पबहते लोग परिश्रमसे परांग्मुख होकर झदसे अनेक प्रकारके दोग बना कर मांगने लग जाते हैं ।
वे कहते हैं" जो विना परिश्रमसे आय, दो काम करे बलाय !"
हाय ! ए निलं कायर पुरुष कैसे ढोंग रचते हैं ? कोई चमोठा लेकर भस्म लगाये घूमते हैं, कोई जटा बढ़ाये फिरते हैं, कोई२ कफनो रंगे, कोई नख बढ़ाये, कोई नो रमाये रहते है, कोई उल्टे चटक जाते हैं, कोई अमीनमें सिर गाड़कर
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सोलहकारण धर्म । रहते हैं, कोई पानीमें डुबकी लगाते हैं, कोई आसन लगाते हैं, कोई दुवा देते फिरते हैं, कोई गालियां ही बकते फिरते हैं, कोई अकेले रहते हैं, कोई जमात इकट्ठी करते हैं, कोई सिर फोड़ते फिरते हैं; कोई पागल बन जाते है, कोई भविष्य बनाने फिरते हैं, कोई तेल पीते हैं. कोई कृस्ती लड़ते हैं, कोई कीर्तन सुनाते फिरते हैं, कोई नाचते गाते डोलते हैं, कोई घरोघा कथा सुनानेका ढोंग रचते हैं, कोई मंत्र यंत्र झाड़फूकका घटाटोप लगाते हैं, इत्यादि नानाप्रकारसे दूसरोंको कमाई पर हाथ फेरते हैं ।
जो इन्हें कुछ देता है, उसकी झूठी स्तुति प्रशंसा करने लगते हैं, और यदि कुछ न मिला तो सुभ मक्खीचूस आदि कहकर गालियां देने लगते हैं, फल इसका यह होता है कि गेहु ओंके साथ घुण भी पिस जाता है । अर्थात् दानकी प्रथा भी उठती जाती है, और इन धूतोंके कारण विचारे सच्चे साधु पुरुष और दीन दुःखी अपाहिज भी दानसे वंचित रह जाते हैं । इसलिये धर्मदृष्टिसे तो भक्तिदान और करुणादान ही करना चाहिये । परन्तु व्यवहार साधनार्थ समदान करना आवश्यक पड़ता है, और कीर्तिदान तो देना ही व्यर्थ है, क्योंकि यह अपने व परको हानिकारक है ।।
गृहस्थ मात्र दान देनेके अधिकारी दाता हो सकते हैं।
अब पात्र अर्थात् दान लेनेवालोंका विचार करते हैं । पात्र तीन प्रकारके होते हैं-सुपात्र, कुपात्र, अपात्र और प्रत्येक उत्तम, मध्यम और जघन्यके हिसाबसे तीन तीन प्रकारके होते हैं, इस प्रकार कुल ९ भेद हुए, इनमें भी सुपात्रोके उत्तम मध्यम और जघन्यके भी उत्तम मध्यम और जघन्य इस प्रकार तीन तीन भेद होनेसे कुल १५ भेद होते हैं जो कि नीचेके नकोसे विदित होंगे
को हरी चार
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पान - -- कुपात्र
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सुपात्र
अपान
उत्तम
मध्यम
जघन्य
उत्तम
मध्यम
जघन्य
उत्तम
मध्यम जघन्य (कुलिंगी मन्त्रादिका. (हठकर, सिर चिर | साधु घटाटोप कर श्रापादिका
रचनेवाले भय बताकर गृहस्य) बलात्कार पैसा
मांगनेवाले
(तीर्थंकर) (गणधर)
(साधु) ।
सोलकारण पमं ।
Hiम
उत्तम
जघन्य (मध्यमवावक) (मध्यमश्रावक) (जधन्यधावक)
उत्तम
मध्यम जघन्य - .-. .-..
(जिनलिंग- (जिलिंगधारी (सम्यग्दर्शन
धारी द्रव्य द्रलिंगो रहित सम्यग्हउत्तम मध्यम
जघन्य लिंगी मुनि) श्रावक) ष्टिवत वाह. (सायिकसम्यादृष्टि)(क्षयोपशमिक सम्यग्दृष्टि)(उपशमसम्यादृष्टि)
आचरणवाले गृहस्थ)
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सोमहकारण धर्म। वर्तमान कालमें सुपात्रोंका प्राप्त होना तो दुर्ल मसा ही है, मोर सुपात्र कुपात्रको परोक्षा करनेवाले व जानकाय मो अल्प हैं। इसलिए बाह्य भेष (लिंग) हो को प्रधानता प्रायः देखो जाती है। सो बाह्य भेषधारी यथार्थ प्रवृत्ति करनेवाले भी कदाचिन हो देखे जाते हैं. तब क्या दानको प्रथा हों उठा देना चाहिये ? क्योंकि अपात्रको दान देनेको अप्रक्षा तो द्रव्यको जंगल में फक देना अच्छा है, उससे अनर्थ तो न बढ़ेगा, केवल द्रव्य हो का व्यय है । और सुपात्र मिलना दुर्लभ है। ___तो उत्तर यह है कि दान ( त्याग) से अपना मोहभाष कम हाता है । इससे उदारता बढ़ती है, स्वार कल्याण होता है. इसलिये दानको प्रया चलाना तो आवश्यक है । अब रहा पात्रापारका विचार, सो उपरके नकशेसे मिलान करके देखना। यदि सुमात्र मिल जावें ता धन्यभाग समझकर भक्तिपूर्वक दान देना । इस सुपात्रदान का फल ऐसा है, जैसे --वटका बाज अति अल्प होनेपर भी बहुत बड़ा वृक्ष उत्पन्न करता और बहुत फलता है । इसोप्रकार सुपात्रोंको दिया .हुवा दान स्वर्गादि सुख तथा अनुक्रमसे मोक्षका दाता होता है। कुपात्रांको दिया हुवा दान, कुभोगभूमि आदिको प्राप्त कराता है. अथवा तिर्यचति में किसो राजादिके घोड़ा हाथो आदिको पर्यायको प्राप्त कराता है । राजाके घोड़ी हाथियों आदिको मनुष्यांसे भी अधिक सुख ता होता है, परन्तु मनुध्यांके जैसो स्वतंत्रता नहीं होती है। ___ अपात्रदानका फल नर्क निगोद है। इसलिये यह तो सर्वया त्याज्य है । इसलिये वर्तमान कालमें नग्न मुनिलिंगवारी २८ मूलगुणांसहित मुनि न मिले तो ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारो स्वागो, उदासीनश्रुत्तित्राले बिरक्त श्रावक तो मिलते हैं। परन्तु
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सोलहकारण धर्मं ।
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थोड़े हैं, सो उनके भी न मिलने पर सबसे उत्तम वान विद्यार्थियों को हो सकता है, अर्थात् वे अबतक विद्या अध्ययन करते हैं, वहांतक उनके समान सत्पात्र तो कदाचिस ही कोई मिले ।
बस उन विद्यार्थियों ) के विद्योपार्जनके भाग जो जो अड़चने होवें उनको यथासंभव दूरकर मार्ग निष्कंटक कर दिया जाय, और भेदभाव रहित सर्वसाधारणको सहियाका दान दिया जाय। जो विद्यार्थी भोजन चाहें उन्हें भोजन, किसीको पुस्तकें, फीस, रहनेको स्थान इत्यादिका मुभीता कर दिया
जाय ।
बस, इस समय ये हो सत्पात्र हैं। इनके लिए विद्यालय ( कालेज ) पाठशाला ( स्कूल्स ), छात्राश्रम, गुरुकुल इत्यादि खोल दिए जाय, उनमें मुख्यगोणका भेद लिए हुए व्यवहारिक और धार्मिक शिक्षणका उचित प्रबन्ध कर दिया जाय, योग्य निरीक्षक परीक्षक नियत किये जांय छात्रवृत्ति और पारितोषिक आदिका प्रबन्ध किया जाय, बस यही सत्पात्रदान हो सकता है ।
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यद्यपि उपर औषधि शास्त्र, अभय और आहार चारों ही प्रकारका दान कहा है, परन्तु उक्त चारों दानोंमें वस्त्र, वस्तिकादि पात्र योग्य पदार्थ भी गर्भित है, जैसे साधुओंको पीछी कमंडलु शास्त्रादि श्रावकोंको पात्र वर्तन ), वस्त्र, वस्तिका, पुस्तकादि भी गर्भित है, । धर्मशाला बनवा देना, दानशाला, औषधालय खुलवाना, भूलोंको मार्ग बतानेका प्रबन्ध कर देना यह सब ही उत्तमवान है ।
दान देना गृहस्थोंका कर्तव्य है और पात्रोंका कर्तव्य है कि दानका सदुपयोग करना ।
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सोलइकारण धर्म । दान न देनेसे भी लक्ष्मी स्थिर नहीं रहेगी, न वह साथ ही जावेगो, तब क्यों उसे (लक्ष्मीको जो संचय करने में कष्ट "और रक्षा करने में कष्ट दे, जोडकर मिट्टी पसनको ताट गों ही निरुपयोगी बनाई जाय ? इसलिये यही कर्तव्य है कि कष्ट व परिश्रमसे उपार्जन को हुई लक्ष्मीको दानमें लगाकर सदुपयोग किया जाय । ऐसा कहा भी हैपात्र चतुर्विधि देख अनुपम, दान चतुर्विधि भारसे दीजे । शक्ति समान अभ्यागतकी, निज आदरसे प्रमिपत्त करीजे ॥ देवत जो नर दान सुपात्रहि, तास अनेकहि कारज सिझे । ज्ञान कहे शुभ दान करे तो, भोग सुभूमि महा सुख लोजे ।
इति शक्तितस्त्याग भावना ॥ ९ ॥
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(७) शक्तितस्तप भावना।
तप-सम्यक् प्रकार इच्छाओंका निरोध करना सो तप है। यह तप बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है और फिर दोनोंके छः भेद हैं, इस प्रकार बारह प्रकार तप हुए ।
अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश ये ६ बाह्य तप हैं ।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ब्युत्सर्ग और ध्यान ये ६ अन्तरंग तप हैं।
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सोसहकारण धर्म । अनशन-अर्थात् लौकिक सत्कार ख्यातिलाभ पूजादिकी 'इच्छाके विना संयमकी सिद्धिके लिये, बा रागादि भावोंके उच्छेद करनेके लिये, वा कर्मोके नाश करने लिए वा ध्यान स्वाध्यायकी सिद्धिके लिए वा इंद्रियोंको विषयोंसे रोकने ( दमन करने) के लिये, प्रमादादि कषायोंको जीतने के लिये भोजन-पानका त्याग करना सो अनशन नामका तप है।
कनोदर--उक्त प्रयोजनके ही सिद्धयर्थ अल्प भोजनपान करना।
वृत्तिपरिसंख्यान – अपनी शक्ति बढ़ाने तथा स्वशक्तिकी परीक्षा करनेके लिये अपने शरीरको शक्ति देखकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावानुसार किसी प्रकारके विशेष नियमोंको मनमें धारण करके कि एक, दो या पांच, सात इत्यादि घरों तक ही जाऊंगा, या एक दो या अमुक टोला (फलिया तक जाऊंगा ), या रास्ते या मैदान में ही भोजन मिलने पर लुगा, इत्यादि तक भोजनको गमन करना और यदि नियमानुकल विधिसे भोजनलाभ न हुआ तो बिना किसी प्रकारका खेद किये ही पीछे वन में उपवासादि धारण कर लेना ।
रसपरित्याग-संयमकी वृद्धि और इन्द्रियलोलुपताके घटाने के लिये खट्टा, मीठा, कडुवा, कसैला, तीखा आदि अथवा गोरस, फलरस धान्यरस, अथवा घी, दूध, मिष्टान, तैल. दही और लवणादि रसोंका अथवा इनमेंसे किसीका त्याग करके भोजन करना।
विविक्त शय्यासन-वन, गुफा, पर्वत, वस्तिका तथा जिना. लय आदि एकान्त स्थानमें जहां ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययन इत्यादिमें कोई भी विघ्न आनेकी संभावना न हो, यहां शयन व आसन करना ।
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सोलहकारण बर्म कायक्लेश-शरीर से निर्ममत्व होकर क्ष धादि परिषहोंको नपा चेतन अचेतन पदार्थों द्वारा उत्पल हुए उपसर्गोको सहन करना, कठिन तप करना।
प्रायश्चित-प्रमादके निमित्तसे लगे हुए दोषोंकी शुद्धि करना। विनय-पूज्य पुरुषका आदर करना । वंयावृत्य-मुनियोंकी सेवा टहल करना ।
स्वाध्याय-प्रमादको छोड़ ज्ञानोपार्जन करना, कराना, वांचना, पूछना, अनुप्रेक्षा करना, शुद्ध घोखना तथा उपदेशादि देना।
व्यत्सर्ग-बाह्याभ्यंतर परिग्रहोंसे सर्वथा ममत्व त्याग करना।
ध्यान-सब ओरसे चिताको रोककर एक ओर लगा देना । ये ध्यान चार प्रकारके हैं । दो ध्यान रौद्र और आर्त तो निकृष्ट अति पाज्य है, सागले माग्य है। और दो ध्यान धर्म और शुक्ल उत्तमोत्तम है. ये स्वर्गादिक उच्च गति और मोक्षके कारण उपादेय हैं ।
इस प्रकार तपके बारह भेद कहें परन्तु इसका यह प्रयोजन नहीं है कि जिस प्रकार कहा गया है उसमें कुछ भी न्यूनता हो ही नहीं सकती है । नहीं नहीं, न्यूनता अपनी शक्तिके अनुसार हो सकती है । जैनधर्ममें कोई भी प्रतादिक ऐसे नहीं हैं कि जो सर्वसाधारण उनसे वंचित रह जांय, किन्तु सभी अपनी अपनी शक्ति अनुसार धारण कर सकते हैं । विशेषता केवल यही है कि जितना हो, वह सना हो. विपर्यय मार्गमें ले जानेवाला न हो। क्योंकि थोडेसे अधिक और पूर्ण तो हो सकता है परन्तु विपर्ययका यथार्थ होना कष्टसाध्य है।
-विनयका स्वरूप विनयसम्पन्नता मामध
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सोलहकारण धर्म । ऐसा समझकर स्वशक्तयनुसार सभीको तपका अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि संसारमें यदि दुःख है, तो केवल
आकुलता ( इच्छाओंके होने ) का है और तपसे इच्छाओंका निरोध ( रुकावट ) होता है, अतएव इच्छाओंके रुकते ही दुःख नहीं होता है, और दुःखका न होना ही सुख है इसलिये सुखाभिलाषी प्राणियोंको शक्ति अनुसार तप करना आवश्यक है। तपसे केवल पारमार्थिक सुख होता है, यह बात नहीं है, व्यवहारिक सुख भी होता है । जिनको कुछ भी क्षघा, तृषा, शीत, उष्ण आदि परिषहोंके सहनेका अभ्यास है, वे कहीं भी रुक नहीं सकते हैं, सदा सर्वत्र विहार कर सकते हैं । और अचानक आये हुवे कष्टोंको वीरतासे साम्हना करते हैं । उनसे न तो घबराते हैं, और न खेद ही करते हैं।
आप तो धर्य रखकर कार्य करते ही हैं, परन्तु औरोंको भी सहायता पहचाकर राह लगाते हैं। और अपने व परके धर्मकी रक्षा करते हैं, परन्तु जिन्हे अभ्यास नहीं हैं, वे थोडी ही विघ्न-बाधाओंसे घबराकर धर्म, कर्म भूलकर मार्गभ्रष्ट हो बहुत दुःख पाते हैं।
यह तो निश्चयहीसा है कि-"श्रेयांसी बहुविध्नानि" अर्थात् उत्तम कार्यों में प्रायः बहुत विघ्न आया करते हैं परन्तु जो उनसे नहीं डरते वे ही उत्तम कहे जाते हैं। कहा भी है:
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः, प्रारभ्य विघ्नविहिता चिरमन्ति मध्याः।
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सोलहकारण धर्म । विघ्नाः पुनः पुनरपि प्रतिहल्यमानाः, प्रारभ्य चोत्तमजनाःन परित्यजन्ति ।।
(इति चाणक्यनीति) अर्ध-लौच मनुष्य तो विध्नई: भयंस कागार मन ही नहीं करते हैं, और मध्यम पुरुष प्रारम्भ करके विघ्न आनेपर अधूरा ही छोड़ देते हैं। परन्तु उत्तम पुरुष वारम्वार विश्न आनेपर भी कर्तव्यसे नहीं हटते हैं, अर्थात् आरम्भ किये हुए कार्यको पूरा करके ही छोडते हैं ।
तात्पर्ष-जो सदैव विघ्नोंसे डरते ही रहते हैं, वे कभी कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं कर सकते हैं, और यदि प्रारम्म किया हो तो सफल नहीं कर सकते हैं, और इस प्रकार होते होते दे इतने पतित हो जाते हैं कि हर एक आदमी उनसे घृणा करने लगते है। वे इतने कायर हो जाते हैं, जिससे सबलोंसे सताये जाते हैं, उनका सर्वस्व हरण हो जाता हैं, और वे घरोंघर मारे मारे फिरते हैं । यहांतक हो जाता है कि उनको उन्होंकी वस्तु भिक्षा मांगनेपर भी पीछे नहीं मिलती है।
दूसरी एक बात यह है कि कर्मका उदय सबको सदा एकसा तो रहता ही नहीं है, सदा बदलता रहता है, न जाने किस समय कैसा कर्म उदय आ जाय । तो ऐसे कठिन अवसरमें फिर बिना अभ्यासके क्या कर सकता है ? क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि जो कल धनी थे, जिनको लाखोंकी कोठियां चलती थीं, आज उनका दिवाला निकल गया, वे पसे पैसेको तंग हो गये। जो हृष्टपुष्ट थे, रोगोंसे जर्जरित हो गए । णो रूपवान थे, वे काने, अन्धे, लंगडे और कुरूप हो
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सोलहकारण धर्म । गये । जो बहु कुटुम्बी थे, उनके पीछे कोई नाम लेनेवाला भी नहीं रह गया है, इत्यादि । और कई निर्घनसे घनी, रोगीसे निरोग, कुरूपसे सुक्ष्म और अकेलेसे बहु कुटम्बी हो गये हैं। यह कर्मकी विचित्रता है। जो कर्म पूर्वकालमें बांधे हैं वे । अब हमें आकार, रंग देने में भी। इन ( कोसे) वही
सामना कर सकता है, जिसको तपका अभ्यास है । ये ही कर्मरूपी अभेद्य गढ़को भेद सकते हैं, वे ही इस महापर्वतको फोड़ सकते हैं । इसलिये तपका अभ्यास करना आवश्यक है। सपके अभ्यासी कठिनसे कठिन समयमें भी दुःखी नहीं होते हैं, और न उन्हें प्रायः कोई व्याधि ( रोग) ही सताती है । क्योंकि उनका आहार विहार परिमित अवस्थामें रहता है। वे इन्द्रियलंपटतावश होकर कभी सोमा उल्लंघन नहीं करते हैं।
आजकल लोग प्राय: अपने पुत्र पुत्रियोंको बाल्यावस्थासे 1 ही इतने सुकुमार ( निर्बल और कायर ) बना देते हैं कि वे
थोडी भी सर्दी गर्मी सहन नहीं कर सकते हैं, विना घी दूध चीनी आदि पदार्थों के भोजन ही नहीं कर सकते हैं थोड़ा मसाला कम बढ़ हुआ कि भूखे रह जाते है । देशान्तरोंमें वा निमन्त्रण आदिमें दूसरोंके घरकी रसोई उनको रुचिकर ही नहीं होती है। प्रथम तो कहीं भी जानेहीसे हिचकते हैं, और कहीं भिन्न भिन्न प्रकारका भोजन करना दण्ड समझते हैं, परन्तु जिन्हे अभ्यास है वे कहीं भी भुखे न रहेंगे जिहा-लंपटताके कारण धर्म छोड़ेंगे, उन्हें सरस वा नीरस चाहें जिस प्रकारका भी भोजन क्यों न मिले, परन्त यदि वह धावक धर्मकी क्रियासे अनुकूल भक्ष्य होगा, तो वे सहर्ष खाकर क्षुधाको मिटा लेंगे, उन्हें कुछ भी कष्ट न होगा, वे घुप व ठंडसे किंचित् भी न घबरायेंगे, बात बात में
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सोलहकारण धर्म । बैराकी आवश्यकता न रखेंगे, और सदा अपने कर्तव्य पर पड़ रहेंगे इत्यादि । ___ में स्वानुभवसे कह सकता हूँ कि बालकोंको इस प्रकारके कोमल निर्बल, कायर और लोलुप बनाना क्या है ? मानों मालकोंके साथ घोरतम शत्रुता ही करना है, चाहे लोग भले ही इस अनर्थको प्रेम समझे। बहुतसे माता पिता अपने मालकोशी तामें निगलिमित्त समग एकर अपको हर्षित करते हैं कि हमारा बेटा या भाई बहुत ही कोमल है, वह तनिक भी शीत उष्ण नहीं सह सकता है, न उसका कहीं पेट मरता है, एक ग्रास कम बढ़ हुआ कि बस, उसका पेट दुखने लगता है इत्यादि, परन्तु मैं तो इस सुकुमारताको कायरता ही समझता हूं।
मेरे बिधारसे बच्चोंको बाल्यवस्थासे ही सहनशील, साहसी बोर हढ़ बनाना चाहिये । क्योंकि निबंल मनुष्य न तो संसार व्यवहार हो भले प्रकार चला सकता है, और न परमार्थ ही कर सकता है। क्योंकि आजतलक जितने जीव मोक्ष गये व आगे जायेगे, वे सब बहुत बलवान पत्रवृषभ बाराच संहननवाले ही थे, बोर होंगे।
देखो पाश्व नाय प्रभु कमठके उपसर्गसे नहीं डिगे । देशभूषण-कुलभूषण स्वामीने दुष्ट राक्षस कृत उपसर्ग जीता। मौर भी सुकुमाल सुकौवाल, पांडवादि महामुनियोंने घोर उपसर्ग सहन किये और परम पद पाया है । इसलिये यथाशक्ति उपर कहें अनुसार बारह प्रकारके तपोका निरन्तर अभ्यास करना चाहिये क्योंकि कहा है
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सोलहकारण धर्म। पाप पहार गिरावनको तप, शक्ति समान अवांछक कीजे । F वाहिज अंतर बारह भेद, तपो तप पाप जलांजलि दीजे ॥ - भाव घरी तप घोर करी, नर-जन्मतनो फल काहे न लीजे। ज्ञान कहे तप जो नर भावत, ताके अनेक ही पातक छीजे ॥७॥
इति तप भावना ।
(८) साधुसमाधि भावना ।
साधु समाधि अर्थात् आयुके अंतमें नि:शल्य होकर 'प्राणोंका विसर्जन करना इसे साधु समाधि अथवा संन्यास मरण कहते हैं। जिस समय प्राणो अपनी वृद्धावस्था हुई जाने अथवा अपने आपको असाध्य रोगसे प्रसित हुआ देखे अथवा शत्रुके सन्मुख युद्धस्थलमें मरणोन्मुख घावोंसे जर्जस्ति शरीर हुआ जाने या अन्य प्रकारसे शत्रुके हस्तगत हो मृत्युका -साम्हना लाचार होकर करना पड़े या अथाह समुद्र में नाव
आदिके टूट जाने व अन्य कारणोंसे गिर पहा हो, गिरि वनादिमें मार्गभ्रष्ट हो गया हो, चहुँ ओर अग्निकी ज्वालाओंसे गिर गया हो अथवा और भो किसी प्रकारसे जब उसे यह निश्चय हो जाये, कि अब अवश्य हो मुझे इस वर्तमान शरीरको छोड़ना ही पड़ेगा, अब इसकी रक्षाका कोई उपाय नहीं है, तो निशल्प होकर अर्थात माया, मिथ्या और निदान इन तीनों
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सोलहकारण धर्म । शल्योंको छोड़कर शरीरसे ममत्वको छोड देवे। क्योंकि जो हमें छोड़ना चाहता है, या बलात्कार हमसे अलग हुवा चाहता है, उसे हम उसके छोडनेके पहिले ही यदि छोड देखें, तो हमको उससे निर्ममत्व भाव होने के कारण किंचित भी दुःख न होगा, और तुम सानन्द उससे छुटकारा पा जाबेगे ।
प्रथम तो यदि ययार्थ समाधि बन जावे, तो पुनः शरीर धरना ( अन्म मरण करना ) ही न होगा। और कदाचित् कोई पूर्वसंचित कर्मोका फल भोगना शेष रह गया हो, कि जिसके लिये शरीर धारण करना पड़े तो स्वर्गमें उत्तम देव अथवा मनुष्यों में राजा आदि उत्तम मनुण्य होगे जो कि एक दो आदि बहुत ही कम भव धारण करके सदाके लिये शरीर (जन्म मरण ) से रहित होकर परमपदको प्राप्त करेंगे । ___ यह तो निश्चय है, कि इस शरीरको किसी न किसी दिन छोडना ही पड़ेगा, क्योंकि जब तीर्थकर, चक्रवती, नारायण आदि ६३ शलाका पुरुषोंका ही शरीर स्थिर नहीं रहा है तो अन्य पाक्तिहीन जीवाका शरीर स्थिर रह सकेगा, यह कल्पना बाकाशमें महल बनाने के सदृश है।
और जब यह स्थिर ही न रहेंगा तो इससे ममत्व करना ( रखना ) मूर्खता नही तो क्या है ? क्योंकि इससे ज्ञाता पुरुष कभी अस्थिर पदार्थको नहीं अपनाते हैं, न उसके उत्पन्न होने व नाश होनेसे कभी अपने भावोंको विचलित करते हैं। कारण कि वे जानते हैं कि वस्तुका स्वरूप ही उत्पाद व्यय धोव्यात्मक है । वह पर्यायापेक्षा उत्पन्न और नाश होता है, और द्रव्य अपेक्षा सदा भोव्य रहता है । जो इसमें रागद्वेष करता है, वही इस असार संसारमें जन्म मरणके दुःखको सहला है । इसलिये यही उत्तम है, कि इससे निर्ममत्व होना ।
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सोलहकारय श्रम ।
[ ५५ 1. यद्यपि यह शरीर ( नरदेह ) यप, तप, तादिके द्वारा मोक्षका साधनरूप बाह्य कारण है, और इसीलिये मुनिराज की इस शरीर की यथासंभव रक्षा करनेके लिये उदासीन रूपसे गृहस्थोंके द्वारा प्राप्त हुए शुद्ध प्रासु निर्दोष निरंतराय आहारा तथा औषघादि प्रहृण करते हैं । परन्तु देखते हैं कि उपाय करना व्यर्थ है अर्थात् इस (शरीर ) की रक्षाकी चिंता करने से भी रक्षा न हो सकेगी, किन्तु उल्टा बेद हो होगा तो वे इससे ममत्व छोड़कर एकान्त स्थानमें एकाकी किसी एक आसन से आरमध्यानमें लीन हो जाते हैं। वे यम ( यावज्जीव) अथवा नियम ( रोगादिक प्राणघाती उपसर्गके दूर होनेतक घडी, पहर दिन, पक्ष, मास अयनादिका प्रमाण ) करके प्रतिज्ञा पूर्वक आये हुवे उपसर्ग व परीषह व्यादिको प्रसन्नता से सहन करते हैं। और अतमें शरीरका त्यागकर स्वर्ग मोक्षादि गतिको प्राप्त करते हैं । उपसर्ग व परोषहोंकि आनेपर ध्यान तभीतक विचलित हो सकता है, जबतक कि साधकका शरीरसे कुछ भी प्रेम हो, सो जब शरीर से कुछ प्रेम नहीं रहता है तब आत्माको ( जो इस जड़ पुद्गलमय शरीरसे सर्वथा भिन्न स्वाति केवलज्ञानानन्द स्वरूप चैतन्य अमूर्तीक अखंड अविनाशी अनूप पदार्थ है ) कैसे दुःख हो सकता है, इत्यादि ।
इस प्रकार विचार करके आत्मध्यानमें निमग्न हो जाते हैं । इस प्रकार से समताभावपूर्वक दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चार आराधनाओंको माराधते हुवे जिनका मरण होता है, सो समाधिमरण कहलाता है ।
यह समाधिमरण उन्हींका हो सकता है कि जिनको चिरकालसे उपसर्ग व परीषहादि सहन करने और विषय
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सोलहकारण धर्मं ।
कषायोंके मन्द करनेका अभ्यास है । जिन्होंने अपने शरीरको इतना दृढ़ बना रखा है, और मन तथा इन्द्रियों को वश कर लिया है, जो रागद्वेषादि शत्रुओंके आधित नहीं हैं, जिनके अन्तरंग से संसार में कोई शत्रु नहीं है. जो सदा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओंका विचार किया करते हैं, जिन्होंने इच्छाओंका सर्वथा नाश कर दिया है, जो चारों प्रकारके ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) पुरुषार्थोके साधन में तत्पर रहते हैं जो प्रमाद और कायरतासे पराङ्गमुख हैं जो मोह, शोक, मय, ग्लानि, चिता, हास्य, रति अरति इत्यादिमें कभी नहीं रहते हैं, जो सदा स्वदोष स्वीकार और परगुण ग्रहण करनेको तत्पर रहते हैं, और स्वगुण कीर्तन व परदोष कथन से अपने आपको बचाते रहते हैं सदा साधु ( सत्पुरुषों ) जनोंकी संगति में अथवा ज्ञानाभ्यास में कालयापन करते हैं, स्वपर उपकारमें दत्तचित्त रहते हैं, सांसारिक सुखोंको भोगते हुवे भी उनसे विरक्त रहते हैं जो सदा प्रसन्नमुख रहते हैं, मृत्युको अपना उपकारी समझते हैं इत्यादि, इस प्रकारके चिराभ्यासी पुरुष ही समाधिमरण कर सकते हैं।
जिस प्रकार घर में आग लगनेपर कुआ खोदकर घरकी रक्षा करना कठिन है, उसी प्रकार आसन्न - मृत्यु पुरुषको समाधिमरणका प्राप्त होना कठिन है; क्योंकि जीवको आयुकर्मके सिवाय अन्य सात कर्मोका बन्ध प्रति समय होता ही रहता है और उसीके अनुसार त्रिवली में आयुका वन्ध होता है तथा बन्धके अनुसार ही अन्तसमय में परिणाम हो जाते हैं । इसलिये उससे कदापि समाधिमरण नहीं हो सकता है, इसलिये पहिलेसे हो अभ्यास करना आवश्यक है
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सोलहकारण धर्म । समाधिमरणको इच्छा रखनेवाले प्राणियों को चाहिये कि वे आसन्न-मृत्युका कारण देखकर या अपनो वृद्धास्वयाका विचार कर प्रथम ही अपनी संपत्तिको । यदि गृहस्थ हो तो) व्यवसहा करके अर्थात् जिसको जिस प्रकार देना हो, सो विभाजित कर शेष द्रव्य धर्मकार्योंके निमित्त प्रदान कर उससे अपने आत्माको निर्ममत्व करे, पश्चात रागदोषके परिहारार्थ अपने पर्याय सम्बन्धी शत्रुओं ( अर्थात जिनसे कुछ भो रागद्वेष हो गया हो ) को बुलाकर उनसे क्षमा करवाते और अपने आप भी उनपर क्षमा प्रदान करें, उन्हें जिस तिसप्रकार संतोषित करें, फिर यदि पाक्ति हो तो मुनिव्रत धारण करके समाधिमरणको सौयारी करे और यदि यकायक ऐसा न कर सो तो घरमें रहकर ही क्रमश: प्रतिमा रूपसे संयम और तपका अभ्यास करे और धीरे धीरे आहार विहार आदि कम करता जावें, स्वाद रहित सादा शुद्ध प्रासक भोजन करे कभी कभी उपवास (चारों प्रकारके आहारोंका त्याग ) करता जावे, कभी दूध, कभी पानी, कभी छांछ पर ही दिवस निकाल देवे और जब इस प्रकार होने से परिणामो में कवायभाव व संश्लेशता न हो, धेयं न छूटे तब अधिक अधिक उपवासका अम्यास बढ़ाता जावे, इसी प्रकार शीत उष्णादि परीषहाँके महनेका भो अभ्यास करे । पलंग व कोमल गद्दियोंका सोना त्यागकर घासको चटाई, व भूमि आदिपर सोनेका अभ्यास डाले और ज्यों २ अभ्यास होता जाय त्यों त्यों बाह्य परिग्रहांका त्याग करता जावे।
___ संसारकी विचित्र अवस्था है, इसमें अनेक पुरुष गुणको भी अवगुण रूपसे ग्रहण करके अथवा निष्कारण ही शत्रु बन बैठते हैं, ये अनेक प्रकारके दुर्वचन कहते हैं, मारते भो हैं,
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सोलहकारण धर्म ।
ऐसी अवस्था उपस्थित होने पर समताभावको धारण करे और जब सब प्रकार मन व इन्द्रियें वश हो जाय, विषया भिलाषा घट जाय, कषायोंकी अतिशय मंदता हो जाय तो सर्वथा परिग्रह और गृहवास त्यागकर मुनि मुद्रा घरके साधुसमाधि धारण करें, परन्तु यदि बीच में ही मरणका अवसर प्राप्त हो जाय तो सब ओरसे चित्तको खींचकर अपने आत्मा की ओर लगाले और यदि यह भी न हो सके तो धर्म ध्यान में व दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपादि आराधनामें लगावें, और समस्त प्रकार के शुभाशुभ आहारविहार करनरूप अभिलाषाका भी परित्याग कर दे और कर्मयोगसे आये हुए उपसर्ग व परिषहोंसे निति न होने
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उस समय ऐसा विचार करे कि ये उपसर्ग व परीषद् तो पूर्वकर्मकृत उपाधियां हैं, इनका प्रभाव तो केवल पुद्गल पर हो सकता है, जीवका स्वरूप तो उपाधि रहित अय्याबाध है, इत्यादि अथवा यों विचारों कि मुझसे पहिले भी ऐसे ऐसे व इससे अधिक उपसर्गादि बड़े बड़े पुरुषोंको जा चुके हैं, जैसे देशभूषण कुलभूषणस्वामीको कुः युगिरीपर, पांडवोंको शत्रु जय गिरिपर अकंपनाचार्यादि सातसौ मुनियोंको बलि मंत्री द्वारा, सात सौ मुनियोंको दंडकवनमें घाणी में पेल दिया गया, इत्यादि और भी अनेकों महात्माओं को अनेकों उपसगं सुरनर पशु चेतन प्राणियों द्वारा व अचानक अचेतन वस्तुओं द्वारा उपस्थित हुए हैं, परन्तु उनसे वे किचित् भी नहीं विचलित हुए तो मेरे कितना कष्ट है, इत्यादि चितवन करके अपने चित्तको स्थिर रखें ( पंडित सुरचन्द्रजीका समाधिमरण अर्थात् मृत्युमहोत्सव पाठका अर्थ विचारें ) अथवा यह सोचें कि घबराने ब रोनेसे कुछ दुःख दूर नहीं होगा, किन्तु उल्टा कर्म-बन्ध
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सोलहकारण धर्म !
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होगा, इसलिये समताभाष ही धारण करना उचित है । कर्म | उनको मैंने ही किये हैं तब काफिल भी मुझे ही भोगना पड़ेगा और जब शुभ कर्म भी स्थिर नहीं रहता है, अशुभ कर्म, किस प्रकार स्थिर रह सषेगा ? इसलिये इस विनायक धर्मकं उदयजनित फलमें कायर होना भूलभरा हुवा है, व्यर्थ है । इत्यादि चितवनकर और मित्र महल, स्मशान, कांच कचन, सुख दुःखादिमें समभाव धारण कर चारों आराधनाओंको धारणकर मरण करे सो समाधिमरण या साधु, समाधि है। इस प्रकार सासमाधि भावनाका वर्णन किया । ऐसा कहा भी है
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साधु समाधि कर करो भावुक, पुण्य बड़ो उपजे अध भाजे साधुकी संगति धर्म के कारण भक्ति करे परमारथ छाजे ॥. साधु समाधि करे भव छूटत कीर्ति घटा श्रयलोक में गाजे ज्ञान कहे जग साधु बड़े, गिरिश्रग गुफा विश्व जाय बिराजे |2
इति साधुसमाधिभावना |
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(९) वैयावृत्यकरण भावना ।
वैयावृत्य - अर्थात् सेवा करना 1 सेवा करनेका मुख्योद्देश. यह है कि जिससे कोई भी प्राणी रोगादिक अस्वस्थता के कारण कायर होकर आत्मघात न करले, तीव्र कषायोंके द्वारा कुमरण
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सोलहवारण पन कर दुर्गतिमें न जा पड़े , कोई सहाई न देखकर अपने श्रवान ( दर्शन ) और चारित्रसे विचलित न हो जाय, अथवा इन असहाय, रोगी, अस्वस्थ जनोंको देखकर अन्यान्य धर्मात्मा पुरुष धर्म में शिथिल न हो जाय, इत्यादि ।
यह सेवा ( वयावृत्य) दो प्रकारसे होती है-(१) भक्तिसे (२) करुणासे ।
भक्तिपत्रा-अर्थात् भक्त (सेवक ) से जो दर्शन (श्रद्धा) ज्ञान, चारित्र, तप आदि गुणोंमें अधिक हो उसको सेवा करना । अर्थात् भक्त जिन महात्माओंके गुगों में आशक्त हो, अयवा जिनके गुण अनुकरणीय हों, और भक्त उनके द्वारा सद्गुणोंकी प्राप्ति अपने आपमें वे अन्यजनोंमें करना चाहता है इत्यादि इसलिये उनका सेवा टहल करता है. कि जिससे उन महात्माओंका शरीर स्वस्थ रहे और उनके द्वारा धर्म व झानकी प्रवृत्ति होतो रहे, जिससे वे स्वयम् धर्ममार्गमें दृढ़ रहकर अन्य प्राणियोंको भी दृढ़ रख सकें, ताकि सेव्य और सेवक दोनोंका कल्याण हो, दोनों सच्चे सुखको प्राप्त हो इसलिये उनको सेवा टहल करता है क्योंकि कहा है- "न धर्मों धामिविना" अर्थान् वर्मात्माके बिना धर्मको प्रवृत्ति नहीं रह सकती है । इसे भक्ति सेवा कहते हैं । इससे अनुकरणीय गुणोंको मुख्यता देखो जाती है, जैसे मुनि आदि चतुविध संघको तथा अन्य सावीजनोंकी सेवा सुश्रूषा करना, इत्यादि ।
करुणा-सेवा-इसमें गुणदोषोंको योर दृष्टिपात न करके केवल दया ही को प्रधानता रहती है। यह सेवा संसारके नर पशु आदि समस्त दुःखित, दोन, असहाय, निबल, रोगो और अनाय प्राणियोंकी निःस्वार्थ वृत्तिसे को भाती है ।
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सोलहकारण धर्म ।
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विनय और वैयावृत्य में केवल अन्तर यही है कि विनय तो केवल बयोवृद्ध, गुण वृद्ध, ज्ञानवृद्ध, चामिअवद्ध और तपादि गुणवद्ध सम्यग्दर्शनके धारी पुरुषोंको उनके गुणोंका अनुकरण करने व उनके गुणोंकी प्राप्तिके अर्थ की जाती है, और वैयावृत्य केवल अस्वस्थ (रोगावस्था) अवस्थमें प्राणीमात्रको उनको रोगमुक्त करने के लिये की जाती है।
वैयायय करनेवाले पुरुषको निविचिकित्सा अङ्ग अवश्य ही धारण करना पड़ता है । क्योंकि बात पित्त मौर कफादिके प्रकोपसे प्राणियोके शरीरमें अनेक प्रकारकी इणित व्याधियां जैसे- ज्वर, दमा, कफ, खांसी, श्वांस, सन्निपात, फोडा, फुन्सी आदि उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके कारण पसीना (पसेव=स्वेद), लार. पीब, लोहूं, मल, मूत्र, कफ आदि दुषित पदार्थ शरीरसे निकालने (बढे लगते हैं। मक्खी, चिऊंटी, चींटा, मंकोडा, मच्छर आदि जीव उसे घेर लेते है, उसके श्वासोश्वास में भी दुगध निकलने लगती है।
ऐसी निर्बल अवस्था में प्राणियोंका घेय छूट जाता है, वे अनेक प्रकारके अनर्थ, रोगसे कायर होकर कर बैठते हैं। इसलिये उनकी ऐसी दीन हीन अवस्थामें ग्लानि रहित भक्त व दयाभाव पुरुष ही उनकी सेवा मुथूषा । वैयावृत्य ) कर सकता है । यह महान पुण्योत्पादक कार्य नाक मुह सिकोड़नेवाले दरपोक कायरोंके भाग्य में ही प्राप्त नहीं हो सकता है। भला, जिस अवस्थामें साथी पुत्र, कलत्र, बांधव, मित्र, पडौसी, सेवक, सम्बन्धी आदि ही छोड़कर चले जाते हैं यहांतक कि रोगी स्वयं ही अपने शरीरसे उदार होकर ग्लानियुक्त हो जाता है तब क्या कह सकते हैं कि अन्य कायर ग्लानियुक्त मनुष्योसे यह पुण्यकार्य सपादन हो सकेगा? कभी नहीं,
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सोमकारण धर्मं ।
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कभी नहीं ।
डॉक्टर, वैद्य, हकीम, जर्राह तथा दाई ( MMidwife or nurse ) आदिको तो सर्वथा ग्लानिरहित ही होना चाहिये, क्योंकि उनके पास तो सब जातिके ऊंच नोच और सब प्रकारके रोगो म आते है और उनका कर्तन की है कि वे सबको प्रेमसे भक्तिने, दयासे, सुललित शब्दोंसे सम्बोधन करते हुए उनकी चिकित्सा करें, सेवा करें न कि लोभवश निम्न कहायतको चरितार्थ करें-
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वैद्यराज नमस्तुभ्यम्, यमराज सहोदरा | यमस्तु हरतु प्राणान् वेद्यं प्राणधनानि च ॥1
अर्थात् - हे वैद्यराज ! तुमको दूरसे हो नमस्कार है, ( हम तुम्हारी चिकित्सा नहीं कराना चाहते हैं ) क्योंकि तुम यमराज के भाई हो । नहीं, उससे भी अधिक हो, कारण यमराज तो केवल प्राणों का हरण करता है, परन्तु तुम ( लोभो य) प्राण और घन दोनोको हरण करते हो | यथार्थ में वैद्यविद्या केवल परोपकारार्थ ही है न कि धन इकट्ठा करनेके लिये है. जैसा कि प्रायः आजकल के अनेक वैद्य डॉक्टर कर रहे हैं ।
वैयावृत्य करना मनुष्य मात्रका कर्तव्य है, वैद्य पर हो यह निर्भर नहीं है । हां इतना अवश्य है कि वैद्य जनसाधाराणको अपेक्षा इस कार्यका चतुराई और विशेषता पूर्ण कर सकते हैं, परन्तु इसका यह आशय नहीं है कि और कोई बिलकुल कर हो नहीं सकता है। नहीं, प्रत्येक नरनारी अरनो शक्ति और बुद्धिके अनुसार अवश्य हो थोडो बहुत प्राणिसंघकी वैयावृत्य कर सकता है ।
ध्यान रहे कि वैयावृत्य अस्वस्थ रोगो प्राणियों को हो की
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सोलहकारण धर्म । [६३ - माती है न कि स्वस्थ हृष्टपुष्ट संडेमुस्तंडे लोगोंकी; क्योंकि चिकित्सा तो रोगको होती है। और जबकि कोई रोग हो नहीं है. तो चिकित्सा काहेको को जाय ? जो लोग स्वस्थ अवस्थामें भो किसी भेष विशेषको धारण करके स्त्री पुरुपौने अपनी सेवा टहल कराते हैं, हाथ पैर मलबाते हैं, शरीरमर्दन व लेपादि कराते हैं, या औषादि मोगर नकस रसास्वाद करते हुए भोजन करते हैं वे यथार्थमें ठग, धूर्त,
व्यभिचारी, चोर विषयलम्पटी, कायर और नीच हैं। ऐसे __ लोगोंसे दूर रहकर ही अपने धर्मकी रक्षा करना उचित है, F और अपने साथियों व जन साधारणको ऐसे भयंकर जीवोंसे - बचानेके लिये सचेत कर देना उचित है ।
उत्तम पुरुष-तो जहांतक संभव है और उनके शरीरमें शक्ति रहती है व उनके परिणाम स्थिर रहते हैं, वहांतक वे कभी किसो से सेवा कराते ही नहीं हैं, वे शरीरसे बिल्कुल निष्पह रहते हैं यहांतक कि वे अपने आप भी अपनी वैयावृत्त्य शक्ति रहते हुवे भी नहीं करते हैं, और अपनी संपूर्ण शक्ति आत्माकी ओर लगाकर एकांत स्थान (गिरि, वन, गुफा) में एकासनसे समाधिष्ट हो जाते है। वे आत्मच्यानको ही संपूर्ण रोगोंकी परिहार करनेवाली औषधि समझते हैं ।। __ मध्यम पुरुष-अपनी चिकित्सा ( वयावृत्य ) यथासंभव आप ही कर लेते हैं वे दूसरोंको उनके आवश्यक कार्योग रुडाकर अपनी सेवा नहीं कराते हैं। - जघन्य अपने आप शक्ति न रहते हवे अपने परिणामोंको
स्थिर रखनेके हेतु रोगका परिहार करने की इच्छासे किसी - साधर्मी सज्जन सदाचारी पुरुष द्वारा उसकी सेवा करनेकी - इच्छा देखकर वैयावृत्य कराना स्वीकार कर लेते हैं ।
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सोलहकारण धर्मं ।
उत्तम और मध्यम पुरुषोंमें तो केवल साधु महात्मा ही गिने जाते हैं जो उस उच्चावस्थाको पहूच चूके हैं, और जिनके परिणाम घोरतम उपसर्ग तथा परीषहादि आनेपर भी अचल मेरुवत् चलायमान नहीं होते हैं, और जघन्यमें साधु आदि गृहस्थ भी होते हैं ।
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मुनि, आर्यिका श्रावक और धाविका इनकी वैयावृत्य करना सो तो भक्तिकी अपेक्षासे होती है । और इनसे इतर प्राणीमात्रकी वैयावृत्य करना है सो करुणा ( दया ) अपेक्षा है ।
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वैयावृत्यमें ये दो ( भक्ति और करुणा ) ही कारण प्रधान हो सकते हैं । जब कि मुनि साधु ) भी अपने संघकी वैयावृत्य करते हैं, तब गृहस्थोंका तो यह मुख्य कर्तव्य होना हो चाहिये । देखो, भगवती आराधनासार ग्रन्थ में एक साधुकी वैयावृत्य करने के लिये अड़तालीस | ४८ ) साधु ( उत्कृष्ट रीतिसे । और ( जघन्य रीतिसे ) कमसेकम दो साघु अवश्य ही रहते हैं, जिससे क्षपक अस्वस्थ साधु ) के परिणामोंमें कुछ विकल्प न होने पावे, और व्यावृत्य करनेवालोंके भी अपनी नित्यावश्यक क्रियाओं में कुछ बाधा न पहुंचने पावे ।
तात्पर्य - साबु भी वैयावृत्य करना अपना एक धर्म समझतें हैं, क्योंकि वैयावृत्य अन्तरंगमेंसे एक तप है । और तप निजराका कारण है तत्र गृहस्थको तो समझना ही चाहिये ।
साधुकी वैयावृत्य - तो केवल उनके योग्य वस्तिकाका प्रबंध कर देना, भोजनके साथ उसी समय उनकी प्रवृत्ति द्रव्य, क्षेत्र और कालानुसार योग्य प्रासुक औषधि देना, हस्त पादादि छापना, पुस्तक, पोछी, कमण्डलु सांथरा ( बिछानेको घांस ) आदिका प्रबंध कर देना, और नम्र विनययुक्त मधुर वचनोंसे स्तुतिरूप संबोधन करना इत्यादि है ।
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[ ६५ गृहस्थोंकी यावृत्य-- उनके योग्य औषधिका उपचार करना, उठाना बैठाना, सुलाना. मलमूत्रादि साफ करना वरून बदलना, पथ्य भोजन कराना, धर्मोपदेश देकर धैर्य बंधाना, उसके कुटुम्बी व आप्रितजनोंको शांति देना, यदि निर्घन हैं तो उसको उसके आश्रितजनोंके भोजन वषादिका उचित प्रबंध कर देना इत्यादि, यही सेवा है।
वैयावृत्य करनेवाला किसीपर उपकार नहीं करता है, किन्तु यह उसका कर्तव्य ही है। उसे अपनी सेवाका अभिमान
न होना चाहिये, लोहो गर बार दबाना पाहिये कि I "यदि मैं न सेवा करता तो भिनक जाता" इत्यादि, और न । उसको उसके प्रतिफलकी इच्छा रखनी चाहिये । प्रतिफल तो मिलता
ही है तब व्यर्थ क्यों ऐसी कुवासनाओंसे अपनी आत्माको कलुषित किया जाय ? सेवा करनेवाला यथार्थ परका नहीं किन्तु अपना निजका ही उपकार करता है क्योंकि रोगीकी सेवा तो यदि उसका शुभ उदय हो और असाताका क्षयोपशम हो तो अवश्य ही कोई न कोई उसकी सेवा करनेको मिल ही जाता हैं, परन्तु अभिमानी सेवकके हाथसे वह सेवा करनेको शुभ अवसर चला जाता है जिसके कारण वह महत्पुण्य कार्य से वंचित रह जाता है।
यदि व्यवहारदृष्टिसे भी देखा जाय तो भी संसारमें विना परस्परकी सहायताके कार्य नहीं चल सकता है । एक आदमी दुसरेका कोई उपकार करता है तो दूसरा भी पहिलेको उसका बदला किसो व किसी रूपमें चुका ही देता है । मालिक यदि नौकरका और उसके कुटुम्बका पोषणके निमित्त द्रव्यसे उपकार करता है तो नौकर भी सेवा चाकरीसे मालिकका उपकार करता है । इससे यह सिद्ध होता है कि संसारमें सब जीवोंका
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निर्वाह विना परस्परके उपकार, सहायता, सेवा, सुश्रुषा, मेलमिलाप आदिके नहीं हो सकता है, इसलिये वेयात्म करना परमावश्यक है ।
निश्रयसे वैयावृत्य द्वारा स्थितिकरण अंगका पोषण होता है । वैयावृत्यमें अतिथिसंविभाग व्रतको भी कहीं कहीं गभित किया जाता है । कारण क्षुषा भी एक प्रकारका रोग है जो भोजनरूपी औषधिसे मिटता है, और क्षुधाकी वेदना बढ़ने से अनेकानेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा परिणाम भी विचलित हो जाते हैं इसलिये अतिथिसंविभागव्रत भी वैयावृत्य में गर्भित हो सकता है ! इस प्रकार वैयावृत्यकरण भावनाका स्वरूप कहा। कहा भी है
कर्म संयोग विथा उदये मुनि पुंगवको शुद्ध भेषज दीजे । पित्तकफानल श्वास भगंदर, ताप कुशूल महां छौजे || भोजन साथ बनायके औषधि, पथ्य कुपथ्य विचारके दीजे । ज्ञान कहे नित ऐसे वैयावृत्य, जोहि करे है देव पतीजे ॥३९॥
इति वैयावृत्य भावना ।
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(१०) अर्हद्भक्ति भावना ।
अद्भक्ति- अर्थात् अहं ( जिन या आप्त ) भगवानकी उपासना करना । बर्हन्त, जिन और आप्त ये तीनों एकथंवाची हैं । अर्हन्त उसे कहते हैं, जो भव्यजीव अपने सम्यग्ददन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के वलसे चारों घातिकर्म-ज्ञानावरणीय अनंतज्ञानको ढकनेवाला, दर्शनावरणीय संपूर्णपने देखनेका शक्तिको ढकनेवाला, अन्तसको रोकनेवाला अर्थात् विघ्न करनेवाला और मोहनी - सम्यग्दर्शन और सम्यकुचारित्र ( जिसके कारण आत्माको अनंत सुख होता है ) को रोकनेवालेको नष्ट करके सयोगकेवली नामके तेरहवें गुणस्थानको प्राप्त हुआ है ।
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यह जीव अनादि कालसे कर्मका प्रेरा चतुर्गतिकी चौरासी लक्ष योनियों में परिभ्रमण करता है । सो अनन्तकाल तक भ्रमण करते करते काललब्धिके प्रभावसे जब कभी जीव क्षयोपशम ( सदसद् विवेषरूप बुद्धि ( ज्ञान ) का पाना, विशुद्ध ( अपने कल्याणकारी उपदेशको ग्रहण करनेयोग्य कषायकी मन्दतारूप भाव ), देशना ( मोक्षमार्ग के उपदेशका लाभ ) प्रयोगलब्धि ( आयु कर्मके सिवाय अन्य कर्मोकी स्थिति अन्त: कोटाकोटि सागर प्रमाण रह जाना ) और करणलब्धि ( सम्यग्दर्शनके सन्मुख भव्य जीवके समय समय अत्यन्त विशुद्धता लिये हुए, बोर समय समय प्रति पापकर्मो की स्थिति व अनुभागको घटाते हुए, तथा पुण्य कर्मोकी स्थिति और अनुभागको बढाते हुए पट् गुणी हानि - वृद्धिको लिये गुणश्रेणी गुणसंक्रमणादि करता हुआ - अनन्तानुबन्धी चौकड़ी तथा मिध्याश्वके द्रव्यको अन्य प्रकृतियों
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सोलहकारण धर्म। रूप परिणमता है और इस प्रकार अधःकरण अपूर्वकरण करके अनिवृत्तिकरणके अन्त समयमें इन ५ प्रकृतियोंको पूर्णतया उपशमाकर अनन्तर समयमें सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है । सो इस प्रकार यह जीव कितने ही वार तो कर्णलब्धिक यतिरिक्त चार लब्धियें पा करके भी कृतकार्य नहीं होता है । और जब इसका भवस्थिति केवल अपुगदलपरावर्तन कातमात्र शेष रह जाती है तब यह उपजम सम्यग्दर्शनको प्राम होता है।
सो यह सम्यादर्शन अन्तर्मुहूर्त कालमात्र रहकर छूटे और तब फिर पहिलेके समान मिथ्यात्वी हो जाता है परन्तु इतना विशेष है कि मिथ्यात्वका द्रव्य तीन मागरूप हो जाता हैमिथ्यात्व, मिश्र मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्व । इस प्रकार कईवार यह जीव उपाम सम्यक्त्वको ग्रहण करकर छोड़ता है तब कभी क्षयोपशम सम्यक्त्वको पाता है, और पश्चात् जब केवल ३-४ मत मात्र संसारकी स्थिति रह जाती है तब शायक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, सो यह सम्पपरय फिर नहीं छाटता है किंतु यह जीवको संसारसे छुड़ाकर परमपदको प्राप्त करा देता है । सो ऐसे सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर यह जीव अपने सच्चिदानंद स्वरूपका चितवन करता है उस समय यह अपने आश्माको पुद्गलादि जड पदार्थोस भिन्न अखण्ड, अविनाशी, चैतन्य. सर्व कर्मोपाधिसे रहित, जानानन्द स्वरूप, अनन्त शक्तिवाला अनुभव करता है । सम उसके परम अनहादरूप भाव होते है । और उस समय वह बैलोफ्यफे इन्द्रियजनित सुखोंको अपने सच्चिदानंद स्वरूपके अविनाशी सुखोंके साम्हने तृणवत्, विनाशोक मीर कर्मजनित पराधीन उपाधि मात्र समझता है। इस
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सोलहकारण धर्म । प्रकारको स्वपर भेद विज्ञानरूप अवस्थाको सम्यादर्शन या सम्यक्त्वकी अवस्था कहते हैं । । यहां वह जीव चतुर्थ गुणस्थानवर्ती कहाता है, उस समय
उसके मोहकर्मकी सात प्रकृतियों ( अनन्तानुबन्धी क्रोष, मान, | माया और लोभ ये चौकडी चारित्रमोहकी, और मिथ्यात्व, सम्याग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व ये तीन दर्शनमोहको ) का क्षय तो कर हो चुका है।
पश्चात् अप्रत्याख्यानावरणी और प्रत्याख्यानावरणी क्रोध, मान, माना और सोभ इन नारिमोड़की दोनों चोकड़ियोंके उपशम होनेसे उपशम या क्षयोपशम चारित्रको प्राप्त कर अनिवृत्ति बादरसाम्पराय नाम नवमें गुणस्थानमें निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि ये तीन दर्शनावरणीय कर्मकी और तर्कगति, पशुगति, नर्कगत्यानुपूर्वो, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्री, द्वन्द्री, रेन्द्री, चौइन्द्री, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण, ये तेरह नामकर्मको इस प्रकार सोलह प्रकृतियोंका क्षय करके तिसहोके पीछे उसा गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरपोय और प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभको पौकड़ियां अर्थात् आठों चारित्रमोहकी प्रकृतियोंको क्षयकर कमसे नपुसकवेद, स्त्रीवेद हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन, क्रोध, मान. माया ये तीन. इस प्रकार वीस चारित्र मोहको और तेरह नामकर्मकी और तीन दर्शनावरणीयकी, कुल असीस प्रकृतियोंको क्षय करके क्षपकक्षणोमें ही आरूढ़ होता हुआ दशवें सूक्ष्मसापराय नाम गुणस्थानमें सूक्ष्म लोभ ( चारित्र मोहकी संज्वलन चौकड़ों में से जो
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७० ] सोलाकारण वर्ष । • एक प्रकृति शेष थी उसे ) क्षय करता है। पश्चात् बसवेंसे
एकदम बारहवें क्षीणकषाय नाम गुणस्थानमें पदार्पण ( ग्यारहवें उपशांतकषाय गुणस्थानमें उपशम घेणी बढ़नेवाला ही जाकर , पीछे पड़ जाता है, क्षपकवाला नहीं जाता है ) उपांत्य समयमें (अन्त के समान हिले ; नि, और सपना का तो दर्शनावरणीय प्रकृतियोंका क्षय करके अन्तके समयमै मति, . बुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पांचों शानोंको ढकनेवाली पांच ज्ञानावरणीय. चक्षु, अचक्ष , अवधि और केवल इन चार दर्शनको रोकनेवाली दर्शनावरणीय, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीयं (बल) इन पांच लब्धियोंको रोकनेवाली अन्तरायकी, इस प्रकार चौदह प्रकृतियोंको क्षय करके सयोगकेवली नाम तेरहवें गुणस्थानोंमें प्रवेश करता है, यहांतक कुल प्रेसठ प्रकृतियोंका भय हो जाता है। ऊपर बताई हुई ज्ञानावरणीय पांच, पर्शनावरणीय नव, अन्तरायकी पचि, मोहनीयकी अट्ठावीस, नामकर्मकी तेरह, इस प्रकार साठ और देवायु, नरकायु और तिर्यचायु ये तीन आयुकी कुल वेसठ (६३) हुई।
जब जीव इस प्रकार उक्त ६३ प्रकृतियोंका क्षय कर लेता है तब उसे अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन अनंत सुख और अनंत वीर्य (बल) प्राप्त होता है-आत्माकी स्वाभाविक दिव्य शक्ति प्रगट होती है । क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, जन्म, अरा, मरण, रोग, शोक, भय, विस्मय, अरति, स्वेद, खेद, मद, मोह, रति, निद्रा ये अठारह प्रकारके दोष बिलकुल उसमें नहीं रहते हैं, उसपर उपसर्ग व परोषहोंका जोर नहीं चलता है, तब वह जीव सकल परमात्मपरको प्राप्त हो जाता है, उसके नवीन कर्मोका
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सोलहकारण चर्म । बंध नहीं होता, केवल योगोंके सद्भावसे ईर्यापथ आश्रन होता है सो उपचारस एक समयको स्थिति लिये बंधं कहा जाता है, और पूर्व बंधे शेष अघाति कर्मोकी ८५ प्रकृतियोंकी कर्मवर्गणाओंकी निर्जरा समय समय प्रति असंख्यातगुणी होती माती है।
तब इंद्रादिकः देव अपने अवविज्ञानके बलसे प्रभुको केवलशान उत्पन्न हुआ जानकर समयसरण या गंवकुटीकी रचना करते हैं, जिसके मध्य वह विशुद्धात्मा, वीतराग, सर्वश प्रभु अपने दिव्य केवलज्ञानके द्वारा देखे और जाने हुए संसारके तत्वोंका स्वरूप यथावत् सुर, नर,तिर्यंचादिक जोवोंको अपनी अमृतमयी दिव्यध्वनिके द्वारा सकल जीवोंके कल्याणार्थ उपदेश करता है, सुनाता है। ऐसे उत्कृष्ट केवलज्ञानसंयुक्त विशुखात्माको सकल परमात्मा, जिन, अर्हन्त या आप्त कहते हैं। इसे हो जीवन्मुक्त भी कहते हैं, क्योंकि अब इसको मुक्ति दुर नहीं है। क्योंकि आयुके अंत होते ही शेष ८५ प्रकृतियोंको क्षय करके शरीर त्याग कर लोकशिखर पर तनवातवलयके अंतमें सदाके लिये स्वस्वरूपमें निमग्न होकर अविनाशी, अखंड, सच्चिदानंद स्वरूपको प्राप्त करेगा तब उसे निकल ( शरीर रहित ) परमात्मा या सिद्ध या मुक्तजीव कहते हैं।
यह पद प्रत्येक भव्य जीव प्राप्त कर सकता है, परन्तु प्रत्येक कालचक्रमें चौवीस विशेष जीव होते हैं, जिन्हें अवतार या तीर्थंकर ( चर्मतीर्थ के प्रवर्तक ) कहते हैं, ये विशेष पुण्यात्मा होते हैं, और इनके गर्भ में आते ही वह नगरी जिसमें ये उत्पष होनेवाले हों, इन्द्रादिक देवोंके द्वारा सजाई जाती है। वह माता जिसके ये गर्भ में आनेवाले हों, देवियों कर सेवित होती है । नगरीमें नित्य प्रतिदिनमें ३ वार १५ माइतक इन्द्राविशेष
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सोलहकारण धर्म। एकवारमें साडेतीन कोटी रत्नष्टि करते हैं ।।
खब प्रभुका जन्म होता है, तब इन्द्रादिक देवोंका आसन कंपायमान हो जाता है, तीनों लोकके जीवोंमें हर्ष क्षोभ और कुछ समयके लिए शांति उत्पन्न हो जाती है, तब वे इन्द्रादिक देव उस महाप्रभुका अवतार हुआ जानकर उत्सव करते हैं, प्रभुको मेरुगिरिपर ले जाकर अभिषेक करते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, वादिन बजाते हैं जय जयकार करते हैं ।
पश्चात् जब प्रभुको संसारसे वैराग्य होता है, तब देवऋषि आकर स्तुति करते हैं, फिर इन्द्रादिक देव प्रमका अभिषेक करके निकटके किसी वनमें प्रभुको ले जाते हैं । यहांपर प्रभु संसारके स्वरूपका चितवन करके ( अनुप्रेक्षाबों का चितवन करके ) अपने शरीर परसे जड़ वबाभूषणोंको उतार देते है। और सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार करके घ्यानमें निमग्न हो जाते हैं, उसी समय प्रभुको मनःपर्यय ज्ञान होता है और इन्द्रादिक देव स्वस्थानको चले जाते हैं । पश्चात् तप और ध्यानके प्रभावसे घातिकर्मीको क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, और फिर इन्द्रादिक देवोंकी निर्मापित सभा (समवसरण) में स्थित होकर चतुर्गतिके जोवोंको दुःखस छुड़ानेवाले सच्चे धर्म ( मोक्षमार्ग) का उपदेश करते हैं और आयुका निःशेष होते ही सिद्धपद प्राप्त करते हैं।
यद्यपि ये अवतारिक पुरुष अर्थात् तीर्थंकर कहाते है, ___ * तीर्थंकरके गर्भादि पंचकल्याणक और समवसरणका वर्णन ग्रन्थान्तरोंमें जैसे-रत्नकरण्ड या धर्मसंग्रहश्रावकाचार, यादिनाय पुराण, समवसरण विधान आदिमें विस्तार सहित लिखा गया है वहांसे देखा ।
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सोलहकारण धर्म । [३. परन्तु इसमें यह न मान लेना चाहिए कि इनके सिवाय और कोई उस परमपदको नहीं पा सकता है, किन्तु जो उस मार्गका मातम्घन करता है, वहीं प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार अर्हन्तदेवका संक्षिप्त रोतिसे वर्णन किया । ऐसे देवको भक्ति ( उपासना ), पूजादि स्तवन, गुग कार्तन, भजन, चितवन करने से आने आत्मामें भो दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है, अपने पुरुषार्थका ध्यान होता है और अपने आपका भों उस अविनाशो अखण्ड सच्चिदानन्द स्वरूप परमादके प्रात करने को इच्छा होती है।
संसारके विनाशिक विषयनित सुखोंसे घृणा और भय उत्पन्न होता है, दुर्वासनायें मनमें स्थान नहीं बनाने पातो हैं, चित प्रफुल्लित रहता है; कायरता, भय, मोह, शोक, मदादि दोष पलायन कर जाते हैं, उपसर्ग और परोष होंसे चित विचलित नहीं होता है. साहस, बल, इना, गम्भोरता
बढ़तो है, बुद्धि निर्मल होती है, ज्ञानानुभव बढ़ता है, दया, । क्षमा, शोल, सन्तोष, विनय, निष्कपटता, प्रेम, उल्लास, श्रद्धा, निराकुलता इत्यादि अनेकानेक गुण दिनोंदिन बढ़ते हैं।
इसनिये अहक्ति नाम भावनाका चितवन अवश्य करना चाहिये । यद्यपि इस समय साक्षात् अर्हन्त भगवान नहीं हैं, तो भा उनके गुण और पवित्र चरित्रके चितवन करनेके लिये स्मारक रूपसे ताकार मूर्ति बनाकर मंत्र के द्वारा प्रतिष्ठित करके किसो उत्तम एकान्त स्यानमें रखकर उनके साम्हने
अर्हन्तके गुणोंका स्तवन (चितवन) करके अर्घ उतारण करनेसे । भी अर्हद्भक्ति नाम भावना हो सकती है। क्योंकि यह मूर्ति
भो हमको विना बोले साक्षात् अर्हतका स्वरूप हो दर्शानेवाली । है । इस वैराग्यमष मूर्तिको देखते हो वैराग्यभाव उदित हो
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सोषकारण वर्म ।
जाते हैं और उस (मूर्ति) के साम्हने पूजन भी महंत ही की होती है । न कि जड़ मृतिका रतवपूजनादि किया जाता है जैसा कि बहुत से लोग मान बैठे हैं।
मूर्ति तो जड़ है, कुछ जड़की पूजा थोड़े ही की जाती है। पूजा तो की जाती है उस जीवनमुक्त ( शरीर सक्न परमात्मा ) अर्हत प्रभुकी, जो कि सच्चिदानंद चैतन्य स्वरूप है, और वह भूति उसकी अतिम अवस्थाको स्मरण करानेवाली है, इसलिये इसके सन्मुख पूजन, स्तवनादि जड़मूर्तिका नहीं कितु चैतन्य प्रभु अर्हत हो की पूजा, स्तवन समझना चाहिये । कारण से कार्यकी सिद्धि होती है, इसलिये वीतरागमुद्रारुप मूर्ति के दर्शन से ही वीतराग भावोंकी सिद्धि होती है। तात्पर्य- मूर्ति ध्यानादि बर्हत गुण चितवनके लिये निमित्त कारण है, और उपादान कारण तो अपने ही भाव हैं, इनका निमित्त नैमित्तिक संबंध है । इसलिये साक्षात् अर्हत देव के अभाव में उनकी अतिम ध्यानावस्थाकी परम दिगम्बर वीतराग शांति मुद्रायुक्त मनुष्याकार मूर्ति स्थापित करके ही अहंत पूजन, स्तवन करना चाहिये । इसीको अद्भक्ति नाम भावना कहते हैं ।
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सोही कहा है
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देव सदा अहं भजो जिह, दोष अठारह किये अति दूरा । पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किये सब चूरा || दिव्य अनंत चतुष्टय शोभित, घोर मिल्थ्यो निधारण शूरा। ज्ञान कहे जिनराज अराधो, निरंतर जे गुण मंदिर पूरा ॥ १० ॥ || वद्भक्ति भावना ॥
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नोबहकारव वर्ष । (१५) आचार्यभक्ति भावना।
आचार्यभक्ति भावना-अर्थात् दीक्षा शिक्षा देनेवाले गुरुको । उपासना करना ।
आचार्य-गुरु (प्राणियोंको असत् मार्गसे छुडाकर सत्. मार्गमें लगानेवाले, दीक्षा शिक्षा देने वाले और लगे हुए दोषों से प्रायश्चितादि देकर विधियुक्त संस्करण करनेवाले संघाषिपति) को कहते हैं।
संघाधिपति-आचार्य दो प्रकारके होते है-एक तो गृहस्थाचार्य और दूसरे निर्ग्रन्थाचार्य । गृहस्थ संघपति भी दो प्रकारके होते हैं-एक तो वे जो गृहस्थोंको विद्या और कलाकौशल्यकी शिक्षा देते हैं तथा गर्भादि संस्कार कराते हैं। इन्हें गृहस्याचार्य कहते हैं।
ये लोग स्वतंत्र रीतिसे निरपेक्ष होकर विद्या पढ़ाते, कलाकौशल सिखाते, नीतिमार्ग ( व्यवहार धर्म ) का उपदेश करते,
और गर्भाधानादि षोड़श संस्कार कराते, तथा प्रतिष्ठादि यज्ञ क्रिया करवाते हैं । और शिष्योंके द्वारा प्राप्त भेंट (द्रव्य) में संतोपवृत्ति धारणकर अपना और अपने कुटुम्बका पोषण करते हैं। कभी किसीसे कुछ भी याचना नहीं करते हैं । . केवल अपने सदाचारके प्रभावसे ही लोगोंको आज्ञाकारी बनाते हैं।
दूसरे संघाधिपति गृहस्थ-राजा होता है, जो स्वयं सदाधारी होकर अपनी प्रमाको विद्या, बल, बुद्धि और पराक्रमसे वश करके असत मार्गसे रोककर सत् मार्गपर चलाता है
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७६ )
सोलहकारण धर्म |
और परचक कृत प्रजापर आये हुये उपसर्गो (उपद्रवको अपने - बलवों) को अपने बल व बुद्धिसे दूर कर प्रजाकी रक्षा करके धर्मको तथा नीतिको प्रवृत्ति करता है ।
राजा अपना प्रभाव सदाचारसे ही प्रजापर डालता है, परतु कभी आवश्यकता होने पर दण्डनीतिका भी अवलम्बन करता है क्योंकि विना भयसे आज्ञा प्रवृत्ति नहीं होती है, सो विद्वान तो परलोक भय या पापके भय से असत् मार्ग छोड़ देते हैं, परन्तु जनसाधारण मूर्ख विना इस लोकभय अर्थात् दण्डनीति ( ताड़न करना ! के असत् मार्ग नहीं फिरते हैं । इसलिये राजाको यह करना हो पडता है। यदि राजा ऐसा न करे, अर्थात् दुष्टोंको दण्ड न देवे, तो सज्जन शिष्ट पुरुषों का रहना हो कठिन हो जाय, संसार में धर्म और नीति उठ जाय, लोग स्वच्छन्द होकर मनमाने कार्य किया करें, दीन हीन निर्बल प्राणिया जावन निर्वाह भी होना दुष्क्रय हो जाय. " जिसको लाठी उसकी भैंस " वालो कहावत चरितार्थ हो जाय, इत्यादि । ! इसलिये प्रत्येक संघ में संवाधिपति तो अवश्य ही चाहिये ।
जिस प्रकार गृहस्थोंमें संघाधिपति होते हैं, उसी प्रकार साधुओं में भी संघाधिपति होना आवश्यक है, इसे कोई कोई आचार्य निर्ग्रन्थाचार्य, महंत, सूर, गुरु आदि अनेक नामोंसे पुकारते हैं । यद्यपि संघके सभी साधु निर्ग्रन्थ अड्डाबोस मूलगुणधारी होते हैं, तो भी भावोंकी विचित्र गति है ।
* पंच महाव्रत, समितिपण, आवश्यक पट् जान | इन्द्रिय दमन अरु भू शयन, सकृद्द्भुक्ति पान || अल्प असन लें स्वाद बिन, कर न दांतन पान । केश उखाड़े हाथसे, तजके अम्बर स्नान || आठवीस गुण मूल ये, कहे साधुके सार । उत्तर लख चौरासि हैं, देखो मूलाधार ॥ ( दीप )
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सोलहकारण बम । ।७७ क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी मांडकर ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ़ करके पीछे पर जाते हैं और अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन कालतक पुनः संसारमें भटकते फिरते हैं। फिर संघमें बाल ( तुरतके नवीन दीक्षित !, युवा (कुछ समयके दीक्षित ) और वृद्ध : बहुत समयके दीक्षित) सबल, निर्बल, स्वस्थ, अस्वस्थ रोगी थोडे पढ़े और विशेष पढे विद्वान, अनेक देशोंके,अनेक प्रकारको प्रकृतिके धारी साघु होते हैं। उनसे आहारविहार, समय प्रमादादि कितनेक कारणोंसे तपादि चारित्रमें दोष लग जाते हैं, गुप्ति भंग हो जाती है, कर्मके उदयसे अथवा अन्य कारणोंसे परस्परमें रागद्वेष आदि कषायें उत्पन्न हो जाती हैं संघका पक्ष पड़ जाता है, पठनपाठनमें शिथिलता हो जाती है, इत्यादि अनेक कारणोंसे धर्ममार्गमें रोड़ा अटक जानेका सन्देह रहता है ।
ऐसी अवस्थामें यदि संघमें कोई एक सुयोग्य, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका ज्ञाता, न्याय नीति और धर्मशारुका पारगामी, घीरवीर शांत स्वभावी, दर्शन ज्ञान चारित्र, तप और वीर्य ये पंचाचारपरायण, बाह्याभ्यंसर बारह प्रकार के तप, दशलक्षणरूप ( उत्तम क्षमादि) धर्ममें लवलीन मन वचन और काय इन तीनों गुप्तियोंका यथावत पालनेवाला, शत्रु मित्रमें, महल श्मशानमें कांच और मणिमें जीवन और मरणमें सममावी, संघपर प्रेम (वात्सल्य ) रखनेवाला, जिनाज्ञाका प्रवर्तक संसारपरिभ्रमण से भयभीत, षडावश्यकमें सावधान दीक्षा शिक्षा प्रायश्चित्त आदिका देनेवाला समस्त संघकी सम्हाल रखनेवाला, वैयावृत्यमें निपुण इत्यादि उत्तम गुणोंसे भूषित संधाषिपति अर्थात आचार्य न हो तो मार्ग बिगड जाय, धर्मकी प्रवृत्ति उठ जाय, अनेक प्रकारके उन्मार्ग फैल जांय इत्यादि बहुत अनर्थ
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सोलहकारण धर्म । उत्पन्न हो जाय इसलिये संघमें आचार्यका होना आवश्यक है।
ऐसे परम दिगम्बर संसार-समुद्रसे भव्य प्राणियोंको तारनेवाले जहाजके समान आप भी तरें औरोंको भी तारें, ऐसे श्री महामुनिराज आचार्य महाराजकी भक्ति, उपासना, स्तवन, कीर्तन (गुणानुवाद गाना ) इत्यादि करना, पूजा करना, अिर्ध उतारण करना, प्रत्यक्ष व परोक्ष वंदना नमस्कार करना, उनके द्वारा उपदेश किए हुए मार्गपर चलना, उनके निकट अपने किए हुए दोषोंको आलोचना करके प्रायश्चित लेना, उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना इत्यादि सो आचार्य भक्ति है।
गृहस्थाचार्य व राजादिक तो केवल इह लोक सम्बन्धी पथप्रदर्शक हैं परन्तु निन्याचार्य उभयलोक सम्बन्धी पथप्रदर्शक हैं ।
राजाको आज्ञा तो दण्ड नोतिके कारण येन केन प्रकारेण माननी ही पड़ती है, परन्तु आचार्य महाराज तो किसीपर बलात्कार आज्ञा नहीं करते हैं । निम्रन्थाचार्योंका प्रभाव तो उनके सम्माचारित्रसे ही पड़ता है । कारण आचार्य महाराज केवल दुरसे कहकर ही पंथ नही दिखाते किन्तु आप स्वयम् ही उसपर चलकर औरोंको दिखाते हैं।
संसारमें "पर उपदेश कुशल बहुतेरे । ये आचरहिं ते नर न बनेरे ॥" को उक्तिको चरितार्थ करनेवाले तो बहुत हैं। परन्तु दिगम्बराचार्योकी उपमाको तो केवल बे स्वयं ही धारण कर सकते हैं, उनको किसीको उपमा नहीं लगती, सात्पर्य-के अनुपम हैं।
असएव ऐसे आचार्योंकी पूजा भक्ति करना आवश्यक है। हीसे आचार्योंकी पूजा, भक्ति, उपासना, स्तवन, वन्दन करनेसे
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सोलहकारण धर्म |
[ ७९ सदाचारको प्रवृत्ति होती है, धर्म और धर्मोजनोंमें प्रेम बढ़ता है, ज्ञानानुभव होता है, घने दिनोंको शंकाओं और दुर्वासनामोंका नाश होता है, इत्यादि अनेक लाभ होते हैं। इसलिये अपना बादर्श ऐसे हो महामुनियों आचायोंको बनाना चाहिये । जैसे गुरु वंसा हो ना, "यथा राजा तथा प्रज्ञा " होता है। कहा है- " गुरु कीजिये जान, पानी पोजे छान
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यदि शंका करो कि इस काल में तो ऐसे गुरु हैं ही नहीं तत्र क्या बिना गुरु निमुरे हो बने रहें? जैसा मिले वैसा हो गुरु बनाकर अमात्यको प्रवृत्ति क्यों न करें ? तो उत्तर यह
कि भूख भोजनसे हो मिटतो है । कहीं भोजनके अभाव में ईंट पत्थर नहीं खाया जा सकता है । यदि ईट पत्थर या विवादिक खाया जायगा, तो शोघ्र हो मरण हो जायगा । इसलिये यदि सच्चा गुरु न मिले तो पूर्वकालमें हो गये, जो श्री कुन्दकुन्दादि महामुनि तिनहोके आदर्श चरित्रोंका ध्यान करो, स्तवन चन्दन करो, उन्हें ही आदर्श बनाये रहो ।
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नितुरे तो जब कावांगे जब कि गुरुको न मानोंगे, परन्तु तुम्हारे जंते परम ताखो नित्य जानो सपथदर्शी गुह ता कदाचित हो किलोको मिलेंगे, तब क्या ऐसे गुदमोंके स्वानमें स्वार्थान्ध, अशानों विषयों, कषायी पुरुषों को पूजता चाहिये ? नहीं नहीं, कभी नहीं पूजना चाहिये । हमारे गुरु वे ही कुन्दकुन्दस्वामी हैं. गौतम गणेश है सुब स्वामी हैं इत्यादि । हमें उन्हीं की उपासना करना चाहिये। वर्तमान कालमें उनका अभाव होनेसे उनके उपदेश से हो लाभ लेना चाहिये. उनके द्वारा रचित ग्रन्थोंसे लाभ लेना चाहिये और परोक्ष विनयभक्ति करता चाहिये, उनको छवि उतारकर साम्हने रखना चाहिये, यहाँ
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सोलहकारण धर्म । आचार्य भक्ति है, जो कल्याणकारी है। ऐसे आचार्यभक्ति नाम भावनाका स्वरूप कहा, सो ही कहा हैदेवत्त हैं उपदेश अनेक सु, आप सदा परमारथ धारी । देश विदेश विहार करें, दश धर्म धरें मव पार उतारी || दीक्षा शिक्षा देत दयाकर, मुनिवर गुण छत्तीसके धारी। ज्ञान कहे भवसागर नाव, नमु आचार्य त्रियोग सम्हाणी |
॥ इति आचार्यभक्ति भावना ॥ ११ ॥
(१२) बहुश्रुतभक्ति भावना।
बहन तभक्ति भावना- अर्थात् उपाध्याय महाराजकी पूजा उपासना करना । उपाध्याय उन महामुनियोंको कहते है, जिनको सम्पूर्ण द्वादशांग वाणीका पूर्ण ज्ञान हो, इन्हें ही बहुध त या तके वली कहते हैं। ये स्वयम् आचार्य महाराजके पास बैठकर पढ़ते, तत्वचर्चा करते है और आचार्य महाराजको आज्ञा प्रमाण अन्य शिष्यगणोंको पढ़ाते हैं, इसलिये इन्हें पाटक भी कहते हैं । यद्यपि आचार्य से विद्यामें ये कुछ न्यून नहीं होते हैं, तो भी संघकी मर्यादानुसार संघके एक ही संघाधिपत्ति होते हैं । आचार्य में और उपाध्यायमे केवल इतना ही मेद है कि भाचार्य तो संघका नायक समझा जाता है, और
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सोलहकारण धर्म । संघमें उसकी आज्ञाकी प्रवृत्ति चलती है, वह दीक्षा शिक्षा व प्रायश्चित्तादि देनेका अधिकारी होता है, और उपाध्यायको ये अधिकार नहीं होते है।
संघमें आचार्य तो एक ही होते हैं. परन्तु उपाध्याय तो बहुन भी रहते हैं । विद्या मानाने समान होते हुए भी मर्यादाका उलंघन न करके आचार्यको आज्ञाप्रमाण ही चलते हैं। ओर अब अपनो सामर्थ्य और परिणामोंकी बढ़ता देखते हैं, तो आचार्यको आज्ञा लेकर अन्य संघमें भी जाते हैं, और एकलविहारो भी हो जाते हैं। मूलगुणोंमें तो सर्व संघके मुनिजनोंको समानता ही होती है किन्तु कषायोंके असंख्यात स्थानों के अनुसार उतम गुणोंम अन्तर हो सकता है ।
ऐसे ओ परम दिगम्बर ज्ञानसागरके पारदर्शी श्री उपाध्याय महाराजको भक्ति पूजा, नमस्कार, गुणानुवाद करनेसे शुद्ध आत्मज्ञावको प्राप्ति होतो है; भक्ति धडा. नम्रतादि गुणोंको प्राप्ति होती है इसलिये सदा मन वचन और कायसे धी उपाध्याय प्रमूका भक्ति उपासना करता चाहिये । इस प्रकाय बहुश्रु तभक्ति नाम भावनाका स्वरूप कहा ।
जैसा कि कहा हैद्वादरा अंग उपांग जिनागम, ताकि निरंतर भक्ति काये। वेद अनूपम चार कहे तम, अयं भले मनमाहि ठराये ॥ पढ़ो धर भाव लिखो सु लिखायो,करोश्रुत भक्ति मुपूज्य रचाये। ज्ञान कहे इस भांति करे जिन,आराम भक्ति सपुण्य उपाये ॥१२॥
इति बहुश्रतभक्ति भावना ।
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सोलहकारण धर्म । (१३) प्रवचनक्ति भावना।
प्रवचनभक्ति-अपात जिनागम (जिनेन्द्र भगवानका कहा हा धर्म-जिनवाणो) का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार, भक्ति उपासना, पूजा, स्तवनादि करना । जब कोई भव्य जीव सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सपा सम्पचारित्रके बलसे जानावर णादि धार धातिया कर्मोको नाश करके फेवलज्ञानको प्राप्त होता है। और अपने अनंतज्ञान तथा दर्शनसे जाने और देने हुए पदार्थोफा यथावत स्वरूप अपनी निरक्षरीकाणी (दिव्यध्वनि) द्वारा संसारी प्राणियोंके कल्याणार्थ कहता अर्थात् उपदेषा करता है, उनको वह अनवारी वाणी मेघगर्जनाके समान दिनमें तीन वार और मध्यरात्रिको एकवार ऐसे वारवार छ: छः घड़ी तक खिरती है । उसी वाणीको लेकर गणघर .(गणेवा या गणपति) आदि चार शानके शरी मुनीन्द्र (१) आचारांम, (२) सूत्रकृतांप, (३) स्थानांग, (४) समयावांग, (५) व्याख्याप्राप्ति, (६) ज्ञातृकयांग, (७) उपासकाध्ययनांग, (८) अंतकृद्दशांग, (२) अनुत्तरोपदाशांग, (१०) प्रश्नव्याकरणांग, (११) सूत्रविपाक, (१२) दृष्टिप्रवादांग ( इसी बारहवें अंगके १४ पूर्वरूप भेव होते हैं ) इस प्रकार भेदाभेदपूर्वक द्वादशांगरूप कपन करते हैं।
फिर परम्पराचार्य ठीक ज्ञानी जीवोंके सम्बोषनाथं भेद प्रभेद रूपसे सूत्र, गाथा, टीका, टिप्पणी सहित रचकर प्रकापित करते हैं। इसे ही जिनवाणी व जिनागम व प्रवचन आदि कहते हैं। पूर्वकालमें जब श्य, कोष, काम भावोंकी भनुकुलता थी, तब इस क्षेपमें अनेक दिगम्बर मुनियोंके संग
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सोनकारण पम ।
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यत्र तत्र धर्मोपदेश करते हुए विचरते थे, परन्तु कालदोषसे अब दिगम्बर साधुओं का सम्प्रदाय दृष्टिगोचर नहीं होता है, इसलिये धर्मकी परम्परा पूर्वाचार्य के द्वारा रचित ग्रन्थोंके आधारसे ही चलती है ।
श्री महावीरस्वामीके मोक्ष जानेके बाद गौतमस्वामी, सुधर्मस्वामी और जम्बूस्वामी ये तीन केवली और विष्णुनंदि, मित्र, अपराजित, गोवर्बन और भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेदली हुए। उसके बाद दिनोंदिन ज्ञानका विच्छेद होने लगा, तब जो दिगम्बर ऋषि उस समय इस क्षेत्रको अपने चरण-रजसे पवित्र करते थे, उन्होंने विचारा कि कालदोषसे दिनों दिन ज्ञानको न्यूनता होती जाती है इसलिये यदि कुछ समय और भी गया, तो सत्य धर्मका सर्वथा लोप हो जायगा और इस परम पवित्र सर्वके (कल्याणकारी जैन धर्मको लोग अपनी अपनी कषाय बुद्धि अनुसार दूषित करके प्राणियोंको उन्मार्गमें फंसायेंगे इत्यादि, ऐसा समझकर उन परमदयालु महामुनियोंने ग्रन्थोंकी लेखन रूप क्रिया पश्चात् उन्हींका आधार लेकर पीछे बहुत से ग्रन्थोंकी रचना की ।
इसलिये जो महानुभाव इन पवित्र ग्रन्योंको मन वचन काय से भक्ति और श्रद्धापूर्वक अर्थ उतारण कर पढ़ते हैं, दूसरोंको पढ़ाते हैं, दूसरोंसे सुनते हैं, और दूसरोंको सुनाते हैं, वे ही सच्चे कल्याणके मार्गको प्राप्त होते हैं वे 'सम्यग्दर्शनको प्राप्त होकर सम्यक्ज्ञानको प्राप्त होते हैं, फिर सम्यक्चारित्रको धारण करके अविनाशी पद (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं ।
१ - शास्त्रोत्पत्तिका विशेष वर्णन श्रसावतार कथामें देखो २- देखो सर्वधर्म चार्ट नं० २
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सोलहकारण धर्म । इस प्रकार श्रु तभक्ति या प्रवचन भक्ति नाम भावनाका स्वरूप कहा । जैसा कहा भी हैआगम चंद पुराण पदावत, साहित्य तर्क वितर्क पखाणे । काव्य कथा नव नाटक अंक सु. ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाणे ऐसे बहुश्रुत साधु नम्जो , द्वादश अग सर्व पढ़ जाने। ज्ञान कहे नस पाय नमश्रत पार गये मन गर्वन आनं१२॥
इति बहू तभक्ति भावना।
(१) आवश्यकापरिहाणि भावना।
आवश्यकापरिहाणि- अर्थात् सामायिक, वंदन, स्तवन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छः नित्यावश्यक क्रियाओंमें हानि ( शिथिलता ) नहीं करना । आवश्यक अर्थात् नियत कृत्य । जरूरी काम ) को कहते हैं, उक्त छः कृत्य इसलिये आवश्यक नियत । हैं कि इनसे आत्माको शुद्धि होती हैं, कर्माश्रवके द्वार रागद्वेष कम होते हैं, सात्विकता प्राप्त होती है, पापोंसे भय होता है, पुण्यकी वृद्धि होती है, प्रमाद तथा विषयकषायोंके द्वारा लगे हुए दोषोंका निराकरण होता है । इत्यादि ऐसे अनेकों लाभ होते हैं। इसलिये इनको नित्य प्रति करना चाहिये ।
इनमें प्रथम ही सामायिक कहा है । सामायिकसे समता
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सोलहकारण धर्म ।
[८५ भायोंकी प्राप्ति होती है । इसमें मन, वचन, कायकी शुभाशुभ प्रवृत्तिको रोककर शत्रु, मित्र, महल, मशान, मणि कांच, तृण, कंचन, सुख दुःख, जीवन मरण, स्वजन परजन, रंक 'श्रोमान्. राजा प्रजा इत्यादिमें रागद्वेष रहित समभाव धारण करना । अर्थात् यह विचार करना कि मैं इन सब पदार्थोसे भिल सच्चिदानंद स्वरूप अखंड एक अविनाशी चैतन्य आत्मा स्वयंभू हूँ, और यह जो कुछ दृष्टिगोचर होता है; सो सब मोहष्टिसे ही इष्टानिष्ट स्वरूप भासता है. इसमें मेरा कुछ भी नहीं । यह तो केवल पौद्गलिक विकार हैं, इससे मेरा अनादि कालसे संयोग सम्बन्ध हो रहा है। साइशर सम्बंग नहीं है। क्योंकि ये सब मुझसे भिन्न हैं । और तो क्या, या शरीर भी (जिससे मैं वतमानमें मिल रहा ह') मेरा नहीं है, तो फिर अन्य पदार्थ तो प्रत्यक्ष भिन्न ही हैं। सो इनमें रागद्वेष करके मैं अपने सच्चिदानंद स्वरूप आत्माको क्यों दुखी करू ? इत्यादि वैराग्य भावों के द्वारा साम्यभाव धारण करता है, यही सामायिक है। इससे आस्रवका द्वार बन्द हो जाता है अर्थात् संवर होता है 1 क्योंकि मन वचन कायकी क्रिया
आसे हो कर्मका आस्रव होला है। आस्रव अर्थात् योगोंको "प्रवृत्तिका रुकना सो ही संवर कहाता है।
(२)-स्तवन-चतुर्विशत् तीर्थंकरों व पंचपरमेष्ठीके गुणानुवाद गाना अर्थात् उनके गुणोंको स्मरण करके प्रशंसा-स्तुति करना, सो स्तवन है। जैसे स्वयंभु सहस्त्रनामादि स्तोत्रका सार्थ मनन करना । . (३)-वंदन-किसी एक तीर्थकर अथवा एक परमेष्ठीको स्तुति भक्ति वंदनादि करना सो वंदन है। जैसे मक्तामर महावीराष्टक पार्श्वनाथस्तोत्रादि सार्थ (अर्थ समझ समझकर)
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८६] सोलहकारण धर्म । मनन करना ! इससे यह अभिप्राय नहीं है कि अमुक कविका बनाया हुआ अमुक स्तों ही पढ़ा जाय, किन्तु उक्त आशयको लिये हुए कोई भी स्तोत्र किसीका किया हुआ, भाषाम हो १ संस्कृत प्राकृत ( जो भलीभांति समझमें आवे ) चाहे स्वयम् भक्तिवश रचकर तैयार किया हो सो पढ़कर शिरोनति नमस्कार आदि क्रिया करना ।
(४)-प्रतिक्रमण-अपने मन, वचन, कायमें तथा कृत फारित अनुमोदनासे भूतकालमें किये हुए पापों अर्थात् प्रमादादि कषायके कारण लगे हुए दोषोंका स्मरण करके, स्वात्म निंदा करते हुए, उन दोषोके परिहारार्थ, अपने गुरुके निकट अथवा गुरुके अभावमें जिन प्रतिमाके सन्मुख अथवा किसी एकान्त स्थानमें बैठकर आलोचना करे और उनके झूठे होने अर्थ यथोचित प्रायश्चित्त लेवे, 'ताकि किये हुए पापोंसे निवृत्ति मिले-निराकुलता हो । इसे ही प्रतिक्रमण कहते हैं ।।
(५) प्रत्याख्यान भविष्य में यमरूप ( यावज्जीव ) अथवा नियमरूप ( कुछ कालको मर्यादा लिये हुए ) से पापक्रियाओंका त्याग करे, अर्थात् आगामी उनके न करनेकी प्रतिज्ञा करे, ताकि मन और इन्द्रियां वशमें हों इसे प्रत्याख्यान कहते हैं।
(६)-कायोत्सर्ग--शरोरसे ममत्व भावका त्याग कर मनको सब ओरसे रोककर किसी एक स्थानमें अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें अथवा पंचपरमेष्ठीके गुण चितवनमें लगाना, सो जहांतक हो परपदार्थोसे भिन्न अपने आत्मामें ही स्थिर करना इसे शुक्लध्यान कहते हैं। यदि इतता न हो सके तो तत्त्व चितवन या जिनेन्द्र गुण स्तवन आदिमें लगावे, (इसे *धर्मध्यान कहते हैं ) और ध्यानके समयमें आये हुए उपसर्ग तथा परी
* घ्यानका विशेष स्वरूप 'ज्ञानार्णव ' ग्रन्थमें देखो।
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[ ८७...
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सोलहकारण धर्म । षहादिकोंसे विलित न होवे, किन्तु उन्हें स्वकृत कर्मजनित उपाधि जानकर स्थिर रहें. मन, वचन कायको चलायमान न होने देवे, इसे कायोत्सर्ग कहते हैं ।
इस प्रकारसे ये छः आवश्यक स्वशक्ति अनुसार गृहस्थ व साधुको नित्य प्रति करना चाहिये ।
गृहस्थके लिये देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छ: कर्म भी कहे हैं, जो कि यथाशक्ति नित्यप्रति करना आवश्यक हैं । ये छ: ऊपरकी भावनाओंमें गर्भित हो चुके हैं इसलिये यहां पृथक करके विशेष नहीं कहे हैं। जैसे देवपूजा अर्हद्भक्ति में, गुरुसेवा आचार्य व बहुश्रुत भक्तिमें, तप तपभावनामें, दान त्यागभावनामें आ चुका है। संयम पांचों इन्द्रियों और मनको विषयोंसे रोककर वश करना, तथा सः कायके जीवोंकी मन वचन कायसे हिंसा नहीं करना, और स्वाध्याय-आत्मज्ञानको बढ़ानेवाले तथा पापादि क्रियाओंसे विरक्त करनेवाले सच्छात्रोंका :( अन्योंका) पढ़ना, पढ़ाना, मनन करना, धारण करना और उपदेश करना। इस प्रकारसे ये षडावश्यक भी नित्यप्रति पालन करना चाहिये और अन्यान्य पालन करनेवाले साधर्मीजननोंमें भक्ति व प्रेम करना चाहिये । अर्घ उतरन करना चाहिये । इस प्रकार आवश्यकापरिहाणि भावः नाका स्वरूप कहा ! सो ही कहा हैभाव धरे समता सब जीवसे, पाठ पढ़े स्तुति मनहारी । चंदन देव करे स्वाध्याय, सदा मन साथजु पंच प्रकारी॥ तीनहु काल करे प्रतिक्रमण, ध्यान करे तन ममत निधारी। शान कहे धन वे सुनिराज,करे जु अवश्य त्रियोग समारी॥
॥ इति आवश्यकापरिहाणि भावना ॥
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सन्न
सोलहकारण धर्म ।
(१५) मागंप्रमावना भावना।
मार्गप्रभावना- सपा सभ्यः ला सामोशमा (जिनधर्म ) का प्रकाश जिस प्रकार सर्वत्र प्रसरित हो सके उस प्रकार उसे सर्वसाधारणमें फैला देना । ऐसा ही स्वामी समंतभद्राचार्य ने कहा है
अज्ञानतिमिरव्याप्तिपपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ॥१८॥
( रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थात् --जिस समय अज्ञानतिमिर ( मिथ्या मतोंका प्रचार) चहुँ ओर व्याप्त हो रहा हो, और पवित्र जैनधर्मका अभावसा हो रहा हो, उस समय जिस प्रकारसे हो सके वैसे जैनधर्मका माहात्म्य प्रकाशित कर देना सो ही प्रभावना है ।
प्रभावनासे अर्थात जैनधर्मके प्रचारसे अपनी आत्मामें उदारता बढ़ती है । प्रभावनासे केवल जैनधर्मकी प्रशंसा करा लेनेका अभिप्राय नहीं है, क्योंकि जब किसो पदाथकी भलाई था बुराई सर्वोपरी प्रगट हो जाती है, तब स्तुति किंवा निंदा तो स्वयमेव होती ही है । इसलिये प्रशंसामात्र प्राप्त कर लेनेसे ही कुछ लाभ नहीं है, और न जैनानुयायो जीवोंको संख्या ही बढ़ा लेनेके हो विचारसे प्रभावना करने की आवश्यकता है। किन्तु प्रभावना इसलिये करना चाहिये, ताकि विचारे संसारके दोन प्राणी जो चतुर्गतिमें भ्रमण कर जन्म मरण आदिक अनेको भव सम्बन्धी दुःखोंको भोग रहे हैं और मोहवश परपदार्थोमें अपनत्व धारण कर निज स्वरूपको भूले हुए हैं। वे पवित्र जनधर्मके प्रभावसे स्वरूपका श्रद्धान कर, रत्नत्रय स्वयमू
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सोलइकारण धर्म ।
__ _! ... मोनमार्गको ग्रहण कर अपना कल्याण करें। अर्थात् समस्त
संसारमेंसम्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोई, किटेषु जोवेषु कुमपरन्वं । माध्यस्थ भावं विपरीतत्तो, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
(अमितगति आचार्यकृत सामायिकपाठ ) ---का नकारा सब ओर बजने लगे ताकि पंसारके सभी प्राणो निर्माण हुए सुखसे काल व्यतीत करें । अर्थात् सब जोवमात्र परस्पर मित्रवत् प्रेमभावसे रहे, असे गुगवान पुरुषोंमें विनय और प्रमोदभावको धारण करें और उनके गुणोंका अनुकरण करें, न कि डाह (ईपी) । दीन दुखो असहाय जोवोंपर करुणा ( दया ) भाव रख, और जो विपरोत मार्गावलम्बो हैं, और जिनको सन्मार्गका उपदेश करनेसे वे उल्टे कलुषित होते हैं, ऐसे जोवाम क्रोधादि भाव न करके माध्यस्थ भाव धारण करने लमें, इत्यादि भाव सब जोवों में भले ग्कार फैल जायगे तो स्वयमत्र परसरका द्वेषभाव मिट जावेगा, परस्पर एक दूसरेके मित्रवत् सहायक हो जायगे । इस लोक सम्बन्धी सुख ( धनादि ) को भी वृद्धि होगी, और परलोकमें भी कषायोंको मंदतासे देवगति आदि उत्तम गतिको प्राप्त होंगे तथा अनुकमसे निर्वाण पद भो प्राप्त होगा । तालय कहनेका यही है कि जैनधर्मका प्रचार (प्रभाधना) समस्त प्राणियोंके लिये ही उदार भावांसे करना चाहिये ।
प्रभावना-द्रन्य क्षेत्र, काल और भावोंके अनुसार भिन्नर रीतियोंसे होती है अर्थात विद्वान् पुरुष तो तत्वचर्षासे प्रसन होते हैं- उन्हें न्याय व युक्तिपूर्वक प्रमाण, नय. इत्यादिके द्वारा
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९० ] . सोलहकारण धर्म । पदार्थका स्वरूप समझा देनेसे ही वे असत पक्षको छोडकर सन्मार्ग पर आ जाते हैं । और एक ही विद्वानके सन्मार्ग पर आनेसे उसके अनुयायी भी प्रायः सन्मार्गमें लग जाते हैं । क्योंकि वह विद्वान अपने अनुयायियों को किस प्रकार समझाना चाहिये, यह भलीभांति जानता है। इसलिए उसके समझने पर वह अपने अनुयायियोंको भी अनेक युक्तियों द्वारा समझा कर सन्मागमें लगा सकता है । ऐसा ही पूर्वकालमें हमारे ऋषियोंने किया है।
जैन अग्नवाल व हुमड़ जातियोंके इतिहाससे विदित होता है कि लोहाचार्य, जिनसेनाचार्य आदि महामुनियोंने अपने उपदेशसे लाखों मनुष्योंको हिसादि पापोंसे हुड़ाकर जैनी बनाया था । इसलिये सबसे उत्तम और प्रथम उपाय तो प्रभावनाका यही है कि अच्छे २ विद्वान द्रव्य क्षेत्र काल और भावके ज्ञाता, धर्मके मर्मज्ञ, सदाचारी, अनुभवी, उदार, सन्तोषी और मंदकषायी इत्यादि सद्गुणी उपदेशकों द्वारा शहरोंशहर, ग्रामोंग्राम और देशोदेशमें हरसमय दौरा कराकर उपदेश करावें | और इन उपदेशकोंको निराकुल करके उपदेश करने भेजे ताकि वे किसीसे कुछ भी याचना न करे। क्योंकि " लोम पापका बाप बखाना" जहां किसीसे इन उपदेशकोंने कुछ भी याचना की, कि फिर उपदेशका महत्व उनपर नहीं पड सकता है, वे उपदेशकोंको तुच्छ ( भिक्षुककी) दृष्टि से देखने लगते हैं, और डरने लगते हैं, कि कहीं ये कुछ मांग तो न बैठेंगे इत्यादि ।
क्योंकि यथार्थमें यह कार्य पूर्वकालमें अधिकतर प्रायः मुनियोंके ही द्वारा होता था। वे महा तपस्वी निरपेक्ष धीर धीर स्वयम् अपने घरकी अतुल सम्पत्ति (राज्यादि विभव ) छोडकर अपने आत्माके कल्याणार्थ ही समस्त परिग्रहसे ममस्व रहित हए, एकवार खड़े खड़े करपारमें ही स्वाद रहित अल्प भोजन
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सोलहकारण धर्म । (जो कि: प्राय वा का मामला अक्ति, राह दिया बाय) करते हुए देश देशांतरोंमें भ्रमण करके जीवोंके कल्याणार्थ उपदेश करते थे । धे केवल उपदेश नहीं करते थे किन्तु उपदिष्ट मार्गपर चलकर दिखाते थे । उनका उपदेश निरपेक्ष बृद्धिसे सब जीवोंके लिये समानतासे होता था। वे पात्रका विचार कर उसके योग्य ही उपदेश देते थे, किसीसे उन्हें ग्लानि न होती थी। उन्होने दुर्गन्धादि, चाण्डालों व पशुओं तकको उपदेश देकर सम्यक्त्व अंगीकार कराया, तथा वतादि देकर उनको सन्मार्गमें लगाया है । यही कारण था, कि उनका प्रभाव सिंह व्याघ्रादि जैसे हिंसक प्राणियोंपर भी पड़ता था जिससे कि वे कर प्राणी उनके दर्शन मात्रसे ही करता छोड देते थे।
यद्यपि आजकल हमारे अशुभोदयसे उनका अभाव है तो भी सद्गृहस्थोंद्वारा यह कार्य अवश्य किसी अंशमें सफल हो सकता है । वर्तमान समयमें उपदेशकोंकी बहुत ही आवश्यकता है। देखो, इन अर्वाचीन क्रिश्चियन आदिके मतोंका प्रचार उपदेशकों के ही द्वारा इतना बढ़ गया है, कि वर्तमान संसारमें प्रायः सब जगह करोडों ईसाई बढ़ते जाते हैं। क्योंकि आजकल उनके लाखों उपदेशक यत्रतत्र विचरते हैं । और वे हर प्रकारसे लोगोंकी सहायता करते तथा उपदेशादि देते हैं ।
दूसरा उपाय प्रभावनाका यह है कि जैनधर्मके ग्रंथोंका. प्रचार करना। प्रत्येक विषयक लेख, ट्रेक्ट रूपसे छपाकर सर्वसाधारणमें बंटवाना चाहिये । पुस्तकालय, वाचनालय और विद्यालय खोलना चाहिये, समाचारपत्रों में प्रभावक लोगोंके । द्वारा लेखोंको लिखवाकर प्रकाशित करना चाहिये । प्राचीन ग्रन्योंका संरक्षण, पठनपाठन तथा प्रकापान होना पाहिये । तथा
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सोमहकारण धर्म । वे ग्रंथ अल्प गभर मा निमा मू: पारम जन हो । अजैन सबके पास तक पहुचाना चाहिये । अन्य सुन्दर मजबूत कागजोंपर बड़े टाईपमें छाकर सजिल्द, विद्वानों द्वारा संशोधित होकर प्रकाशित होना चाहिये ।
तोसरा आय-यह है कि यथा अवसोंपर समय समय बड़े बड़े सम्मेलन करके विद्वानोंके विद्वत्तापूर्ण धार्मिक, सामाजिक और नैतिक उन्नतिविधायक व्याख्यान कराना चाहिये । और ऐसे अवसरोंपर अन्यमती घिद्वानों द्वारा की हुई जैनधर्मपर शंकाओंका भी निराकरण करना चाहिये ।
चौथा उपाय-संघ निकालना, अर्थात् तीर्थादि पर्यटन के 'लिये बहुत जनसमुदाय सहित निकलना । संवमें संयमो व्रती विद्वान, पंडित, तथा उदारवृत्तिके धारी सच्चरित्र त्यागी पुरुषरह, इसलिये स्थान स्थानपर जहां जाना वहां उनके व्याख्यान कराना, ताकि उनकी विद्या और चारित्रका प्रभाव जनसाधारण पर पड़े।
पांचवा उपाय-प्राचीन जैनमंदिरोंका जीर्णोद्धार कराकर अथवा यदि जिस स्थानमें जैनमंदिर न हो. और जिन दर्शना• मिलाषी जनों ( श्रावकों) की संख्या यथोचित हो, और वहांपर पुजन प्रक्षाल आदिका प्रबन्ध भो यथोचित चल सके, तो उस क्षेत्रको आवश्यकताके अनुसार जैन मंदिर बनवाकर उसको प्रतिष्ठा करवाना, और जिन भगवानके पञ्च कल्याणकोंका उत्सव कराकर सर्वोपरि जैनधर्मका प्रभाव फैलाना, पञ्चकल्या. णकका भाव अच्छी तरह सबको दिखाना, ताकि लोग यह समझ जाय, कि ऐसे तीर्थकर सहश महान् पुण्यात्मा कि जिनके गर्भंजन्मादिके समय देवोंने रत्न वर्षाये, अनेक उत्सव किये,
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सोलहकारण धर्म । जिनके सेवक देव और देवेन्द्र विद्यापर और बड़े. राधा महाराजा थे, सो भी तीन लोककी विभूतिको तृपयन् निःसार समझकर छोड गये, उन्हें मृत्यु और जामसे मय हो गया, वे भी कर्मके यंघनसे डर गये, इसलिये जिन दीक्षा ग्रहण कर आप तो संसारसे परे हो ही गये और हम लोगोंको भी कल्याणका मार्ग बता गये हैं। सो जब कि मौसने उन्हें भी नहीं छोड़ा, कर्म उनके पीछे भी लगा रहा कि जिसके लिये उन्हें यह लोकको विभूति विनाशीक जानकर छोड़ना पड़ो, तो भला हम दीन, शक्तिक्षीण. पुण्यहीन बनोंकी तो गिनती ही क्या है ?
अवश्य ही एक दिन हमको काल कवलित कर जाधेगा. और यह समस्त परिग्रह पुत्र कलत्र गृह घन पान्यादि यही पड़ा रह जायेगा. केवल स्वकृत पाप व पुण्यकर्म ही साथ जागे । यह शरीर भी गल सड़कर ढेर हो जावेगा, इसलिये हमको भी जो मार्ग प्रभ दिखा गये हैं, उसी सत् पयमें लगपर अपना कल्याण करना चाहिये इत्यादि २ ।
सो ऐसे अवसरोंपर भी संयमी, व्रती, उदासीन, त्यागी विद्वानोका समागम अवश्य मिलाना चाहिये । तथा उनसे व्याख्यान और तत्वचर्चा खूप होना चाहिये । उत्तमोत्तम तत्वोपदेशी भजनपद गाना, भक्तिवश जिन भगवानके सामने नृत्य भजन संगीत स्तवनादि करना, पूजा करना, बड़े बड़े प्रेसठ शलाकादि पुरुषोंके जीवन-चरित्र लोगोंको सुनाना, इत्यादि अनेक प्रकारसे प्रभावना करना चाहिये । यथार्थमें मंदिरादि बिम्बप्रतिष्ठाओंका यही अभिप्राय है, न कि ज्यों त्यों करके मंदिरोंकी संख्या बढ़ाते चले जाना ।
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सोलहकारण धर्म ।
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छठवां उपाय - जैनियोंकी ओरसे सर्वसाधारणके हितार्थ उदारतापूर्वक जैन धर्मशालायें, श्राश्राश्रम, अमायालय, विद्यालय, उद्योगशाला, गुरुकुल, ब्रह्मचर्याश्रम, पुत्रीशालायें, गौशाला, 'पांजरापोल आदि जीवदया प्रचारक संस्थायें खोली जाय और समान प्रकारसे सबको लाभ पहुंचाया जाय । प्रत्येक संस्थाम कुछ समय धर्मशिक्षाका आवश्यक रीतिसे नियत रहे, और सुयोग्य विद्वानों द्वारा शिक्षा दिलाई जाय । इस प्रकार चतुविधि दानकी प्रवृत्ति की जाय ।
सातवां उपाय - कुछ तीक्ष्ण बुद्धि विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियां देकर बड़े बड़े विद्यालयोंमें, कारखानोंमें तथा विदेशों में भेजकर विद्वान किये जांय, ताकि वे काम सीखकर आयें और अपनी अनुभवित विद्या और बुद्धि द्वारा समस्त देशवासियों को लाभ पहुंचायें जिससे हिंसक लोगों द्वारा बनाया जानेवाला विदेशी माल, तथा हिंसा करके तैयार किया गया विदेशी माल हमारे देश में आनेसे रुके ।
जैसे परदेशी व विदेशी अशुद्ध खांड और अशुद्ध दवाइयां आदि । और इनके बदले अपने देशकी की बुनी ( हाथकी ) शुद्ध खादी, वलिया बनारस वक्सर आदिकी शुद्ध खांड व स्वदेशी शुद्ध प्रासुक औषधियां ही उपयोग में लाई जाव और हिसाकी माता- इन मिलोंके बने चर्बीसे सने सूती व रेशमी ( जोकि चौइन्द्री असंख्यात कीडोंको मारकर ही बनता है ) के वस्त्र पहिरना सर्वथा रुक जाय । इससे मुख्य बात तो यह होगी कि हिंसा बंद होगी और दूसरी बात यह होगी कि देशके धनको रक्षा होगी, गरीबोंकी आजीविका चलेगी । हिंसकों की आय कम होनेसे करोड़ों निर्दोष गाय, भैंसे बकरे आदि पशु न मारे जायगे, घी दूष आदि खानेको मिलेगा, सुखसे खेती
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सोलहकारण धर्म । होगी, सर्वच शांति धर्मका प्रकाश फैलेगा, अहिंसाका डंका बजेगा और निविघ्न' धर्मपालन हो सकेगा इसलिये शुद्ध स्वदेशी खादी, खांड, औषधियोंका प्रचार करना और विदेशी वस्तुऔका प्रचार बन्द करना ।
जिन मंदिशोंमेंसे विदेशी वन व अन्य रेशम आदिके अपवित्र पदार्थ निकाल कर शुख स्वदेशी खादी आदि ही काम में लेना। इत्यादि । यही सप्त क्षेत्र प्रभावनाके हैं तात्पर्य यह है कि जिस तरह बने उस तरहसे जैन धर्मका प्रचार करना यही प्रभावना है । इसप्रकार प्रभावनांगका स्वरूप कहा ।
जैसा कि कहा हैबहु दान करें परमायको, शिवाय महोत्सव काणे। भक्ति करें बहु गाय बजाय, सुनृत्य करें जिय शास्त्र वखाणं ॥ संघ बुलाप सुतीर्थ करें, उपदेश कराय मिथ्यातको हाने । ज्ञान कहे जिन मार्ग प्रभावन,विरले हि पुण्य पुरुष मन आने ॥
इति मार्गप्रभावना भावना ॥ १५ ॥
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सोलहकारण धम |
(१६) प्रवचनवात्सल्य भावना ।
प्रवचन वात्सल्य - अर्थात् साधर्मी तथा प्राणीमात्र में निष्कपट भावसे प्रेम करना और सदा उनकी भलाई चाहना यथाशक्ति आदर सत्कार करना इत्यादि । ऐसा ही स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा है-
स्वयुध्यान् प्रति सद्भाव सनाथापे केतवा | प्रतिपत्तिर्यथायोग्यम् बाल्यलिप्यते ।। १०
( रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १ )
अपने सहधर्मीजनों (मुनि अजिंका श्रावक श्राविकाओं ) के प्रति उत्तम भावोंसे छलकपट रहित यथायोग्य आदरसत्कार करना भक्ति तथा प्रेम प्रदर्शित करना सो वात्सल्य अंग है । अर्थात् मन तथा आर्थिका तो अपने आप कल्याणके मार्ग में गमन करके औगेको भी मार्ग दिखाते हैं। उनका आदरसत्कार तो केवल इतना ही है कि जब वे अपने रत्नत्रय के साधनभूत शरीर की रक्षार्थ आहार के लिये बिहार करते हुए आवें तो उन्हें नवधा भक्ति करके शुद्ध प्रासुक निर्दोष ( छयालिस दोष रहित आहार देना, कमण्डलुमें अष्ट महरकी मर्यादावाला प्रासुक जल भर देना, शौचोपकरण ( कमण्डलु ), संयमोपकरण ( पीछी) और ज्ञानोपकरण ( शास्त्र पुस्तकादि ) आवश्यकतानुसार भेट करना अथवा आयिकाजीको यदि आवश्यक हो तो एक सफेद मोटे कपड़े खादी ) की साड़ी भेट कर देना । यदि मुनि व आर्यिकाके शरीरमें कोई बात पित्त वफादि विकारजनित पीज़ मालूम पड़े तो भोजन के समय
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शत प्रामुक उनके योग्य औषधि पथ्यार देना, उनकी विनय तपा वैयावत करना और उनके द्वारा किये हुए उपदेशको ध्यानपूर्वक सुनकर धारण करना, इत्यादि । यही उनका आवर सत्कार है ।
कुछ उन्हें रुपया मुहर वयाभूषण आदि पदार्थ तो चाहिये हो नहीं । उन्हें तो केवल संयम साधनार्थ आयुके अन्त तक शरीरको सरस व नीरस भोजन देकर रक्षा करना है। इसलिये भक्तिसह उनका उनके पपके अनुसार ही सत्कार करना चाहिये क्योंकि धर्मात्माके कारण ही धर्मकी प्रवृत्ति होती है। सो यदि मुम्मादिका सत्कार न करी तो वह मार्ग बंद हो जाता, फिर कोई मुनिव्रत धारण ही न करेगा, तब यथार्थ मोक्षमार्गकी भी प्रवृत्ति न रहेगी । और श्रावक तथा प्राविकाओंका आदरसरकार भी उनके पद ( योग्यता) के अनुसार (कि वे कौनसी प्रतिमाके धारी हैं) करें।
अर्थात् यदि वे उत्तम श्रावक दशमी व ग्यारहवीं प्रतिमाधारी भावक होवे, तो उनका भक्तिपूर्वक भोजन, कोपीन, खंड वन, पीछी, कमंडलु शाखादि भेंट करके तथा यावृत्त करके सत्कार करना और मध्यम व जघन्य धावक हों तो उसी प्रकार भोजन, वक्ष, गृह, पूजी औषधो, शाब इत्यादि, जो उन्हें आवश्यक होने भेंट कर निराकुल करें, उनसे भक्ति और प्रेमपूर्वक वर्ताव :करें, तथा भोजन भेषज शाक उपकरणादि देकर सत्कार करे, और वैयावृत्त करे, करावे ।।
इसी प्रकार यदि अविरती, सम्यक्त्वी गृहस्थ हो तो उसका भी बावश्यकतानुसार भोजन वादिसे सन्मान करके उपदेश
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सोलहकारण पर्म । पूर्वक प्रेमसे कुछ प्रतादि ग्रहण करावे । इस प्रकार रत्नश्मके पारी पुरुषोंका सत्कार करके हर्षित होघे और अपनेको धन्य समझे । और जो धर्मसे पराङ्गमुख ( अजैन) हो तो उसे भी चया और प्रेमपूर्वक वर्ताव करके भोजन वस्त्रादि अनेक प्रकारमे सरकार कर उपदेश करके सम्यक रलत्रय मार्ग ग्रहण करावे । तथा पशु, पक्षी आदि दीन निर्बल प्राणी व मनुष्यादि इसी दरिदियोंका यथाशक्ति प्रेमसे और दयाभावसे उपकार करे, सनकी जीविकादिका उपकार कर देवे, इत्यादि अनेक प्रकारमे से बने वैसे
" उदारचरितनां तु वसुधैव कुटुम्बकम् " इस नीतिका पालन करते हुए संसारके प्राणीमात्रके दुःखोको अपना ही दुःख समझकर उनके दुःखमोचनका उपाय करें । कहा है कि
मर गये इन्सान वे जो, मर गये अपने लिय । पर वे अमर इन्सां हुए, जो मर गये जगके लिये। तात्पर्य यों तो सभी मरते हैं, जीते हैं, जन्मते हैं परन्तु पतृहरिजीके कथनानुसार कि
परिषतनि सेमारे मतः कोचा न जायते । स जातो येन जातेन, याति वंश समुभतिम्।।
भावार्य-परिवर्तनरूप संसारमें कौन नहीं जन्मता व मरता है परन्तु मरना व जन्मना उसीका सार्थक है, कि जिसने अपनी जाति तथा वंशकी उन्नति में जीवन लगाया है यथार्थ में बो परके दुःखको दुर करके अपने आपको सुम्सी मानते हैं वे 'पुरुष धन्य हैं । इस प्रकारके छलकपट मानावि कषाय रहित
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सोलह कारण धम
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अथवा सर्व प्रकारके स्वार्थ बिना जो प्रेम व भक्तिभाव तथा दया करके भूत ( संसारी प्राणी ) और व्रतियोंकी सेवा, सत्कार तदा वैयावृत्त करना है उसको ज्ञानी सत्य कहते है ।
वात्सल्यता धारण करनेसे परस्पर में प्रेम, उदारता, सच'रित्रतादि गुण बढ़ते हैं, प्राणी परस्पर सहानुभूति करना सीखते है, रागद्वेष घटनेसे सुखकी वृद्धि होती है, कार्यका मार्ग सरल हो जाता है, विघ्नों और विघ्नोंका भय नहीं रहता है; क्योंकि जब कोई शत्रु हो नहीं रहेगा, तो विघ्न कौन करेगा, इत्यादि अनेकों लाभ होते हैं ।
यथार्थमें संसारका कार्य भी विना वात्सल्यभावके नहीं 'निकल सकता है। तात्पर्य - वात्सल्य भावसे उभय लोग सम्बन्धी हित साधन होता है, और वित्त सदा प्रसन्न रहता है, कभी भी निरुत्साहता नहीं आने पाती है ।
इसलिये प्रत्येक मनुष्य स्त्री इस्मादि सभी को यह वात्सल्य गुण धारण करना चाहिये । परन्तु स्मरण रहे कि यह वात्सल्यता किसी स्वार्थ व मान मायादि कषायोंको पुष्टिके लिये नहीं, किन्तु निःस्वार्थ भावोंसे केवल परमार्थ ही के लिये होना चाहिये ।
इस प्रकार प्रवचनवत्सल्यत्व नाम भावनाका स्वरूप कहा सो ही कहा है-निर्मल मक्ति प्रमोद घरे, वो संघतनो सत्कार करीजें । दीन दुखी लख जीव सदा, करुणा करके चहुं दान सु दीजे ॥ धेनु यथा निज बालकपर, कर प्रेम सुधी छल आदि तजीजे । ज्ञान कहे मवि लोक सुनो, घर वत्सन्यभाव सदा सुख लीजे ॥ इति वात्सल्य भावना ॥ १६ ॥
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___ सोलहकारमा उपर कहीं नई षोड्या भावनाओंका यथार्थ पालन करनेसे, मोर तो क्या; किन्तु तोपकर पदकी प्राप्ति होती है इसलिये . पाशक्ति प्रत्येक नरनारियोंको पे धारण करना चाहिये ।। __ जैसा कि कहा हैपोइस कारण भावन निर्मल, मन बच काय सम्हार के बारे । ' कर्म अनेक इने अति दुर्घर,जन्म जरा भय मृत्यु निवारे ॥ दुःख दरिद विपत्ति हरे. भवसागरको परपार उतारे । पान कहे या पोरस कारण, कम निवारण सिद्धि सुठारे ॥
।। इति षोडसकारण भावना ॥
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सोलकाप
[...] सोलहारण बहिमा दोहा-धोडस कारण गुण कर, हरे चतुर्गति पास । पाप पुण्य सब नापाके, ज्ञान भानु परकास ।। १॥
चौपाई । वर्शन विशुद्धि घरे जो कोई । ताको आवागमन न होई ॥ विनय महा पारे जो प्राणी । शिव वनिताको सखिय वखाणी ॥२॥ सील सदा दृढ जो नर पाले । सो औरनको आपदा टालें ।। शान अभ्यास करे मन माहीं । ताके मोह महातम नाहीं ॥३॥ गो सम्वेग भाग विस्तार । स्वर्ग मुक्तिपद आप निहारे । दान देय मन हष विशेखै । यह भव यश परभव सुख देखे ॥४॥ जो तर तपै खपं अभिलाषा । चूरे कर्म शिखर गुरु भाषा ॥ साधु समाधि सदा मन ला । तिहूँ जग भोग भोग शिव जावै ।।५।। निधि दिन वैयावृत्य करैया । सो निश्चय भव नोर तरया ।। जो अहन्त भक्ति मन आन । सो नर विषय कवाय न जाने ।। ६ ।। को आचारग भक्ति करै है | सो निर्मल आचार धरै हैं । बहुश्रुतिवंत भक्ति जो करई । सो नर सम्पूरण मृत घाई ।। ७॥ प्रवचन भक्ति कर जो ज्ञाता । लहे ज्ञान परमानंद दाता॥ षट् आवश्यक काल जो साधे । सो ही नर रत्नत्रय आराधे ।।८।। धर्म प्रभाव कर जो ज्ञानो । तिन शिवमारग रीति पिधानी ॥ सत्सस्मोग सदा जो ध्यावे । सो तीर्थकर पदवी पार्व ।। ९ ।।
-पही सोमह भावना, सहित पर व्रत जोस । देव इन्द्र नर पर, बानत शिवपन होय ॥ १ ॥
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१.२] सोलहकारण धर्म ।
प्रन्थकर्ताको भावना । सम्यग्दर्श विशुद्धि, विनय सम्पन्न, सुशीलविना अतिचारे । ऽभीक्षण ज्ञान उपयोग घरे, संवेग सुशक्तिस्त्याग तपारे । साधु समाधि सुधार वैयावृत अरहत सूर सुभक्ति उचारे । बहुश्रुत प्रवचन भक्ति धरे समतादिक घट आवश्य सम्हारे॥१॥ मार्ग प्रभावन कारण आगम, जैन करे उपदेश प्रचारे । भूतव्रती जन देख खुशी है, बालक गौबत वत्सल घारे ॥ यही सोलह भावन भाय, भये है हैं तीर्थंकर सारे । 'दीप' कहे दिन धन्य वहे जब, भावना भाय लहूं भव पारे ।।२।।
यदि आषाद तिथि मागंणा, संवत् कोर जिनेश । तीर्थकर हन घातिया, कियो घर्म उपदेश ।।१।। लेख पूर्ण तादिन कियो निज परको हितकार। षोडसकारण भाव यह, दीपचन्द परवार ।।२।। इति षोडशभावना कथन संक्षेपत: सम्पूर्णम् । षोडशकारणके सवैये ।
(१) दर्शनविशुद्धि । दर्शनशुद्धि न होवत ज्योलग, त्योलग जीव मिथ्यात कहावे ।। काल अनंत फिरे भवमें महा, दुःखनको कही पार न पाये । दोष पचीस रहित गुणाम्मुधि, सम्यग्दर्शन शुद्ध ठरावे । भान कहे नर सोहि बडो जो मिथ्यावसजी जिन मारग ध्यावे ॥१॥
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सोलहकारण बने।
(२) विनयसम्पन्नत्व । देव तथा गुरुराय तथा नप, संयम शीलवतादिक धारो । पापके हारक काम के सारक, शन्य निवारक कर्म निवारी ॥ धर्मके धीर कषायके मेदक, पंच प्रकार संसारके तारी । ज्ञान कहे विनयो सुखकारका मान धरि मत हानिकी
(३) शील । शील मदा सुख कारक है, अतिवार विवर्जित निर्मल कोजे । दानव देव करे तस सेव, विषाद न भूत पिशाच पतिजे ।। शील बडो जगमें हथियार, जु शीलकु उपमा काहेक दीजे । ज्ञान कई नहि शील बराबर,तात सदा दृढ़ शील धरीजे |३॥
(४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग। ज्ञान सदा जिनराजको भाषित, आलस छोड़ी पढे जु पढावे । द्वादश दोउ अनकह भेदसु, नाम मति श्रुत पंचम पावे ॥ चारह वेद निरंतर भाषित, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे । शान कहे श्रुत भेद अनेकज, लोक अलोक प्रगट दिखावे ।।४।।
(५) संवेग । मातन नातन पुत्र कलत्रन, संपति सजन ए सब खोटो। मंदिर सुन्दर कायसखा सत्र, कोबह कोहम अंतर माटो ।। भाव कुभात्र धरी मन भेदत, नार्ह संवेग पदारथ छोटो । शान कहे शिव साधनको जैसे,शाहको काम करेजो घणोटो॥५॥
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सोसहकारन गर्ने ।
(६) त्याग ।
पात्र चतुर्विध देख अनुपम, दान चतुविध भावसु दीजे । शक्ति समान अभ्यागतक निज, आदरसु प्रणिपत्य करीजे || देवत जे नर दान सुपात्र हि नास अनेक कारण सीधे ! बोलत ज्ञान दई शुभ दान जु, भोगसु भूमि महा सुख लीजे । ६ ॥ ( ७ ) तप
कर्म कठोर गीरावनकु निज, शक्ति समान उपोषण कीजे । बारह मेद तपी तप सुन्दर, पाप जलांजली काहे न दीजे ॥ भाव घरी तप घोर करी, नर जन्म सदा फल काहे न लीजे । ज्ञान कहे तप जे नर भात, ताके अनेक पानिक छीजे ||७|| (८) साधु समाधि |
साधु समाधि करो नर भाविक, पुन्य बडो उपजे अब भाजे । साधुकी संगति धर्मके कारण, भक्ति करें परमारथ छाजे || साधु समाधि करे भव छूटत, कीर्ति घटा त्र्यलोकमें गाजे । ज्ञान कहे जग साधु बडे गिरी श्रङ्ग गुफा बीच जाय बिराजे ॥ ८ ॥ ( ९ ) वैयावृत्तिकरण ।
कर्मके योग विधा उदये मुनि पुङ्गव तस भेषज दीजें | पित्त कफानल ताम भगंदर, ताप कुशूल महामद छी जे || भोजन साथ बनायके औषध पथ्य कृपथ्य विचारके कीजे । ज्ञान कहे नित ऐसी वैयावृच, जो हि करे तस देव पतीजे ॥ ९ ॥
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सोललास गर्म
( १० ) अर्हत् भक्ति ।
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देव सदा अरिहंत भजो जिहि दोष अठार किया अति दूरा । पाप पखाल भयो आते निर्मल, कर्म कठोर कीये सब बुरा ॥ दिव्य अनंत चतुष्ट्य शोभित, घोर मिथ्यांध निवारण शूरा | ज्ञान कहे जिनराज असो, निरंतर जे गुग मंदिर पूरा ॥ १०॥ [११] अदार्थ अति ।
देव तहि उपदेश अनेकसु, आप सदा परवारथ चारों | देशविदेश विहार करे, दश धर्म घरे मंत्र पर उतारी ॥ ऐसे आवाज भाव घरी, भजनो शिव चार कर्म निवारी | ज्ञान कहे जनभक्ति किनो, नर देखत हो मनमांहि विचारी ॥११॥ [१२] बहुश्रुतभक्ति ।
आगम छंद पुराण पढ़ात्रत, साहित्य तर्क वितर्क बखाणे | काव्य कथा नव नाटक बूडत, जोतिष वेदक शास्त्र प्रमाणे ॥ ऐसे बहुत साधु मुनीश्वर, जो मनमें दोउ भावज प्राणे । ज्ञान कहे तस पाय न श्रुत, पार गये मन गर्व न आणे ॥ १२ ॥ [१३] प्रवचनभक्ति ।
ที
द्वादश अंग उपाङ्ग सदागम, ताकि निरंतर भक्ति कराये | वेद अनुपम चार कहे तस, अर्थ भले मनमांहि ठराये पढ़ो बहु भात्र लिखो निज अमर, भक्ति का बढ़ पुंजरवाये । ज्ञान कहे निज आगम भक्ति, करो सद्बुद्धि बहुशुम पाये ॥ १३ ॥
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-- १०६]
सोलहकारण धर्म :1 (१५) आवश्यकपरिहाणि । भाव धरै समता सब बीवसु, स्तोत्र पढ़े सुखमें मन हारी। काय उत्सर्ग करे मन प्रीतसु, वंदन देव तणो भबहारी ॥ ध्यान धरी मद दूर करी, दाउ वेर करे पडि कम्मण भारी । शान कई मुनी सो धनवंतजु, दर्शन ज्ञान चारित्र उधारी ! १४॥
(१५) मार्गप्रभावना ।। जिनपूजा रचे परमारथसु जिन,आगल नृत्य महोत्सव ठाणे । गाचत गीत बजावत ढोल, मृदंगके नाद सुथांग वखाणे ॥ संघ प्रतिष्ठा रचे जल जातर, सद्गुरुकृ साहमोकर आणे 1 ज्ञान कह जिन मार्गप्रभावना, भाग्य विशेष सुजानहि आणे ।। १५
१६] प्रवचनवत्सलव । गौरव भाव धरी मनसु मुनि, गवको जिनात्सल कीजे । शीलके धारक भव्य के तारक, धानासु निरंतर स्नाधरि जे|| धेनु यथा निज बालकक, अपने जीव छूट न और पता जे । भान कहे भवी लोक सुनी,जिन वत्सल भाव घरे अंग छीजे॥१६
(१७) आशीर्वाद । सुन्दर षोडस कारण भावन, निर्मल चित्त सुधारके धारे। कर्म अनेक हणे अति दुर्धर, जन्म जरा भय मृत्यु निवारे ।। दुःख दरिद्र विपत्त हरे, भवसागरको पर पार उतारे । बान कहे इह षोडश कारण, कम निवारण सिद्धिस ठारे ॥१७॥
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सोलहकारण धर्म । सोलहकारण व्रत कथा। नमो देव अहंत नित, गुरु निन्ध मनाय ।
श्रीजिनवाणी हृदयधर, कई कथा सुखदाय ॥
अनन्तानन्त आकाश ( अलोकाकाश) के मध्यमें ३४३ सन राजूप्रमाण क्षेत्रफलवाला पुरुषाकार यह लोकाकाश है जो कि तीन
प्रकारके वातवलयों अर्थात् वायु (वनोदधि, घन और: तनुवातलय) से घिरा हुआ अपनेही आधार आप स्थिर है। वह लोकाकाश ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक इस
प्रकार तीन भागोमें बंटा हमा है। और इसके बीचोबीर १४ राजू ऊंची और १ राजू चौडी लम्बी प्रससाड़ी है, अर्थात् इसके बाहर अस जीव-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय नहीं रहते हैं, परंतु एकेन्द्रिय जीव तो समस्त लोकाकाशमें रहते हैं।
इस असनाड़ीके उर्व भाम में सबसे ऊपर तनु-बातवलयके अन्त में समस्त कर्मोंसे रहित, अनंतदर्शन, शान, सुख और बीर्यादि अनेक गुणोंके धारी अपनी २ अवगाहनाको लिये हुए. श्री सिद्ध भगवान विराजमान हैं, उससे नीचे अहमिन्द्रोंका निवास है, और फिर सोलह स्वर्गाके देवोंका निवास है। स्वर्गासे नीचे मध्य लोक समझा जाता है । इस मध्यलोको ऊर्ध्व भागमें सूर्य चन्द्रादि ज्योतिषी देवोंका निवास है। (इन्हीं को चलने अर्थात् नित्य सुदर्शन मेरुकी प्रदक्षिणा देनेसे दिन रातऔर भूतुओंका भेद होता है।
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सोलहकारून फिर नोचेके भागमें पृथ्वीपर मनुष्य तिथंच पशु और व्यंतर जातिके देवोंका निवास है। माय लोकसे नोचे बोलोक (पानाल लोक ) है । इस पाताल लोक के ऊपरी कुछ भागमै व्यता और भवनयासो देव रहते हैं, और शेष भागमें नारको जीवोंका निवास है।
अबलोकवासी देव, इन्द्रादि तथा मध्य व पातालबासी चारों प्रकारके देव इन्द्रादि तो अपने पूर्व संचित पुण्यके उदय जनित फलको प्राप्त हुए इन्द्रिय विषयोंमें निमग्न रहते है अथवा अपने से बड़े भूनिवारी इन्द्र देवादिको विभूति व ऐश्वर्यको देखकर सहनकर न सकने के कारण आध्यानमें निमग्न रहते हैं और इस प्रकार वे अपनी आयु पूर्ण कर वहांसे चलकस मनुष्य तियंचादि किसो गतिमें स्वकर्मानुसार उत्पन्न होते हैं । इसप्रकार पातालवासी नारको जीव भी निरंतर पापके उदयसे परस्पर, मारने ताडन बध बन्धनादि नाना प्रकारके दुखोंको भोगते हुए आर्तरोद ध्यानसे आयु पूर्ण करके मरते हैं और वे भो स्वकर्मानुसार मनुष्य व तिथंच गतिको प्राप्त करते हैं।
तात्पर्य ये दोनों देव तथा नरक गतियां ऐसी हैं कि इन से विना आयु पूर्ण हुए तो निकल नहीं सकते हैं, और न वहाँसे सधि मोलगतिको प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि इन दोनों गतिके जीवांका शरीर वैक्रियक है, जो कि अतिशय पुण्य व पापोंके कारण उनको उसका फल सुख किंवा दुःख भोगनेके लिये हो प्राप्त हुआ है। इसलिये इनसे इस पर्यायमें चारित्र धारण नहीं हो सकता है, और चारित्र विना मोक्ष नहीं होता हैं इसलिये इन गतिक जीवोंको वहांसे निकलकर मनुष्म वा तिर्यंच गतिमें ही आना पड़ता है।
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सोलहकारण धर्म । तिथंच गतिमें भी एफेन्द्रिय दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौइंनिय और असंनी पंचेन्द्रिय जीवोंको सो मनके अमावसे सम्यग्दर्शन ही नहीं हो सकता है और विना सम्यग्दर्शनके सम्यक चारित्र नहीं होता तथा, विना चारित्रके मोक्ष नहो होता है। रहे सनी पंचेन्द्रिय जीष, सो इनको अप्रत्याख्यानामाम कषाय ने शम होने से एमादेशश मत हो सकता है, परंतु पूर्ण नहीं तब मनुष्य गति ही एक ऐसी गति टहरी, कि जिसमें यह जीव सम्यक्त्व सहित पूर्ण चारित्रको धारण करके मोक्ष सुखों को प्राप्त कर सकता है। मनुष्योंका निवास मध्य सोक हीमें है। इसलिये मनुष्य क्षेत्रका कुल संक्षित परिचय देकर इस कथाका प्रारम्भ करेंगे ।
लोकाकाशके मध्य में १ राजु चौड़ा और ७ राजू लम्बा मध्य लोक हैं, जिसमें त्रस जीवोंका निवास १ राजू लम्बे और १ राजू घोड़े क्षेत्र ही में है (मध्यलोकका बाकारECcco) इस १ राजू मध्य लोकके क्षेत्र में जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र आदि अनेक द्वीपसमुद्र चूडीके आकार एफ दूसरेको घेरे हुए हैं ।
इन असंख्यात द्वीप समुद्रोंके मध्य में जम्बूद्वीप घालीके आकार (गोल है। इसके आसपास लवणसमुद्र, फिर घातकी खंड द्वीप, फिर कालोदधि समुद्र, फिर पुष्कर होप है । यह पुस्कर द्वीप बीचोबीच एक पर्वतसे जिसे मानुषोत्तर पर्वत कहते है क्योंकि मनुष्य उसके पार नहीं जा सकता है, दो भागोमें बटा हुआ है। इस प्रकार जम्बू, धातकी और पुष्कर भाषा। ढाईद्वीप) और लवण तथा कालोदधि ये दो समुद्र मिलकर मनुष्यलोक कहलाता है.
और इतने ही क्षेत्रसे रमत्रयको धारण करके मोक्ष प्रा कर सकता है।
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सोनहकारण धर्मं । :
इसने क्षेत्रका क्षेत्रफल दो हजार कोषके योजनके हिसाब से ४५ लाख योजन है। जीव कर्मके मुक्त होनेपर अपनी स्वाभाविक गतिके अनुसार ऊर्ध्वगमन करते हैं। इसलिये जितने क्षेत्रक जीव मोक्ष प्राप्त करके ऊर्ध्वगमन करके लोक-शिखर के अन्तमें जाकर धर्म द्रव्यका आगे प्रभाव होनेके कारण ठहर जाते हैं, उतने क्षेत्रको ( लोकके अन्तवाले क्षेत्रको ) सिद्धशिला व सिद्धक्षेत्र कहते हैं। इस प्रकार सिद्धक्षेत्र भी पैतालीस लाख योजनहीका ठहरा ।
इस द्वीप में पंचमेरु ओर तत्सम्बधी विदेह क्षेत्र तथा पांच भारत और पांच ऐरावत क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रोंमेंसे जीव रत्नत्रय द्वारा कर्मनाश कर सकता है। इसके सिवाय और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, वहां भोषभूमि ( युगलिया ) को दीति प्रचलित है : अर्थात् वहांके जीव मनुष्यादि अपनी संपूर्ण मायु विषयभोगोंहोम बिता दिया करते हैं। उनकी बढ़ी बड़ो आयु होती हैं. आहार कम होता हैं, उनमें सब समान राजा प्रजाके भेद रहित होते हैं । उनको सब प्रकार की भोगसामग्री कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त होती है ।
इसलिये वे व्यापार धंदा आदिको झंझटसे बचे रहते हैं । इस प्रकार वे ( बहांके जीव ) आयु पूर्ण कर मंद कषायोंके कारण देवगतिको प्राप्त होते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके आर्य खण्डों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी (कल्प कालके ) छः काल - सुखमा सुख मा. सुखमा सुखमा, दुखमा, दुखमा सुखमा, दुखमा, और दुखमा दुलमाकी प्रवृत्ति होती हैं इनमें भी प्रथमके तोन कालों में तो भोगभूमिका ही रीति प्रचलित रहती हैं, भर दोन काल कर्मभूमिके होते है, इसलिये इन शेष कालोमें धौया दुखमा सुखमा कास है जिसमें त्रेसठ शलाका आदि महापुरुष उत्पन्न होते है । और छठवे कानमें क्रमसे आयु, काय, बल वीर्य घटता
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सानहकारण बम !
जाता है और इन कालोंमें कोई मो जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है । विदेह क्षेत्रमें ऐसी कालचक्रकी फिरन नही होती हैं । वहां सदैव हो तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं और मोक्षमार्गका उपदेश व साधन रहने से जीव मोक्ष प्राप्त करते रहते हैं। जिन क्षेत्रोमें रहकर जीव आत्मधर्मको प्राप्त होकर मोक्ष प्राम कर सकता हैं अयवा जिनमें मनुष्प असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल व विद्यादि द्वारा आजोविका करके जीवन निर्वाह करते हैं वे क्षेत्र कर्मभूमि कहलाते हैं।
अम्बुद्वीप (जोकि सब द्वीपों में हैं ) में बीचोंबीच सुदर्शन मेह नामका स्तंभाकर एक लाख योजन ऊंचा पर्वत है । इस पर्वत पर सोलह अकृषिक जिन मंदिर हैं ! यह व्हो पर्वत है कि जियार भगवानका जन्माभिक इन्द्रादि देवों द्वारा किया जाता है। इसके सिवाय ६ पर्वत और भो दण्डाकार ( भीतके समान ) इस दोष में हैं। जिनके कारण यह द्वीप सात द्वीपोंमें बट गया हैं। ये पर्वत सुदर्शनमेरुके उत्तर र दक्षिण दिशामें आड़े पूर्वसे पश्चिम तक समुद्र में मिले हुये हैं। दक्षिणको ओरसे सबसे अंतके क्षेत्रको भरतक्षेत्र कहते हैं। इस भरत क्षेत्रमें भी बोच में विजयाद पर्वत पड़ जानेसे भरतक्षेत्र दो भागोंमें बट जाता है
और उत्तरकी ओर जो हिमवत पर्वत पर पद्महद है, उससे गंगा और सिधु दो महानदियां निकलकर विजयाई पर्वतको भेदती हुई पूर्व और पश्चिमसे बहती हुई दक्षिण समुद्र में मिलती है । इससे भरतक्षेत्रके छ- खंड हो जाते है, इन छ: खंडोंमेंसे सबसे दक्षिगका बोचत्राला खंड आर्य खंड कहलाता है। और शेष ५ म्लेच्छ खंड कहलाते है । इसी आर्य खंडमें तीर्थंकरादि .महापुरुष उत्पन्न होते हैं । यहा आर्य खंड कहलाता है।
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सोलहकारण वर्म ।
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इसी आधार कल बिहार प्रांत कहते हैं ।
है, जि
इस मगधप्रदेशमें राजगृही नामकी एक बहुत मनोहर नगरी है, और इस नगरीके समीप विपुलाचल, उदयाचल आदि पंच पहाडियां है। तथा पहाड़ियोंके नीचे किसनेक उष्ण : जल के कुंड बने हैं। इन पहाडियों व झरनोके कारण नगरकी शोभा विशेष बढ़ गई है । यद्यपि कालदोष से अब यह नगर उजास होरहा है परन्तु उसके आसपास के चिह्न देखने से प्रकट होता हैं कि किसी समय यह नगर अवश्य ही बहुत उत होगा।
अंतिम ( चौवीसवें ) श्रीबर्द्धमानस्वामी के समय में इस नगर में राजा श्रेणिक राज्य करता था । यह राजा बड़ा व्यायी और प्रजापालक था । यह अपनी कुमार अवस्थामें पूर्वोपाजित कर्मके उदयसे अपने पिता द्वारा देश से निकाला गया था, सो भ्रमण करते हुए एक बौद्ध साधुके उपदेश से बौद्धमतको स्वीकार कर चुका था। और बहुतकाल तक यह बौद्ध मतावलम्बी ही | रहा। जब बेजियकुमार निक बाहू तथा बुद्धिबल से विदेशों में भ्रमण करके बहुत विभूति व ऐश्वर्य सहित स्वदेशको लोटा, तो वहां निवासियोंने इन्हें अपना राजा बनाना स्वीकार किया इस समय इनके पिता उपनिक राजाका स्वर्गवास हो चुका था, और इनके एक भाई बिलांतक नामके अपने पिता द्वारा प्रदत्त राज्य करते थे; इनके राज्यकार्यमे अनभिश होने तथा प्रजा पर अत्याचार करनेके कारण प्रजा इनसे अप्रसन्न हो गई थी । इसीसे सब भबाने मिलकर इन्हें राज्यच्युत कर दिया । ठीक है राजा प्रजा पर अत्याचार नहीं कर सकता हैं, यह एक प्रकारसे प्रजाका नौकर ही है। क्योंकि प्रजाके द्वारा ही राजाको द्रव्य मिलता है, उसकी आजीविका
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प्रजाके आश्रित है, इसलिये वह प्रजा पर नोतिपूर्णक शासन कर सकता है। उसका कर्तव्य है कि वह प्रजाको भलाईक लिये सतत प्रयत्न करे, उसकी यथासाध्य रक्षा व उन्नतिका उपाय करे, तभी वह राजा कहलाने के योग्य हो सकता है, और प्रजा भी उसकी आज्ञाकारिणी हो सकती है। राजा और प्रजाका संबंध पिता और पुत्रके समान होता है, इसलिये जब राजाकी ओरसे अन्याय व अत्याचार बढ़ जाते हैं, सब प्रजा अपना नया राजा चुन लिया करती है, और अत्याचारी अन्यायी राजाको राज्यच्युत करने देती है। मुख राजगृहीकी प्रजाने अन्यायी चिलांतक नामक राजाको निकाल कर श्रेणीको अपना राजा बनाया, और इस प्रकार श्रेणिक महाराज नीतिपूर्वक पुत्रवत् प्रजाका पालन करने लगे ।
पश्चात् इनका एक और व्याह राजा पेटककी कन्या चेलना कुमारीसे हुआ । चेलना रामी जैनधर्मानुयायी थी, और राजा श्रेणिक बौद्धमतानुयायी थे । इस प्रकार यह केरमेर ( केला और बेरी) का साथ बना था कि इनमें निरन्तर धार्मिक विवाद हुआ करता था। दोनों पक्षवाले अपने अपने पक्ष के मंडनार्थ प्रबल प्रबल युक्तियां दिया करते थे। परन्तु "सत्यमेव जयते सर्वदा" की उक्तिके अनुसार अन्तमें रानी बेलना ही की विजय हुई अर्थात् राजा श्रेणिकने हार मानकर जैनधर्म स्वीकार कर लिया और उसकी श्रद्धां जैनधर्म में अत्यत दृढ़ हो गई इतना ही नहीं किन्तु वह जैन धर्म देव या गुरुओंका परम भक्त बन गया और निरन्तर जैनधर्मकी उन्नति में सतत प्रयत्न करने लगा ।
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११४] सोलहकारण धर्म ।
एक दिन इसी राजगृही नगरके समीप उद्यान वनमें विपुलाचल पर्वतपर श्रीमद्देवाधिदेव परम भट्टारक श्री १००८ वर्तमानस्वामीका समवसरण आया, जिसके अतिशयसे वहाँके यन उपवनोंमें छहों ऋतुओंके फल फूल एक ही साथ फल और फूल गये, तथा नदी सरोवर आदि जलाशय अलपूर्ण हो गये, वनचर व जलपर आदि जीव सानन्द अपने अपने स्थानोंमें स्वतंत्र निर्भय होकर विचरने और क्रीड़ा करने लगे। दूर दुर तक रोग मरी व अकाल आदिका नाम भी न रहा, इत्यादि अनेकों अतिशय होने लगे, तब वनमाली फल और फूलोंकी डाली लेकर यह मादायक प्रचार
के लिये गया और विनययुक्त भेट करके सत्र समाचार कह सुनाये ।
राजा श्रेणिक यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ और अपने सिंहासनसे तुरत ही उतर कर विपुलाचलकी और मुंह करके पशेक्ष नमस्कार किया। पश्चात् वनपालको यथेच्छ पारितोषिक दिया और यह शुभ संवाद सब नगर भरमें फैला दिया, अर्थात् यह घोषणा करा दी कि महावीर भगवानका समवसरण विपुलाचल पर्वतपर आया है, इसलिये सब नरनारी वंदनाके लिये चलो और राजा स्वयम् भी अपनी विभूति सहित हर्षित मन होकर वंदनाके लिये गया ।
जाते २ मानस्तंभपर दृष्टि पड़ते ही राजा हाथीसे उतरकर पांच प्यादे समवसरण में रानी आदि स्वजन पुरजनों सहित पहुंचा
और सब ठौर यथायोग्य वंदना स्तुति करता हुआ गंधकुटीके निकट उपस्थित हुआ और भक्तिसे नम्रभूत हो स्तुति करके मनुष्योंकी सभामें जाकर बैठ गया और सब लोग भी यथायोग्य स्थानमें बैठ गये ।
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[ ११५ तब मुमशु ( मोक्षाभिलाषी) जीवों के कल्याणार्थ श्री जिनंद्र श्वके द्वारा मेघोंकी गर्जनाके समान *कार रूप अनक्षरी वाणी ( दिव्य ध्वनी) हुई । यद्यपि इस वाणीको सर्व उपस्थित सभाजन अपनी २ भाषामें यथासंभव निमशानावरण कर्मके क्षयोपशम अनुसार समझ लेते है सथापि गणघर (गणेश) जो कि मुनिकी सभामें अव चार ज्ञानके धारी हैं, उक्त वाणीको द्वादशांगरूप कथन कर भव्य जीवोको भेदा भेद सहित समझाते हैं सो उस समय श्री महावीरस्वामीके समवसरणमें उपस्थिन गणनायक श्री गौतमस्वामीने प्रभुकी वाणीको सुनकर सभाजनको साश सत्य, व सर्य, पंचास्तार इत्यादि स्वरूप समझाकर रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन सम्यक्शान. सम्यकचारित्र) रूप मोक्षमार्गका कयन किया और सागार ( गृहस्थ ) तथा अनगार ( साधु-गृहत्यागी ) धर्मका उपदेश दिया, जिसे सुनकर निकट 'भव्य ( जिनकी संसार-स्थिति थोड़ी रह गई है) अर्थात् मोक्ष होना निकट रह गया है. ) जीवोंने यथाशक्ति मुनि अथवा श्रावणफे प्रत धारण किये, तथा जो शक्तिहीन जीव थे और जिनको दर्शनमोहका उपाम व क्षय हुवा था। उन्होंने सम्यक्त्व ही ग्रहण किया ।
इस प्रकार जब वे भगवान धर्मका स्वरूप कथन कर चुके, सब उस सभा में उपस्थित परम धनालु भक्तराज श्रेणिकने विनययुक्त नम्रीभूत हो श्री गौतमस्वामी ( गणघर ) से प्रश्न किया कि " हे प्रभु ! षोड़श कारण व्रतको विधि किस प्रकार है, और इस व्रतको किसने पालन किया तथा क्या फल पाया? सो कृपाकर कहो, ताकि हीन शक्तिधारी जीव भी यथाशक्ति अपना कल्याण कर सके, और जिन धर्मको प्रभावना होवे।
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सोलहकारण धर्म यह सुनकर षी गौतमस्वामी बोले-राजा तुम्हारा यह प्रश्न समयोचित और उत्तम है इसलिये ध्यान लगाकर सुनो। इस यतको कया व विधि इस प्रकार है--
पोरस कारण भावना, जो भाई चित धार । कर तिन पदकी वंदना, कहूं कथा सुखकार ॥१॥
जम्बूदीपमें भरतक्षेत्रके मगध (बिहार) प्रान्तमें राजगृही नगर है। वहांका राजा हेमप्रभ और रानी विज्यावती थी। इस राजाके यहाँ महाशर्मा नामका नौकर था और उसकी श्रीका नाम प्रियंवदा पा । इस प्रियंवदाके गर्भसे कालभैरवी नामकी अत्यन्त कुरूपा कन्या उत्पन्न हुई जिसे देखकर मातापितादि सभी जनोंको घृणा होती थी।
फिर एक दिन मतिसागर नामके पारणमुनि आकासमागसे गमन करते हुए इस नगरमें पधारे तो वह महाशर्मा अत्यन्त भक्ति सहित श्री मुनिको पड़गाहकर विधिपूर्वक आहार देकर, मुनोराज द्वारा धर्मोपदेषा सुनने लगा पश्चात् जुगल कर जोड़कर विनययुक्त हो पूछा-हे नाप ! यह मेरी कालभैरवी नामकी कन्या किस कर्मके उदयसे ऐसी कुरूपा और कुलमणी उत्पन्न हई है, कृपा कर कहिये । तब भी मुनिराज (अवधिज्ञानके षारी) कहने लगे, मत्स ! सुनो--
उजनी नगरीमें महीपाल नामका राजा और उसकी वेगावती नामकी रानी पी। इस रानीसे विशालासी नामकी एक कन्या थी । यह कन्या बहत रूपवान होने के कारण बहुत अभिमानिनी हुई और इसी रूपके मदमें उसने एक भी सद्गुण न सीखा । यथार्थ है, अहंकारी मानी ) को विद्या नहीं माती है।
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एक दिन वह कन्या अपनो चित्रसारीमें बैठी हुई दर्पणमें अपना मुख देख रही थी कि; इतने में ज्ञानसूर्य महातपस्वी श्रीमुनिराज उसके घरसे बाहर लेकर निकले सो इस अज्ञान रूपके मदमें मस्त कन्याने मुनिको देखकर खिड़कीसे मुनिक उपर थूक दिया और पूक कर बहुत हर्षित हुई।
पृथ्वी समान क्षमावान श्री मुनिराज अपनी नीची दृष्टि किये हुए चले हो जा रहे थे कि, राजपुरोहित इस कन्याका उमत्तपना देखकर उसपर बहुत क्रोधित हुआ तथा उसे घमकाया और तुरन्त हो प्रासुक जलसे धीमुनिराजका शगेर प्रक्षालित किया, और बहुत भक्ति से वैयावृत्य कर स्तुति की। यह देखकर वह कन्या बहुत लज्जित हुई और अपने किये हुए नीच कृत्यपर पछताकर श्री मुनिके पास जाकर उसने नमस्कार किया और अपन अपराषकी क्षमा मांगी। फिर वह कन्या वहांसे मरकर तेरे घर यह कालभैरवी नामकी कन्या हुई है।
इसने जो पूर्व जन्ममें मुनिको निदा व उपसर्ग रूप घोर पाप किया है, उसीके फलसे ऐसो कुरूपा हुई है। पूर्व संचित कोका फल भोग बिना छुटकारा नहीं होता है। इसलिये अब इसे समभावोंसे भोपना ही कर्तव्य है और आगेको ऐसे कर्म न बन्धे ऐसा उपाय करना योग्य है । तब पुनः यह महाशर्मा बोला- हे प्रभू । कुपाकर कोई ऐसा उपाय बताइये कि जिससे यह कन्या इस दुःखसे टकर सम्यक् सुखोंको प्राप्त हो । तब श्री मुनिराज बोले-वत्स सुनो
संसारमें ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो मनुष्यों के लिये असाध्य हो, अर्थात् वह न कर सके। यह कितनासा दुःख है
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जिन धर्मके सेवन से अन्नादिसे लगे हुए जन्म मरणादि दुःख भी छूटकर सच्चे मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है तब और दुखोंकी क्या बात है वे तो सहज ही में छूट जाते हैं। इसलिये यदि यह कन्या षोडशकारण भावना भावे और पाले तो श्रीनिवा मोक्षसुखको पावेगी । तब महाशर्मा बोला - हे स्वामी ! इस व्रतकी कौनसी भावना है और क्या विधि है ? सो कृपाकर कहिये | तब मुनिमहाराजने इन जिज्ञासुओंको निम्न प्रकार व्रतका स्वरूप और विधि बताई । वे बोले :
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(१) संसार में जीवका वैरी मिथ्यात्व और हितू सम्यक्त्व हैं। इसलिये मनुष्योंका कर्तव्य हैं कि सबसे प्रथम मिथ्यात्व ( अतत्त्व श्रद्धान या उल्दा- विपरीत बद्धान) को वमन (त्याग) करके सम्यक्त्वरूपी अमृतका पान करें, सत्यार्थ ( जिन ) देव, सच्चे ( निर्ग्रन्थ ) गुरू और सच्चे ( जिन भाषित ) धर्मपरा श्रद्धा ( विश्वास ) लावे | तत्पश्चात् सप्त तत्व तथा पुण्य पापका स्वरूप जानकर इनकी श्रद्धा करके अपनी आत्माको पर पदार्थोंसे भिन्न अनुभव करे और अन्य मिध्यात्वी देव गुरु व धर्मको दूर होने इस प्रकार छोड़ दे जैसे तोता अवसर पाकर पिंजरेसे निकल भागता है । ऐसे सम्यक्त्वी पुरुषके प्रथम ( समभाव - सुख व दुःखमें एकसा समुद्र सरीखा गम्मीर रहना, घबराना नहीं ), संवेग ( धर्मानुराग सांसारिक विषयासे विरक्त हो धर्म और धर्मायतनोंमें प्रेम बढ़ाना ), अनुकम्पा ( करुणा दुःखी जीवांपर दया भाव करके उनको यथाशक्ति सहायता करना } और मस्तिक्य ( श्रद्धा- कैसा भी अवसर क्यों न आवे तो भी निर्णय किए हुए अपने सन्मार्ग में दृढ़ रहना, ये चार गुण प्रगट होजाते हैं उन्हें किसी प्रकारका मय ६ चिंता व्याकुल नहीं कर सकती हैं। वे घोर वीर सदा प्रसन्न चित्तही रहते हैं,
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सोलहकारण धर्म । कभी किसी चीजको उन्हे प्रबल इच्छा नहीं होती, चाहे ये किसी कर्मसे उदयसे व्रत न भी कर सकें तो व्रत्तों में उनकी प्रद्धा व सहानुभूति रहती है। यही मोक्षमार्गकी प्रथम सोपान (सीढ़ी ) हैं। इसलिये इसे ही २५ मल-दोषोंसे रहित और अष्ट अंग सहित धारण करें, इसके विना ज्ञान और चारित्र सब निष्फल ( मिथ्या ) हैं, यही " दर्शनविशुद्धि" नामकी प्रथम भावना है।
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२) जीव ( मनुष्य ) संसारमें जो सबकी दृष्टिसे उतर जाता है उसका कारण केवल अहंकार (मान) है. भले ही यह मानी अपनी समझ में अपने आपको बड़ा माने, परन्तु क्या कौआ मंदिरके शिखरपर बैठ जानेसे गरुड़पक्षी हो सकता है ? कभी नहीं कभी नहीं । सबही प्राणी उससे घृणा करते हैं । कदाचित् उसके पूर्व पुण्योदयसे उसके कोई कुछ न कह सके, तो भी क्या वह किसी के मन को बदल सकता है ? जो उपरको देखकर चलता है वह अवश्य ही नीचे गिरता है। ऐसे मानी पुरुषको कोई विद्या सिध्ध नहीं होती है, क्योंकि वह विद्या विनयसे आती हैं। मानी पुरुष सदा चित्तमें खेदित रहता है क्योंकि वह सदा सबसे सम्मान कराना चाहता हैं, जो कि होना असम्भव है। इसलिये निरंतर अपनेसे बड़ोंमें सदा चित्तमें सदा विनयपूर्वक वर्ताव करना चाहिये, समान { बराबरीवालों) पुरुषों में प्रेम और छोटोंमें करुणाभावसे प्रवर्तना चाहिये, और सदैव अपने दोषोंको स्वीकार करने में सावधान रहना चाहिये, क्योंकि जो मानी अपने दोष नहीं स्वीकार करता है उसके इषदोबढ़ते ही जाते है वह कभी उनसे मुक्त नहीं हो सकता है। सलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार इन पांच प्रकारको विनयोंका स्वरूप विचारकर विमयपूर्वक प्रवर्तन करम
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सोलहकारण धर्म । सो “विनय सम्पन्नता" नामकी भावना है ।
(३) विना मर्यादाके मन वश नहीं होता है, जैसे कि विना लगाम ( बाग--रास ) घोड़ा और बिना अंकुशके हाथी । इस लिये आवश्यक है कि मन व इन्द्रियोंके वश करनेके लिये कुछ मर्यादारूपी अंकुश रखना चाहिये । इसलिये अहिंसा ( किसी भी जीवको न सताना न मारना). सत्य ( यथार्थ वचन बोलना, परन्तु किसीको पीडाजनक न हो), अचौर्य ( बिना दिये हुए पर वस्तुका ग्रहण न करना ), ब्रह्मचर्य । स्त्री मात्रका अथवा स्वदार विना अन्य स्त्रियोंके साथ विषय--मैथुन सेवनका त्याग, ) और परिग्रह त्याग या परिग्रह परिमाण ( संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग या अपनी योग्यता या शक्ति अनुसार आवश्यक वस्तुओंका प्रमाण करके अन्य समस्त पदार्थोसे ममत्व त्याग करना, इसे लोभको रोकना भी कहते हैं ), इस प्रकार ये पांच प्रत और इनको रक्षार्थ सप्तशीलों ( ३ गुणवतों और ४ शिक्षावतों) का भी पालन करें तथा उक्त पांचों व्रतोंके अतीचार ( दोष) भी बचावें इन व्रतोंके निर्दोष पालन करनेसे न तो राज्यदंड होता है और न पंचदण्ड । ऐसा प्रती पुरुष अपने सदाचारसे सबका आदर्श बन जाता है। इसके विरुध्ध सदाचारी जनों को इस भवमें और पर भवमें भी अनेक प्रकार दंड व दुःख सहने पड़ते है, ऐसा विचार करके इन व्रतोंमें दृढ़ होना चाहिए । यह "शोलवतेष्वनतिनार" भावना है।
(४) हिताहितका स्वरूप विना जाने जीव सदव अपने लिये सुखप्राप्तिकी इच्छासे विपरीत मार्ग ग्रहण कर लेता है। जिससे सुख मिलना तो दूर होजाता है और दुःखका सामना करना पड़ता है। ऐसी अवस्थामे जान सम्पादन करना
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आवश्यक है। क्योंकि जहां चर्म-चक्षु नहीं देख सकते हैं वहां ज्ञान चक्षु ही काम देते है । ज्ञानी पुरुष नेत्रहीन होनेपर भी अज्ञानी आंखवाले से अच्छा है। अज्ञानो न तो लौकिक कार्योहोमें सफल -- मनोरथ होता है और न पारलौकिक हो कुछ साधन कर सकता हैं । वह ठौर दौर उगाया जाता है और अपमानित होता है । इसलिये ज्ञान उपार्जन करना आवश्यक है इत्यादि । विचार करके विद्याभ्यास करना, व कराना सो " अभीक्ष्णज्ञानोपयोग " नामको भावना है ।
( ५ ) इस जीवके विषयानुरागता इतनी बड़ी हुई है कि यदि तोन लोककी समस्त सम्पत्ति इसे भागने को मिल जाए तो मी तृप्ति न हो, तृप्ति तो क्या इसकी विषयाभिलाषाका असंख्य अंश भी पूरा न हो और जीव संसारमें अनन्तानन्त हैं, लोकके पदार्थ भी जितने हैं उतने हो हैं और सभी जीवोंको अभिलाषा ऐसों हो बड़ी हुई हैं, तब यह लोककी सामग्री किस किसकी किस अंश में तृम कर सकती हैं ? किसीको नहीं। ऐसा विचार कर उत्तम पुरुष अपनी इन्द्रियोंकों विषयोंसे रोककर मनको धर्मध्यान में लगा देते हैं। इसीको " संवेग " भावना कहते हैं ।
(६) जबतक मनुष्य किसी भी पदार्थ में ममत्व भाव रखता है, अर्थात् यह मेरो है इत्यादि भाव रखता है तबतक वह कभी सुख नही हो सकता है; क्योंकि पदार्थोंका स्वभाव नाशवान है; जो उत्पन्न हुए सो नियमसे नाश होंगे, जो मिले हैं सो विछुड़ेंगे, इसलिये जो कोई इन पदार्थोको ( जो उसे पूर्व पुण्योदय से प्राप्त हुए है ) अपने आप ही छोड़ देवें ताकि वे (पदार्थ) उसे न छोड़ने पायें तो निःसंदेह दुःख आनेका
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सोलहकारण बने । अवसर ही न रहेगा । इस प्रकार विचार कर जो आहार, औषध, शास्त्र ( विद्या) और अभय, इन चार प्रकारके दानोंको देता हैं तथा अन्य आवश्यक कार्यो में धर्म--प्रभावना व परोपकारमें द्रव्य खर्च करता है उसे ही ' शक्तितस्त्याग" नामकी भावना कहते हैं ।
. (७) यह जीवं स्वस्वरूपको भूला हुमा स वृणित देह में ममत्व करके इसके पोषणार्थ नाना प्रकारके पाप करता है तो भी यह शरीर स्थिर नहीं रहता है। दिनोंदिन सेवा करते २ और सम्हालते २ क्षीण हो जाता है और एक दिन आयुकी स्थिति पूर्ण होते ही छोड़ देता है । सो ऐसे नाशवंत घृणित शरीरमें ( राग ) न करके वास्तविक सच्चे सुखको प्राप्तिके अर्थ इसको लगाना चाहिये ताकि इसका जो जीवके साथ अनन्तानन्स वार सयोग तथा वियोग हुआ है, सो फिर इससे ऐसा वियोगहो कि फिर कभी भी संयोग न हो-- मोक्ष प्राप्त हो जावे । इसमें यही सार है क्योंकि स्वर्ग नक या पशु पर्यायमें तो सपञ्चरण पूर्ण हो ही नहीं सकता है, इसलिये यही श्रेष्ठ अवसर है. ऐसा समझकर अनशन ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवक्त शय्याशन और कायवलेश ये छः बाह्य और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये आभ्यंतर इस प्रकार बारह तपोमें प्रवृत्ति करता है, सो . सातवीं “ शक्तितस्तप" नामकी भावना कहाती है।
(4) धर्मकी प्रवृत्ति धर्मात्माओंसे होती है और धर्म साधुजनोंके आधार है, इसलिये साघुवर्ग में आये हुये उपसर्गोको यथासंभव दूर करना यह " साधुसमाधि" नामकी भावना है।
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सोलहकारण धर्म ।
[ १२३ (९) शरीरमें किसी प्रकारकी रोगादिक बाषा या जानेसे परिणामोम शिथिलता व प्रमाद आ जाना संभव है । इसलिये साधर्मी साधु व ( गुहस्थ । जनोंकी सेवा उपचार करना कर्तव्य है। इस " वयावृत्यकरण" भावना कहते है।
१०) अहंन्त भगवानके द्वारा ही मोक्षमार्गका उपदेश मिलता है। क्योंकि वे प्रभु केवल कहते ही नहीं है किन्तु स्वयं मोक्षके सन्निकट पहुंच गये है । इसलिये उनके गुणोंमें अनुराग करना, उनकी भक्तिपूर्वक पूजन करना सो " अर्हद्भक्ति" भावना है।
(११) विना गुरुके सच्चे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती है और सच्चे उपदेशक, निरपेक्ष हितषी, आचार्य महाराज के गुणोंकी सराहना व उनमें अनुराग करना सो " आचार्य भक्ति '' नाम भावना है।
(१२) अददग्ध पुरुषके द्वारा सच्चे उपदेशको प्राप्ति होना दुर्लभ है, इसलिये समस्त द्वादशांगके पारगामी श्री उपाध्याय महाराजकी भक्ति करना, उनके गुणोंम अनुराग करना सो " बहुश्रुतभक्ति" नाम भावना है ।
(१३) सदा समान भावसे वस्तुस्वरूपको बतलानेवाले जिन सालोंका पठनपाठनादि अभ्यास करना, सो 'प्रवचनभक्ति' नाम भावना है।
(१४) मन वचन कायकी शुभाशुभ क्रियाओंको योग कहते है। इन ही योगोंके द्वारा शुभाशुभ कर्मोका आश्रव होता है। इसलिये यदि आश्रबके द्वारा ये योग रोक दिये जाय, तो संवर (कर्माप्रब बंद ) हो सकता है और संवर करनेका उत्तमोत्तम
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सोलहकारण धर्म ।
उपाय सामायिक मादि आवश्यक है, इसलिये इन्हें नित्यप्रति पालन करना चाहिये । एकासनसे बैठकर अथवा खड़े होकर मन, वमन कायको समस्त व्यापारोंसे रोक कर एकाग्रचित्त करना सो सममावरूप सामायिक हैं। अपने किये हुए दोषोंको | स्मरण कर उनपर पश्चाताप करना मो प्रतिक्रमण हैं । आगेके | लिए यथाशक्ति दोष न होने देने के लिये नियम करना ( दोषोंका 'त्याग करना } सो प्रत्याश्यान है। तीर्थकरादि अर्हत व सिद्धोंके गुण किर्तन करना सो समतन हैं ! मन मन माप शुद्ध करके चार दिशाओं में चार शिरोनति और प्रत्येक दिशामें सीन तीन आवर्त ऐसे बारह आवर्त करके नमस्कार करना सो वंदना ५ हैं और किसी समयका विशेष प्रमाणकरके उतने समय (सक एकासनसे स्थिर रहना तथा उतने समयके भीतर आए
हुए समस्त उपसर्ग व परिषहोंको सहन करना सो कायोत्सर्ग | हैं । इस प्रकार विचार कर इन छहों आवश्यकोंमें जो सावधान | होकर प्रवर्तन करता है सो “ आवश्यका परिहाणी'' नामको भावना है।
(१५) कालदोषसे अथवा उपदेश के अभावसे सांसारिक जीवोंके द्वारा सत्य धर्मपर अनेक आक्षेप होने के कारण उसका लोपसा हो जाता है। धर्म के लोप होनेसे जीव धर्मरहित होकर संसारमें नाना प्रकारके दुःख भोगते हैं। इसलिये ऐसे २ समयोंमें येन केन प्रकारेण समस्त जीवोंपर सत्य (जिन) धर्मका प्रभाव प्रगट कर देना सो ही प्रभावना हैं, और यह प्रभावना जिन धर्मके उपदेषोंके प्रचार करने, शाखोंके प्रकाशन व
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सोलहकारण धर्मं ।
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प्रचारणसे शास्त्रोंके अध्ययन व अध्ययनसे विद्वानोंकी सभायें करानेसे, अपने सदाचरणके कारणसे, लोकोपकारी कार्यं करनेसे, दान देनेसे, संघ निलालने व विद्यामन्दिरोंकी स्थापना व प्रतिष्ठादि करनेसे सत्य व्यवहारसे संयम नियम व तपादिक करनेसे होती है। ऐसा समझकर यथाशक्ति प्रभावनोत्पादक कार्यों में प्रवर्तना सो मार्ग प्रभावना" नाम भावना है ।
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( १६ ) संसार में रहते हुए जीवोंको परस्परकी सहायता व उपकारकी आवश्यकता रहती हैं ऐसी अवस्थामें यदि निष्कपट भावसे अथवा प्रेमपूर्वक सहायता न की तो परस्पर यथार्थं लाभ पहुंचना दुर्लभ ही है, इतना ही नहीं किन्तु परस्पर के विअनेकानेक नियां भी रही हैं। इसलिये यह परमावश्यक कर्तव्य हैं कि प्राणी परस्पर ( गायका अपने बछड़े पर जैसा निष्कपट और गाढ़ प्रेम होता है वैसा ही प्रेम करे। विशेष कर सामियोंके संग तो कृत्रिम प्रेम न करें ऐसा विचार कर जो अपना निष्कपट व्यवहार सामियों तथा प्राणी मात्रसे रखतें हैं । प्रवचन वारसख्य भावना कहते हैं ।
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इन भावनाओंको अन्तकरण से चिंतन करने तथा तदनुसार प्रवर्तन करनेका फल तीर्थकर नाम कर्मके आश्रयका कारण हैं । इस प्रकार भावनाओका स्वरूप कहकर अब व्रतकी विधि कहते हैं.
भादों, माघ और चैत्र (गुजराथी, श्रावण, पोष और फाल्गुन वदी १ से भादों, माघ, चैत्र सुदी १ तक ) मास में ( एक वर्ष में तीन वार ) पूरे एक मास तक व्रत करना चाहिये। इन दिनोंमें तेला बेला आदि उपवास करे अथवा नीरस, एक रस, ऊनोदर
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संहिकारण धर्म ।
आदि एकभुक्त करे, अञ्जन, मञ्जन, अलंकार विशेष धारण न करे शीलव्रत ( ब्रह्मचर्य) रक्खे, नित्य षोडषकारण भावना भावे और यंत्र बनाकर पूजाभिषेक करे, त्रिकाल सामायिक करे और ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभोक्षणज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हतभक्ति आचार्यभक्ति, उपाध्यायभक्ति प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रबचनवात्सल्यादि षोडशकारणेभ्यो नमः ) इस महामंत्रका दिनमें तीन वार १०८ एकसो आठ जाप करें। इस प्रकार इस व्रतको उत्कृष्ट सोलह वर्ष, मध्यम ५ अथवा दो वर्ष और जघन्य १ वर्ष करके यथाशक्ति उद्यापन करें अर्थात् सोलह उपकरण मंदिर में भेट दे और शास्त्रज्ञान करें, विद्याज्ञान करें, शास्त्रभंडार खोले, सरस्वती मंदिर बनावें, उपदेश करावें इत्यादि यदि सव्य खर्च करनेकी शक्ति न हो तो द्विगुणित व्रत करें ।
इस प्रकार ऋषिराजके मुखसे व्रतकी विधि सुनकर कालभैरबो नामको उस ब्राह्मण कन्याने षोडशकारणत्रत उकृष्टरीतिसे पालन किया, तथा भावना भाई और उद्यापन किया । पीछे समाधिमरण कर बीलिंग छेदकर सोलहवें | अच्युत ) स्वर्गमें देव हुई वहांसे बाईस सागर आयुपूर्ण कर वह देव, जम्बूदीपके विदेह क्षेत्रसम्बंधी अमरावती देशके गंधर्व नगरमें राजा श्रीमंदिरकी रानी महादेवी सीमंधर नामक तीर्थंकर पुत्र हुआ । सो योग्य अवस्थाको प्राप्त होकर राज्योचित सुख भोग जिनेश्वर दोक्षा ली और वोर तपश्चरण कर केवल ज्ञान प्राप्त करके बहुत जीवोंको धर्मपदेश दिया तथा आमुके अन्तमें समस्त अघाति कर्मो का भी नाश कर निर्वाणपद प्राप्त किया ।
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________________ सालहकारण घम / [27 इस प्रकार इस व्रतको धारण करनेसे कालभैरवो नामको ब्राह्मण कापाने सुरनरके सुख भोगकर मोक्ष सुख प्राप्त किया तो अन्य जीव इस व्रतको पालन करे तो अवश्य ही उत्तम फलको प्राप्ति होवेगो / पोडश कारण व्रत धरो, कालभैरवी सार / सुरनरके सुख "दीप" लह, लहो मोक्ष अधिकार / / 1 / /