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________________ सोलहकारण धर्म । विघ्नाः पुनः पुनरपि प्रतिहल्यमानाः, प्रारभ्य चोत्तमजनाःन परित्यजन्ति ।। (इति चाणक्यनीति) अर्ध-लौच मनुष्य तो विध्नई: भयंस कागार मन ही नहीं करते हैं, और मध्यम पुरुष प्रारम्भ करके विघ्न आनेपर अधूरा ही छोड़ देते हैं। परन्तु उत्तम पुरुष वारम्वार विश्न आनेपर भी कर्तव्यसे नहीं हटते हैं, अर्थात् आरम्भ किये हुए कार्यको पूरा करके ही छोडते हैं । तात्पर्ष-जो सदैव विघ्नोंसे डरते ही रहते हैं, वे कभी कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं कर सकते हैं, और यदि प्रारम्म किया हो तो सफल नहीं कर सकते हैं, और इस प्रकार होते होते दे इतने पतित हो जाते हैं कि हर एक आदमी उनसे घृणा करने लगते है। वे इतने कायर हो जाते हैं, जिससे सबलोंसे सताये जाते हैं, उनका सर्वस्व हरण हो जाता हैं, और वे घरोंघर मारे मारे फिरते हैं । यहांतक हो जाता है कि उनको उन्होंकी वस्तु भिक्षा मांगनेपर भी पीछे नहीं मिलती है। दूसरी एक बात यह है कि कर्मका उदय सबको सदा एकसा तो रहता ही नहीं है, सदा बदलता रहता है, न जाने किस समय कैसा कर्म उदय आ जाय । तो ऐसे कठिन अवसरमें फिर बिना अभ्यासके क्या कर सकता है ? क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि जो कल धनी थे, जिनको लाखोंकी कोठियां चलती थीं, आज उनका दिवाला निकल गया, वे पसे पैसेको तंग हो गये। जो हृष्टपुष्ट थे, रोगोंसे जर्जरित हो गए । णो रूपवान थे, वे काने, अन्धे, लंगडे और कुरूप हो
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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