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________________ सोलहकारण धर्म । गये । जो बहु कुटुम्बी थे, उनके पीछे कोई नाम लेनेवाला भी नहीं रह गया है, इत्यादि । और कई निर्घनसे घनी, रोगीसे निरोग, कुरूपसे सुक्ष्म और अकेलेसे बहु कुटम्बी हो गये हैं। यह कर्मकी विचित्रता है। जो कर्म पूर्वकालमें बांधे हैं वे । अब हमें आकार, रंग देने में भी। इन ( कोसे) वही सामना कर सकता है, जिसको तपका अभ्यास है । ये ही कर्मरूपी अभेद्य गढ़को भेद सकते हैं, वे ही इस महापर्वतको फोड़ सकते हैं । इसलिये तपका अभ्यास करना आवश्यक है। सपके अभ्यासी कठिनसे कठिन समयमें भी दुःखी नहीं होते हैं, और न उन्हें प्रायः कोई व्याधि ( रोग) ही सताती है । क्योंकि उनका आहार विहार परिमित अवस्थामें रहता है। वे इन्द्रियलंपटतावश होकर कभी सोमा उल्लंघन नहीं करते हैं। आजकल लोग प्राय: अपने पुत्र पुत्रियोंको बाल्यावस्थासे 1 ही इतने सुकुमार ( निर्बल और कायर ) बना देते हैं कि वे थोडी भी सर्दी गर्मी सहन नहीं कर सकते हैं, विना घी दूध चीनी आदि पदार्थों के भोजन ही नहीं कर सकते हैं थोड़ा मसाला कम बढ़ हुआ कि भूखे रह जाते है । देशान्तरोंमें वा निमन्त्रण आदिमें दूसरोंके घरकी रसोई उनको रुचिकर ही नहीं होती है। प्रथम तो कहीं भी जानेहीसे हिचकते हैं, और कहीं भिन्न भिन्न प्रकारका भोजन करना दण्ड समझते हैं, परन्तु जिन्हे अभ्यास है वे कहीं भी भुखे न रहेंगे जिहा-लंपटताके कारण धर्म छोड़ेंगे, उन्हें सरस वा नीरस चाहें जिस प्रकारका भी भोजन क्यों न मिले, परन्त यदि वह धावक धर्मकी क्रियासे अनुकूल भक्ष्य होगा, तो वे सहर्ष खाकर क्षुधाको मिटा लेंगे, उन्हें कुछ भी कष्ट न होगा, वे घुप व ठंडसे किंचित् भी न घबरायेंगे, बात बात में
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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