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सोलहकारण धर्म । ऐसा समझकर स्वशक्तयनुसार सभीको तपका अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि संसारमें यदि दुःख है, तो केवल
आकुलता ( इच्छाओंके होने ) का है और तपसे इच्छाओंका निरोध ( रुकावट ) होता है, अतएव इच्छाओंके रुकते ही दुःख नहीं होता है, और दुःखका न होना ही सुख है इसलिये सुखाभिलाषी प्राणियोंको शक्ति अनुसार तप करना आवश्यक है। तपसे केवल पारमार्थिक सुख होता है, यह बात नहीं है, व्यवहारिक सुख भी होता है । जिनको कुछ भी क्षघा, तृषा, शीत, उष्ण आदि परिषहोंके सहनेका अभ्यास है, वे कहीं भी रुक नहीं सकते हैं, सदा सर्वत्र विहार कर सकते हैं । और अचानक आये हुवे कष्टोंको वीरतासे साम्हना करते हैं । उनसे न तो घबराते हैं, और न खेद ही करते हैं।
आप तो धर्य रखकर कार्य करते ही हैं, परन्तु औरोंको भी सहायता पहचाकर राह लगाते हैं। और अपने व परके धर्मकी रक्षा करते हैं, परन्तु जिन्हे अभ्यास नहीं हैं, वे थोडी ही विघ्न-बाधाओंसे घबराकर धर्म, कर्म भूलकर मार्गभ्रष्ट हो बहुत दुःख पाते हैं।
यह तो निश्चयहीसा है कि-"श्रेयांसी बहुविध्नानि" अर्थात् उत्तम कार्यों में प्रायः बहुत विघ्न आया करते हैं परन्तु जो उनसे नहीं डरते वे ही उत्तम कहे जाते हैं। कहा भी है:
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः, प्रारभ्य विघ्नविहिता चिरमन्ति मध्याः।