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सोलह कारण धम
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अथवा सर्व प्रकारके स्वार्थ बिना जो प्रेम व भक्तिभाव तथा दया करके भूत ( संसारी प्राणी ) और व्रतियोंकी सेवा, सत्कार तदा वैयावृत्त करना है उसको ज्ञानी सत्य कहते है ।
वात्सल्यता धारण करनेसे परस्पर में प्रेम, उदारता, सच'रित्रतादि गुण बढ़ते हैं, प्राणी परस्पर सहानुभूति करना सीखते है, रागद्वेष घटनेसे सुखकी वृद्धि होती है, कार्यका मार्ग सरल हो जाता है, विघ्नों और विघ्नोंका भय नहीं रहता है; क्योंकि जब कोई शत्रु हो नहीं रहेगा, तो विघ्न कौन करेगा, इत्यादि अनेकों लाभ होते हैं ।
यथार्थमें संसारका कार्य भी विना वात्सल्यभावके नहीं 'निकल सकता है। तात्पर्य - वात्सल्य भावसे उभय लोग सम्बन्धी हित साधन होता है, और वित्त सदा प्रसन्न रहता है, कभी भी निरुत्साहता नहीं आने पाती है ।
इसलिये प्रत्येक मनुष्य स्त्री इस्मादि सभी को यह वात्सल्य गुण धारण करना चाहिये । परन्तु स्मरण रहे कि यह वात्सल्यता किसी स्वार्थ व मान मायादि कषायोंको पुष्टिके लिये नहीं, किन्तु निःस्वार्थ भावोंसे केवल परमार्थ ही के लिये होना चाहिये ।
इस प्रकार प्रवचनवत्सल्यत्व नाम भावनाका स्वरूप कहा सो ही कहा है-निर्मल मक्ति प्रमोद घरे, वो संघतनो सत्कार करीजें । दीन दुखी लख जीव सदा, करुणा करके चहुं दान सु दीजे ॥ धेनु यथा निज बालकपर, कर प्रेम सुधी छल आदि तजीजे । ज्ञान कहे मवि लोक सुनो, घर वत्सन्यभाव सदा सुख लीजे ॥ इति वात्सल्य भावना ॥ १६ ॥