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________________ ..... -- - सोलहकारण धर्म । कभी किसी चीजको उन्हे प्रबल इच्छा नहीं होती, चाहे ये किसी कर्मसे उदयसे व्रत न भी कर सकें तो व्रत्तों में उनकी प्रद्धा व सहानुभूति रहती है। यही मोक्षमार्गकी प्रथम सोपान (सीढ़ी ) हैं। इसलिये इसे ही २५ मल-दोषोंसे रहित और अष्ट अंग सहित धारण करें, इसके विना ज्ञान और चारित्र सब निष्फल ( मिथ्या ) हैं, यही " दर्शनविशुद्धि" नामकी प्रथम भावना है। - -- - --- २) जीव ( मनुष्य ) संसारमें जो सबकी दृष्टिसे उतर जाता है उसका कारण केवल अहंकार (मान) है. भले ही यह मानी अपनी समझ में अपने आपको बड़ा माने, परन्तु क्या कौआ मंदिरके शिखरपर बैठ जानेसे गरुड़पक्षी हो सकता है ? कभी नहीं कभी नहीं । सबही प्राणी उससे घृणा करते हैं । कदाचित् उसके पूर्व पुण्योदयसे उसके कोई कुछ न कह सके, तो भी क्या वह किसी के मन को बदल सकता है ? जो उपरको देखकर चलता है वह अवश्य ही नीचे गिरता है। ऐसे मानी पुरुषको कोई विद्या सिध्ध नहीं होती है, क्योंकि वह विद्या विनयसे आती हैं। मानी पुरुष सदा चित्तमें खेदित रहता है क्योंकि वह सदा सबसे सम्मान कराना चाहता हैं, जो कि होना असम्भव है। इसलिये निरंतर अपनेसे बड़ोंमें सदा चित्तमें सदा विनयपूर्वक वर्ताव करना चाहिये, समान { बराबरीवालों) पुरुषों में प्रेम और छोटोंमें करुणाभावसे प्रवर्तना चाहिये, और सदैव अपने दोषोंको स्वीकार करने में सावधान रहना चाहिये, क्योंकि जो मानी अपने दोष नहीं स्वीकार करता है उसके इषदोबढ़ते ही जाते है वह कभी उनसे मुक्त नहीं हो सकता है। सलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार इन पांच प्रकारको विनयोंका स्वरूप विचारकर विमयपूर्वक प्रवर्तन करम
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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