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सोलहकारण धर्मं ।
और पंडित मेघावीजीने निम्न प्रकार कहा है
आप्तपरो न देवास्ति धर्मात्तद्भाषिताच हि । निषाद गुरुस्ती टोचनम्॥ २५९ ॥ धर्म संग्रह श्रावकाचार म० ४ )
समिति
अर्थ- आप्त. ( सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशीपनेको धारण करनेवाले देव ) और आमहीका कहा हुआ धर्म ( जिनधर्म तथा नियन्य गुरु ( सब प्रकारके बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित बीतराग मार्ग पर चलनेवाले ) के सिवाय अन्य रागो द्वेषी देव, हिंसामई विजय कषायांको पुष्ट करनेवाले धर्म ओर भेषी या सपरिग्रही गुरुओंको कल्याणकारी नहीं मानना | अवधि सत्यार्थ देव गुरु और धर्मका पका श्रज्ञान होना सो सम्यग्दर्शन है ।
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इसी प्रकार भिन्न भिन्न आचार्योंने सम्यग्दर्शनका स्वरूप कार्य, कारण व निश्चय व्यवहारको मुख्यता तथा गौणतासे भिन्न प्रकार का है । परन्तु तात्पर्य सबका एक ही है । अर्थात् स्वस्वरूप श्रद्धान होने ( भेद विज्ञानको प्राप्त होने ) के लिये जोवादि तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान होना परम आवश्यक है । और उन ( जीवादि तत्वांके कान करानेके लिये उनके कथन करनेवाले आप्त ( देव ), अगम ( धर्म) और गुरुका श्रद्धान होना आवश्यक है। इसलिये कारण में कार्यका आरोपण करके यह कहा गया है । क्योंकि देव गुरु, श्रर्भके छानसे श्रीवादि तत्वोंका श्रद्धान होता है । और जीबादि तत्वोंके श्रद्धा नसे निज स्वरूपका श्रद्धान होता है । निज स्वरूपका श्रद्धा होना ही सम्यग्दर्शन होने रूप कार्य है । और शेष दोनों लक्षण उत्तरोत्तर कारण स्वरूप तथा कारणके कारण स्वरूप
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