SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोलहकारण धर्म । (जो कि: प्राय वा का मामला अक्ति, राह दिया बाय) करते हुए देश देशांतरोंमें भ्रमण करके जीवोंके कल्याणार्थ उपदेश करते थे । धे केवल उपदेश नहीं करते थे किन्तु उपदिष्ट मार्गपर चलकर दिखाते थे । उनका उपदेश निरपेक्ष बृद्धिसे सब जीवोंके लिये समानतासे होता था। वे पात्रका विचार कर उसके योग्य ही उपदेश देते थे, किसीसे उन्हें ग्लानि न होती थी। उन्होने दुर्गन्धादि, चाण्डालों व पशुओं तकको उपदेश देकर सम्यक्त्व अंगीकार कराया, तथा वतादि देकर उनको सन्मार्गमें लगाया है । यही कारण था, कि उनका प्रभाव सिंह व्याघ्रादि जैसे हिंसक प्राणियोंपर भी पड़ता था जिससे कि वे कर प्राणी उनके दर्शन मात्रसे ही करता छोड देते थे। यद्यपि आजकल हमारे अशुभोदयसे उनका अभाव है तो भी सद्गृहस्थोंद्वारा यह कार्य अवश्य किसी अंशमें सफल हो सकता है । वर्तमान समयमें उपदेशकोंकी बहुत ही आवश्यकता है। देखो, इन अर्वाचीन क्रिश्चियन आदिके मतोंका प्रचार उपदेशकों के ही द्वारा इतना बढ़ गया है, कि वर्तमान संसारमें प्रायः सब जगह करोडों ईसाई बढ़ते जाते हैं। क्योंकि आजकल उनके लाखों उपदेशक यत्रतत्र विचरते हैं । और वे हर प्रकारसे लोगोंकी सहायता करते तथा उपदेशादि देते हैं । दूसरा उपाय प्रभावनाका यह है कि जैनधर्मके ग्रंथोंका. प्रचार करना। प्रत्येक विषयक लेख, ट्रेक्ट रूपसे छपाकर सर्वसाधारणमें बंटवाना चाहिये । पुस्तकालय, वाचनालय और विद्यालय खोलना चाहिये, समाचारपत्रों में प्रभावक लोगोंके । द्वारा लेखोंको लिखवाकर प्रकाशित करना चाहिये । प्राचीन ग्रन्योंका संरक्षण, पठनपाठन तथा प्रकापान होना पाहिये । तथा
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy