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________________ नोबहकारव वर्ष । (१५) आचार्यभक्ति भावना। आचार्यभक्ति भावना-अर्थात् दीक्षा शिक्षा देनेवाले गुरुको । उपासना करना । आचार्य-गुरु (प्राणियोंको असत् मार्गसे छुडाकर सत्. मार्गमें लगानेवाले, दीक्षा शिक्षा देने वाले और लगे हुए दोषों से प्रायश्चितादि देकर विधियुक्त संस्करण करनेवाले संघाषिपति) को कहते हैं। संघाधिपति-आचार्य दो प्रकारके होते है-एक तो गृहस्थाचार्य और दूसरे निर्ग्रन्थाचार्य । गृहस्थ संघपति भी दो प्रकारके होते हैं-एक तो वे जो गृहस्थोंको विद्या और कलाकौशल्यकी शिक्षा देते हैं तथा गर्भादि संस्कार कराते हैं। इन्हें गृहस्याचार्य कहते हैं। ये लोग स्वतंत्र रीतिसे निरपेक्ष होकर विद्या पढ़ाते, कलाकौशल सिखाते, नीतिमार्ग ( व्यवहार धर्म ) का उपदेश करते, और गर्भाधानादि षोड़श संस्कार कराते, तथा प्रतिष्ठादि यज्ञ क्रिया करवाते हैं । और शिष्योंके द्वारा प्राप्त भेंट (द्रव्य) में संतोपवृत्ति धारणकर अपना और अपने कुटुम्बका पोषण करते हैं। कभी किसीसे कुछ भी याचना नहीं करते हैं । . केवल अपने सदाचारके प्रभावसे ही लोगोंको आज्ञाकारी बनाते हैं। दूसरे संघाधिपति गृहस्थ-राजा होता है, जो स्वयं सदाधारी होकर अपनी प्रमाको विद्या, बल, बुद्धि और पराक्रमसे वश करके असत मार्गसे रोककर सत् मार्गपर चलाता है
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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