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________________ ७६ ) सोलहकारण धर्म | और परचक कृत प्रजापर आये हुये उपसर्गो (उपद्रवको अपने - बलवों) को अपने बल व बुद्धिसे दूर कर प्रजाकी रक्षा करके धर्मको तथा नीतिको प्रवृत्ति करता है । राजा अपना प्रभाव सदाचारसे ही प्रजापर डालता है, परतु कभी आवश्यकता होने पर दण्डनीतिका भी अवलम्बन करता है क्योंकि विना भयसे आज्ञा प्रवृत्ति नहीं होती है, सो विद्वान तो परलोक भय या पापके भय से असत् मार्ग छोड़ देते हैं, परन्तु जनसाधारण मूर्ख विना इस लोकभय अर्थात् दण्डनीति ( ताड़न करना ! के असत् मार्ग नहीं फिरते हैं । इसलिये राजाको यह करना हो पडता है। यदि राजा ऐसा न करे, अर्थात् दुष्टोंको दण्ड न देवे, तो सज्जन शिष्ट पुरुषों का रहना हो कठिन हो जाय, संसार में धर्म और नीति उठ जाय, लोग स्वच्छन्द होकर मनमाने कार्य किया करें, दीन हीन निर्बल प्राणिया जावन निर्वाह भी होना दुष्क्रय हो जाय. " जिसको लाठी उसकी भैंस " वालो कहावत चरितार्थ हो जाय, इत्यादि । ! इसलिये प्रत्येक संघ में संवाधिपति तो अवश्य ही चाहिये । जिस प्रकार गृहस्थोंमें संघाधिपति होते हैं, उसी प्रकार साधुओं में भी संघाधिपति होना आवश्यक है, इसे कोई कोई आचार्य निर्ग्रन्थाचार्य, महंत, सूर, गुरु आदि अनेक नामोंसे पुकारते हैं । यद्यपि संघके सभी साधु निर्ग्रन्थ अड्डाबोस मूलगुणधारी होते हैं, तो भी भावोंकी विचित्र गति है । * पंच महाव्रत, समितिपण, आवश्यक पट् जान | इन्द्रिय दमन अरु भू शयन, सकृद्द्भुक्ति पान || अल्प असन लें स्वाद बिन, कर न दांतन पान । केश उखाड़े हाथसे, तजके अम्बर स्नान || आठवीस गुण मूल ये, कहे साधुके सार । उत्तर लख चौरासि हैं, देखो मूलाधार ॥ ( दीप )
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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