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________________ CAT सोलहकारण धर्म । [८५ भायोंकी प्राप्ति होती है । इसमें मन, वचन, कायकी शुभाशुभ प्रवृत्तिको रोककर शत्रु, मित्र, महल, मशान, मणि कांच, तृण, कंचन, सुख दुःख, जीवन मरण, स्वजन परजन, रंक 'श्रोमान्. राजा प्रजा इत्यादिमें रागद्वेष रहित समभाव धारण करना । अर्थात् यह विचार करना कि मैं इन सब पदार्थोसे भिल सच्चिदानंद स्वरूप अखंड एक अविनाशी चैतन्य आत्मा स्वयंभू हूँ, और यह जो कुछ दृष्टिगोचर होता है; सो सब मोहष्टिसे ही इष्टानिष्ट स्वरूप भासता है. इसमें मेरा कुछ भी नहीं । यह तो केवल पौद्गलिक विकार हैं, इससे मेरा अनादि कालसे संयोग सम्बन्ध हो रहा है। साइशर सम्बंग नहीं है। क्योंकि ये सब मुझसे भिन्न हैं । और तो क्या, या शरीर भी (जिससे मैं वतमानमें मिल रहा ह') मेरा नहीं है, तो फिर अन्य पदार्थ तो प्रत्यक्ष भिन्न ही हैं। सो इनमें रागद्वेष करके मैं अपने सच्चिदानंद स्वरूप आत्माको क्यों दुखी करू ? इत्यादि वैराग्य भावों के द्वारा साम्यभाव धारण करता है, यही सामायिक है। इससे आस्रवका द्वार बन्द हो जाता है अर्थात् संवर होता है 1 क्योंकि मन वचन कायकी क्रिया आसे हो कर्मका आस्रव होला है। आस्रव अर्थात् योगोंको "प्रवृत्तिका रुकना सो ही संवर कहाता है। (२)-स्तवन-चतुर्विशत् तीर्थंकरों व पंचपरमेष्ठीके गुणानुवाद गाना अर्थात् उनके गुणोंको स्मरण करके प्रशंसा-स्तुति करना, सो स्तवन है। जैसे स्वयंभु सहस्त्रनामादि स्तोत्रका सार्थ मनन करना । . (३)-वंदन-किसी एक तीर्थकर अथवा एक परमेष्ठीको स्तुति भक्ति वंदनादि करना सो वंदन है। जैसे मक्तामर महावीराष्टक पार्श्वनाथस्तोत्रादि सार्थ (अर्थ समझ समझकर)
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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