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________________ ८६] सोलहकारण धर्म । मनन करना ! इससे यह अभिप्राय नहीं है कि अमुक कविका बनाया हुआ अमुक स्तों ही पढ़ा जाय, किन्तु उक्त आशयको लिये हुए कोई भी स्तोत्र किसीका किया हुआ, भाषाम हो १ संस्कृत प्राकृत ( जो भलीभांति समझमें आवे ) चाहे स्वयम् भक्तिवश रचकर तैयार किया हो सो पढ़कर शिरोनति नमस्कार आदि क्रिया करना । (४)-प्रतिक्रमण-अपने मन, वचन, कायमें तथा कृत फारित अनुमोदनासे भूतकालमें किये हुए पापों अर्थात् प्रमादादि कषायके कारण लगे हुए दोषोंका स्मरण करके, स्वात्म निंदा करते हुए, उन दोषोके परिहारार्थ, अपने गुरुके निकट अथवा गुरुके अभावमें जिन प्रतिमाके सन्मुख अथवा किसी एकान्त स्थानमें बैठकर आलोचना करे और उनके झूठे होने अर्थ यथोचित प्रायश्चित्त लेवे, 'ताकि किये हुए पापोंसे निवृत्ति मिले-निराकुलता हो । इसे ही प्रतिक्रमण कहते हैं ।। (५) प्रत्याख्यान भविष्य में यमरूप ( यावज्जीव ) अथवा नियमरूप ( कुछ कालको मर्यादा लिये हुए ) से पापक्रियाओंका त्याग करे, अर्थात् आगामी उनके न करनेकी प्रतिज्ञा करे, ताकि मन और इन्द्रियां वशमें हों इसे प्रत्याख्यान कहते हैं। (६)-कायोत्सर्ग--शरोरसे ममत्व भावका त्याग कर मनको सब ओरसे रोककर किसी एक स्थानमें अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें अथवा पंचपरमेष्ठीके गुण चितवनमें लगाना, सो जहांतक हो परपदार्थोसे भिन्न अपने आत्मामें ही स्थिर करना इसे शुक्लध्यान कहते हैं। यदि इतता न हो सके तो तत्त्व चितवन या जिनेन्द्र गुण स्तवन आदिमें लगावे, (इसे *धर्मध्यान कहते हैं ) और ध्यानके समयमें आये हुए उपसर्ग तथा परी * घ्यानका विशेष स्वरूप 'ज्ञानार्णव ' ग्रन्थमें देखो।
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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