SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ ५३ सोलहकारण धर्म। पाप पहार गिरावनको तप, शक्ति समान अवांछक कीजे । F वाहिज अंतर बारह भेद, तपो तप पाप जलांजलि दीजे ॥ - भाव घरी तप घोर करी, नर-जन्मतनो फल काहे न लीजे। ज्ञान कहे तप जो नर भावत, ताके अनेक ही पातक छीजे ॥७॥ इति तप भावना । (८) साधुसमाधि भावना । साधु समाधि अर्थात् आयुके अंतमें नि:शल्य होकर 'प्राणोंका विसर्जन करना इसे साधु समाधि अथवा संन्यास मरण कहते हैं। जिस समय प्राणो अपनी वृद्धावस्था हुई जाने अथवा अपने आपको असाध्य रोगसे प्रसित हुआ देखे अथवा शत्रुके सन्मुख युद्धस्थलमें मरणोन्मुख घावोंसे जर्जस्ति शरीर हुआ जाने या अन्य प्रकारसे शत्रुके हस्तगत हो मृत्युका -साम्हना लाचार होकर करना पड़े या अथाह समुद्र में नाव आदिके टूट जाने व अन्य कारणोंसे गिर पहा हो, गिरि वनादिमें मार्गभ्रष्ट हो गया हो, चहुँ ओर अग्निकी ज्वालाओंसे गिर गया हो अथवा और भो किसी प्रकारसे जब उसे यह निश्चय हो जाये, कि अब अवश्य हो मुझे इस वर्तमान शरीरको छोड़ना ही पड़ेगा, अब इसकी रक्षाका कोई उपाय नहीं है, तो निशल्प होकर अर्थात माया, मिथ्या और निदान इन तीनों
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy