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________________ ५६ ] सोलहकारण धर्मं । कषायोंके मन्द करनेका अभ्यास है । जिन्होंने अपने शरीरको इतना दृढ़ बना रखा है, और मन तथा इन्द्रियों को वश कर लिया है, जो रागद्वेषादि शत्रुओंके आधित नहीं हैं, जिनके अन्तरंग से संसार में कोई शत्रु नहीं है. जो सदा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओंका विचार किया करते हैं, जिन्होंने इच्छाओंका सर्वथा नाश कर दिया है, जो चारों प्रकारके ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) पुरुषार्थोके साधन में तत्पर रहते हैं जो प्रमाद और कायरतासे पराङ्गमुख हैं जो मोह, शोक, मय, ग्लानि, चिता, हास्य, रति अरति इत्यादिमें कभी नहीं रहते हैं, जो सदा स्वदोष स्वीकार और परगुण ग्रहण करनेको तत्पर रहते हैं, और स्वगुण कीर्तन व परदोष कथन से अपने आपको बचाते रहते हैं सदा साधु ( सत्पुरुषों ) जनोंकी संगति में अथवा ज्ञानाभ्यास में कालयापन करते हैं, स्वपर उपकारमें दत्तचित्त रहते हैं, सांसारिक सुखोंको भोगते हुवे भी उनसे विरक्त रहते हैं जो सदा प्रसन्नमुख रहते हैं, मृत्युको अपना उपकारी समझते हैं इत्यादि, इस प्रकारके चिराभ्यासी पुरुष ही समाधिमरण कर सकते हैं। जिस प्रकार घर में आग लगनेपर कुआ खोदकर घरकी रक्षा करना कठिन है, उसी प्रकार आसन्न - मृत्यु पुरुषको समाधिमरणका प्राप्त होना कठिन है; क्योंकि जीवको आयुकर्मके सिवाय अन्य सात कर्मोका बन्ध प्रति समय होता ही रहता है और उसीके अनुसार त्रिवली में आयुका वन्ध होता है तथा बन्धके अनुसार ही अन्तसमय में परिणाम हो जाते हैं । इसलिये उससे कदापि समाधिमरण नहीं हो सकता है, इसलिये पहिलेसे हो अभ्यास करना आवश्यक है
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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