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________________ सोलहकारण धर्म । ...[ ६१ विनय और वैयावृत्य में केवल अन्तर यही है कि विनय तो केवल बयोवृद्ध, गुण वृद्ध, ज्ञानवृद्ध, चामिअवद्ध और तपादि गुणवद्ध सम्यग्दर्शनके धारी पुरुषोंको उनके गुणोंका अनुकरण करने व उनके गुणोंकी प्राप्तिके अर्थ की जाती है, और वैयावृत्य केवल अस्वस्थ (रोगावस्था) अवस्थमें प्राणीमात्रको उनको रोगमुक्त करने के लिये की जाती है। वैयायय करनेवाले पुरुषको निविचिकित्सा अङ्ग अवश्य ही धारण करना पड़ता है । क्योंकि बात पित्त मौर कफादिके प्रकोपसे प्राणियोके शरीरमें अनेक प्रकारकी इणित व्याधियां जैसे- ज्वर, दमा, कफ, खांसी, श्वांस, सन्निपात, फोडा, फुन्सी आदि उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके कारण पसीना (पसेव=स्वेद), लार. पीब, लोहूं, मल, मूत्र, कफ आदि दुषित पदार्थ शरीरसे निकालने (बढे लगते हैं। मक्खी, चिऊंटी, चींटा, मंकोडा, मच्छर आदि जीव उसे घेर लेते है, उसके श्वासोश्वास में भी दुगध निकलने लगती है। ऐसी निर्बल अवस्था में प्राणियोंका घेय छूट जाता है, वे अनेक प्रकारके अनर्थ, रोगसे कायर होकर कर बैठते हैं। इसलिये उनकी ऐसी दीन हीन अवस्थामें ग्लानि रहित भक्त व दयाभाव पुरुष ही उनकी सेवा मुथूषा । वैयावृत्य ) कर सकता है । यह महान पुण्योत्पादक कार्य नाक मुह सिकोड़नेवाले दरपोक कायरोंके भाग्य में ही प्राप्त नहीं हो सकता है। भला, जिस अवस्थामें साथी पुत्र, कलत्र, बांधव, मित्र, पडौसी, सेवक, सम्बन्धी आदि ही छोड़कर चले जाते हैं यहांतक कि रोगी स्वयं ही अपने शरीरसे उदार होकर ग्लानियुक्त हो जाता है तब क्या कह सकते हैं कि अन्य कायर ग्लानियुक्त मनुष्योसे यह पुण्यकार्य सपादन हो सकेगा? कभी नहीं,
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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