________________
सोलहकारण धर्म । तीर्थकर प्रकृतिका उदय होता है, उसी भवमें यह जीव सम्पूर्ण घाति अधाति कोका नाश कर सिद्धपद (निर्वाण } को प्राप्त होता है। इसलिये यह तीर्थङ्कर प्रकृति सर्वथा उपादेय ( प्राप्त करने योग्य ) है।
सो जब कोई जीव उपर्युक्त सोलह भावनाएं, किसी केवली तथा श्रुत केवलोके निकट प्राप्त होकर भाता है और निरन्तर इनका विचार करके तन्मयी हो जाता है तब उसका तीर्थङ्कर प्रकृतिका आस्रव तथा बंध होता है । इसलिये यहां उन्हीं परम पुण्यकी कारण सोलह भावनाओंका स्वरूप विशेष रुपसे वर्णन किया जाता है !
सबसे प्रथम और मुख्य भावना दर्शन विशुद्धि है । क्योंकि दर्शन । सम्यकदर्शन या सम्यक्त) की शुद्धता बिना शेष भावनाएं कार्यकारी नहीं हो सकती हैं । नहा है।
दशन ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधार तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते ।. ३१ ।' विद्यावनस्य संभृतिस्थितिधुद्धिफलोदयाः । न मन्त्यसति सम्यक्त्वे जीजाभावे तरोरिव ॥ ३२ ॥
रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थात्-जान और चारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन ही मुख्यतया उपासना की जाती है। क्योंकि वह मोक्षमार्गमें लेवटियाके समान' कहा जाता है । जैसे बीजके विना वृक्षकी स्थिति, वृद्धि और फल आदिको संभावना ही नहीं होती है उसी प्रकार सम्यक्त्वके विना ज्ञान और चारित्रकी स्थिति बुद्धि और फलदातृत्वको संभावना ही नहीं होती है । इसलिये सबसे प्रथम दर्शनविशुद्धि भावनाको ही कहते हैं ।