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________________ ६४ ] सोलहकारण धर्मं । उत्तम और मध्यम पुरुषोंमें तो केवल साधु महात्मा ही गिने जाते हैं जो उस उच्चावस्थाको पहूच चूके हैं, और जिनके परिणाम घोरतम उपसर्ग तथा परीषहादि आनेपर भी अचल मेरुवत् चलायमान नहीं होते हैं, और जघन्यमें साधु आदि गृहस्थ भी होते हैं । J मुनि, आर्यिका श्रावक और धाविका इनकी वैयावृत्य करना सो तो भक्तिकी अपेक्षासे होती है । और इनसे इतर प्राणीमात्रकी वैयावृत्य करना है सो करुणा ( दया ) अपेक्षा है । 1 वैयावृत्यमें ये दो ( भक्ति और करुणा ) ही कारण प्रधान हो सकते हैं । जब कि मुनि साधु ) भी अपने संघकी वैयावृत्य करते हैं, तब गृहस्थोंका तो यह मुख्य कर्तव्य होना हो चाहिये । देखो, भगवती आराधनासार ग्रन्थ में एक साधुकी वैयावृत्य करने के लिये अड़तालीस | ४८ ) साधु ( उत्कृष्ट रीतिसे । और ( जघन्य रीतिसे ) कमसेकम दो साघु अवश्य ही रहते हैं, जिससे क्षपक अस्वस्थ साधु ) के परिणामोंमें कुछ विकल्प न होने पावे, और व्यावृत्य करनेवालोंके भी अपनी नित्यावश्यक क्रियाओं में कुछ बाधा न पहुंचने पावे । तात्पर्य - साबु भी वैयावृत्य करना अपना एक धर्म समझतें हैं, क्योंकि वैयावृत्य अन्तरंगमेंसे एक तप है । और तप निजराका कारण है तत्र गृहस्थको तो समझना ही चाहिये । साधुकी वैयावृत्य - तो केवल उनके योग्य वस्तिकाका प्रबंध कर देना, भोजनके साथ उसी समय उनकी प्रवृत्ति द्रव्य, क्षेत्र और कालानुसार योग्य प्रासुक औषधि देना, हस्त पादादि छापना, पुस्तक, पोछी, कमण्डलु सांथरा ( बिछानेको घांस ) आदिका प्रबंध कर देना, और नम्र विनययुक्त मधुर वचनोंसे स्तुतिरूप संबोधन करना इत्यादि है ।
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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