SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० ] सोनहकारण धर्मं । : इसने क्षेत्रका क्षेत्रफल दो हजार कोषके योजनके हिसाब से ४५ लाख योजन है। जीव कर्मके मुक्त होनेपर अपनी स्वाभाविक गतिके अनुसार ऊर्ध्वगमन करते हैं। इसलिये जितने क्षेत्रक जीव मोक्ष प्राप्त करके ऊर्ध्वगमन करके लोक-शिखर के अन्तमें जाकर धर्म द्रव्यका आगे प्रभाव होनेके कारण ठहर जाते हैं, उतने क्षेत्रको ( लोकके अन्तवाले क्षेत्रको ) सिद्धशिला व सिद्धक्षेत्र कहते हैं। इस प्रकार सिद्धक्षेत्र भी पैतालीस लाख योजनहीका ठहरा । इस द्वीप में पंचमेरु ओर तत्सम्बधी विदेह क्षेत्र तथा पांच भारत और पांच ऐरावत क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रोंमेंसे जीव रत्नत्रय द्वारा कर्मनाश कर सकता है। इसके सिवाय और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, वहां भोषभूमि ( युगलिया ) को दीति प्रचलित है : अर्थात् वहांके जीव मनुष्यादि अपनी संपूर्ण मायु विषयभोगोंहोम बिता दिया करते हैं। उनकी बढ़ी बड़ो आयु होती हैं. आहार कम होता हैं, उनमें सब समान राजा प्रजाके भेद रहित होते हैं । उनको सब प्रकार की भोगसामग्री कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त होती है । इसलिये वे व्यापार धंदा आदिको झंझटसे बचे रहते हैं । इस प्रकार वे ( बहांके जीव ) आयु पूर्ण कर मंद कषायोंके कारण देवगतिको प्राप्त होते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके आर्य खण्डों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी (कल्प कालके ) छः काल - सुखमा सुख मा. सुखमा सुखमा, दुखमा, दुखमा सुखमा, दुखमा, और दुखमा दुलमाकी प्रवृत्ति होती हैं इनमें भी प्रथमके तोन कालों में तो भोगभूमिका ही रीति प्रचलित रहती हैं, भर दोन काल कर्मभूमिके होते है, इसलिये इन शेष कालोमें धौया दुखमा सुखमा कास है जिसमें त्रेसठ शलाका आदि महापुरुष उत्पन्न होते है । और छठवे कानमें क्रमसे आयु, काय, बल वीर्य घटता
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy