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________________ ३६ ] सोलहकारेण कर्म । क्या है ? वे तो निरे स्वार्थी ही हैं । जबतक उनसे मिष्ट भाषण करते रहोगे, उनके द्वारा होते अनर्थो में अन्यायोंपर दृष्टिपात न करोगे, उनकी इच्छा पुकार कर देवेंने यहांतक वे भी तुम्हारी स्तुति करेंगे, तुम्हें पिता, दादा, भाई, मित्र स्वामी, बेटा आदि अनेक नाते लगाकर संबोधन करते रहेंगे, तुम्हारे दुःख दर्द में यहांतक प्रीति दिखाएंगे कि यदि तुम्हारे लिये उनका शरीर भी लग जाय तो लगाने को तैयार है, परन्तु यह सब दिखावा मात्र है, अवसर मानेपर सब दूर भाग जांयेंगे और एक दूसरेका मुंह देखने लगेंगे, कोई भी साथ देनेवाला दृष्टिगोचर न होगा । जैसे मिठास देखकर मक्खियां भन भन करके घेर लेती हैं. उसी प्रकार ये लोग भी पच इन्द्रिय मनुष्याकारकी बड़ी बड़ी मक्खियां हैं। ये अर्थ ( द्रव्य और काम ( विषय ) के नोलुपी जहांतक स्वार्थ देखते हैं, लिपटे रहते हैं, परन्तु ज्यों ही द्रव्यरूपी रक्त मांस सुखा, त्यों ही मुर्दोंके समान छोड़ देते हैं । इसलिये ऐसे स्वार्थीजनोंसे प्रेम कर उनके लिए अपने आत्माका बिगाड़ करना उचित नहीं है । इस प्रकार संसार देह भोगोंके स्वरूपका विचार कर उनसे सदा भयभीत रहना, उनमें मग्न न होना, यथाशक्ति उनसे दूर रहकर धर्मका सेवन करना, यही सवेग भावना है। धर्म' वस्तुके स्वभावको कहते हैं । उत्तमक्षमादि दश प्रकारु भी धर्म कहा है । रत्नत्रयवो भी धर्म कहते हैं और अहिंसा पालन करना भी धर्म है । यद्यपि यहां चार प्रकार धर्म कहा है परन्तु यथार्थ में इन चारोंमें कुछ भी अंतर नहीं भिनता १ देखो दशलक्षणधर्म पुस्तक ।
SR No.090455
Book TitleSolahkaran Dharma Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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