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सोनाहकारण धर्म । कुन्दकुन्दस्वामीने कहा भी हैदसणभट्टा भट्टा दसणमट्टस्य पत्थि णिवाणं । सिज्मति चरियभट्टा दंसणभट्टा पा मिज्झति ॥३।।
-दर्शन पाहुड । अर्थ-सम्यग्दर्शन भ्रष्ट जीव' ही भ्रष्ट कहा जाता है। सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट जीवको निर्वाणपद नहीं प्राप्त होता है । चारित्र रहितको तो कभी भी हो सकता हैं, पर दर्शन भ्रष्ट तो कभी भी सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है।
इस प्रकार संक्षिप्तसे दर्शनविशुध्धि भावनाका स्वरूप कहा । अब शेष भावनाओंका स्वरूप कहते हैं। यद्यपि यह दर्शनविशुध्धि भावना इतनी विस्तृत है कि इसके अंतर्गत
और सब भावनायें आ जाती हैं, तथापि भिन्न भिषा करके समझाते हैं । परन्तु यह स्मरण रहे कि इस साधनाके बिना अन्य भावनाएं कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं। वे सब इसीके साथ साथ फलवती होती हैं । इसलिये इसे न भुलाकर ही उन्हें चितवन करना चाहिए । सो ही कहा हैदर्शन शुद्ध न होवत जबलग, तबलग जीव मित्थ्याति कहावे। काल अनन्त फिरे भवमें, अरु दुःखनकी काहिं पार न पावे। दोष पचीस रहित वसुगुणयुत, सम्यग्दर्शन शुद्ध कहावे । ज्ञान कहे तर सोहि बड़ो जो मिथ्यात तमी जिन मारग घ्यावे॥
इति दर्शनविशुब्धि भावना।
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