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सोलहकारण धर्म। अर्थ-परोपकारके लिये वृक्ष फलते हैं, गाय दूध देती है, -मदी बहती है, तब यह शरोर भो परोपकारके लिये है। और कहा है--
तरुवर कबहु न फल भख, नदी न पीये नीर । पर उपकार ही कारणे, धन जिन घरो शरीर ।। समदान-मध्यम है क्योंकि यहांपर परम्पराके व्यवहार चलानेहोकी मुख्यता है और यह गृहस्थोंको कभी कभी लाचार होकर, पासमें द्रव्य न होते हुवे भी उधार लेकर करना पड़ता है, यह यथार्थमें दान नहीं है अदलेका बदला, गलाना भूण है, जो देना लेना पड़ता है। इसको इस समय विशेष आवश्यकता बढ़ाने को नहीं हैं।
कोतिदान---यह निकृष्ट वा कुदान है। इसको बिल्कुल हो आवश्यकता नहीं है । क्योकि इससे दाता और पात्र दोनोंके विषयकषायों तीव्रता होतो है। इस दानने ही इस देशमें भिखारियोंको संख्या बढ़ा दी है, या यों कहो कि देशको भिखारो बना दिया है, इसी दानके लोलुपी बडे बडे लष्टमुष्ट संडे मुस्तन्डे पबहते लोग परिश्रमसे परांग्मुख होकर झदसे अनेक प्रकारके दोग बना कर मांगने लग जाते हैं ।
वे कहते हैं" जो विना परिश्रमसे आय, दो काम करे बलाय !"
हाय ! ए निलं कायर पुरुष कैसे ढोंग रचते हैं ? कोई चमोठा लेकर भस्म लगाये घूमते हैं, कोई जटा बढ़ाये फिरते हैं, कोई२ कफनो रंगे, कोई नख बढ़ाये, कोई नो रमाये रहते है, कोई उल्टे चटक जाते हैं, कोई अमीनमें सिर गाड़कर