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सोलहकारण धर्म ।। सत्यार्थ गुरुका स्वरूप-- विषयाशायशाती तो निरारम्भोऽपरिग्रहः । शानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० ॥
( रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थ-जो पांचों इन्द्रियों के विषयोंकी आशाके वशसे रहित हो, आरम्भ रहित हो, दश प्रकार बाह्य (क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी. दास, कुष्य और भांड। और चौदह प्रकार अन्तरङ्ग ( मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद ) परिग्रहोंसे रहित हो । ज्ञान (सम्यग्ज्ञान), ध्यान (धर्म या शुलाम्यान ) तप ( अनशन, ऊनोदर-अवमोदर्य, प्रतपरिसंख्यान, रस परित्याग. विविक्त शय्यासन और कायक्लेश अर्थात् परिषह तथा उपसर्ग सहन करना ये ६ प्रकार बाह्य तप और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, और ध्यान ये छ: अभ्यन्तर तप, इस प्रकार तपशरणमें ) लवलीन हो वह तपस्वी अर्थात् गुरु प्रशंसा करने योग्य है। सत्यार्थ शास्त्र (धर्म) का स्वरूपआसोपज्ञमनुल्लङ्घयम दृष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत्साचे शास्त्र काप घट्टनम् ।।९।
(रत्नकरण्ड प्रावकाचार अ० १) अर्थ-जो आप्तका कहा हुआ हो, वादी प्रतिवादियों द्वारा खंडन न किया जा सके, प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणोसे विरोध रहित हो, पूर्वापर दोष रहित हो, वस्तुस्वरूपका उपदेश करनेवाला हो, सब जीवोंका हितकारक हो और मिथ्यामार्गको खंडन करनेवाला हो, सो ही सत्यार्थ शास (धर्म) है।