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सोलहकारण बने । अवसर ही न रहेगा । इस प्रकार विचार कर जो आहार, औषध, शास्त्र ( विद्या) और अभय, इन चार प्रकारके दानोंको देता हैं तथा अन्य आवश्यक कार्यो में धर्म--प्रभावना व परोपकारमें द्रव्य खर्च करता है उसे ही ' शक्तितस्त्याग" नामकी भावना कहते हैं ।
. (७) यह जीवं स्वस्वरूपको भूला हुमा स वृणित देह में ममत्व करके इसके पोषणार्थ नाना प्रकारके पाप करता है तो भी यह शरीर स्थिर नहीं रहता है। दिनोंदिन सेवा करते २ और सम्हालते २ क्षीण हो जाता है और एक दिन आयुकी स्थिति पूर्ण होते ही छोड़ देता है । सो ऐसे नाशवंत घृणित शरीरमें ( राग ) न करके वास्तविक सच्चे सुखको प्राप्तिके अर्थ इसको लगाना चाहिये ताकि इसका जो जीवके साथ अनन्तानन्स वार सयोग तथा वियोग हुआ है, सो फिर इससे ऐसा वियोगहो कि फिर कभी भी संयोग न हो-- मोक्ष प्राप्त हो जावे । इसमें यही सार है क्योंकि स्वर्ग नक या पशु पर्यायमें तो सपञ्चरण पूर्ण हो ही नहीं सकता है, इसलिये यही श्रेष्ठ अवसर है. ऐसा समझकर अनशन ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवक्त शय्याशन और कायवलेश ये छः बाह्य और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये आभ्यंतर इस प्रकार बारह तपोमें प्रवृत्ति करता है, सो . सातवीं “ शक्तितस्तप" नामकी भावना कहाती है।
(4) धर्मकी प्रवृत्ति धर्मात्माओंसे होती है और धर्म साधुजनोंके आधार है, इसलिये साघुवर्ग में आये हुये उपसर्गोको यथासंभव दूर करना यह " साधुसमाधि" नामकी भावना है।