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सोलहकारण धर्म । रहते हैं, कोई पानीमें डुबकी लगाते हैं, कोई आसन लगाते हैं, कोई दुवा देते फिरते हैं, कोई गालियां ही बकते फिरते हैं, कोई अकेले रहते हैं, कोई जमात इकट्ठी करते हैं, कोई सिर फोड़ते फिरते हैं; कोई पागल बन जाते है, कोई भविष्य बनाने फिरते हैं, कोई तेल पीते हैं. कोई कृस्ती लड़ते हैं, कोई कीर्तन सुनाते फिरते हैं, कोई नाचते गाते डोलते हैं, कोई घरोघा कथा सुनानेका ढोंग रचते हैं, कोई मंत्र यंत्र झाड़फूकका घटाटोप लगाते हैं, इत्यादि नानाप्रकारसे दूसरोंको कमाई पर हाथ फेरते हैं ।
जो इन्हें कुछ देता है, उसकी झूठी स्तुति प्रशंसा करने लगते हैं, और यदि कुछ न मिला तो सुभ मक्खीचूस आदि कहकर गालियां देने लगते हैं, फल इसका यह होता है कि गेहु ओंके साथ घुण भी पिस जाता है । अर्थात् दानकी प्रथा भी उठती जाती है, और इन धूतोंके कारण विचारे सच्चे साधु पुरुष और दीन दुःखी अपाहिज भी दानसे वंचित रह जाते हैं । इसलिये धर्मदृष्टिसे तो भक्तिदान और करुणादान ही करना चाहिये । परन्तु व्यवहार साधनार्थ समदान करना आवश्यक पड़ता है, और कीर्तिदान तो देना ही व्यर्थ है, क्योंकि यह अपने व परको हानिकारक है ।।
गृहस्थ मात्र दान देनेके अधिकारी दाता हो सकते हैं।
अब पात्र अर्थात् दान लेनेवालोंका विचार करते हैं । पात्र तीन प्रकारके होते हैं-सुपात्र, कुपात्र, अपात्र और प्रत्येक उत्तम, मध्यम और जघन्यके हिसाबसे तीन तीन प्रकारके होते हैं, इस प्रकार कुल ९ भेद हुए, इनमें भी सुपात्रोके उत्तम मध्यम और जघन्यके भी उत्तम मध्यम और जघन्य इस प्रकार तीन तीन भेद होनेसे कुल १५ भेद होते हैं जो कि नीचेके नकोसे विदित होंगे
को हरी चार