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सन्न
सोलहकारण धर्म ।
(१५) मागंप्रमावना भावना।
मार्गप्रभावना- सपा सभ्यः ला सामोशमा (जिनधर्म ) का प्रकाश जिस प्रकार सर्वत्र प्रसरित हो सके उस प्रकार उसे सर्वसाधारणमें फैला देना । ऐसा ही स्वामी समंतभद्राचार्य ने कहा है
अज्ञानतिमिरव्याप्तिपपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ॥१८॥
( रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १) अर्थात् --जिस समय अज्ञानतिमिर ( मिथ्या मतोंका प्रचार) चहुँ ओर व्याप्त हो रहा हो, और पवित्र जैनधर्मका अभावसा हो रहा हो, उस समय जिस प्रकारसे हो सके वैसे जैनधर्मका माहात्म्य प्रकाशित कर देना सो ही प्रभावना है ।
प्रभावनासे अर्थात जैनधर्मके प्रचारसे अपनी आत्मामें उदारता बढ़ती है । प्रभावनासे केवल जैनधर्मकी प्रशंसा करा लेनेका अभिप्राय नहीं है, क्योंकि जब किसो पदाथकी भलाई था बुराई सर्वोपरी प्रगट हो जाती है, तब स्तुति किंवा निंदा तो स्वयमेव होती ही है । इसलिये प्रशंसामात्र प्राप्त कर लेनेसे ही कुछ लाभ नहीं है, और न जैनानुयायो जीवोंको संख्या ही बढ़ा लेनेके हो विचारसे प्रभावना करने की आवश्यकता है। किन्तु प्रभावना इसलिये करना चाहिये, ताकि विचारे संसारके दोन प्राणी जो चतुर्गतिमें भ्रमण कर जन्म मरण आदिक अनेको भव सम्बन्धी दुःखोंको भोग रहे हैं और मोहवश परपदार्थोमें अपनत्व धारण कर निज स्वरूपको भूले हुए हैं। वे पवित्र जनधर्मके प्रभावसे स्वरूपका श्रद्धान कर, रत्नत्रय स्वयमू