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सोसहकारन गर्ने ।
(६) त्याग ।
पात्र चतुर्विध देख अनुपम, दान चतुविध भावसु दीजे । शक्ति समान अभ्यागतक निज, आदरसु प्रणिपत्य करीजे || देवत जे नर दान सुपात्र हि नास अनेक कारण सीधे ! बोलत ज्ञान दई शुभ दान जु, भोगसु भूमि महा सुख लीजे । ६ ॥ ( ७ ) तप
कर्म कठोर गीरावनकु निज, शक्ति समान उपोषण कीजे । बारह मेद तपी तप सुन्दर, पाप जलांजली काहे न दीजे ॥ भाव घरी तप घोर करी, नर जन्म सदा फल काहे न लीजे । ज्ञान कहे तप जे नर भात, ताके अनेक पानिक छीजे ||७|| (८) साधु समाधि |
साधु समाधि करो नर भाविक, पुन्य बडो उपजे अब भाजे । साधुकी संगति धर्मके कारण, भक्ति करें परमारथ छाजे || साधु समाधि करे भव छूटत, कीर्ति घटा त्र्यलोकमें गाजे । ज्ञान कहे जग साधु बडे गिरी श्रङ्ग गुफा बीच जाय बिराजे ॥ ८ ॥ ( ९ ) वैयावृत्तिकरण ।
कर्मके योग विधा उदये मुनि पुङ्गव तस भेषज दीजें | पित्त कफानल ताम भगंदर, ताप कुशूल महामद छी जे || भोजन साथ बनायके औषध पथ्य कृपथ्य विचारके कीजे । ज्ञान कहे नित ऐसी वैयावृच, जो हि करे तस देव पतीजे ॥ ९ ॥