________________
सोलहकारण धर्म । सोलहकारण व्रत कथा। नमो देव अहंत नित, गुरु निन्ध मनाय ।
श्रीजिनवाणी हृदयधर, कई कथा सुखदाय ॥
अनन्तानन्त आकाश ( अलोकाकाश) के मध्यमें ३४३ सन राजूप्रमाण क्षेत्रफलवाला पुरुषाकार यह लोकाकाश है जो कि तीन
प्रकारके वातवलयों अर्थात् वायु (वनोदधि, घन और: तनुवातलय) से घिरा हुआ अपनेही आधार आप स्थिर है। वह लोकाकाश ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक इस
प्रकार तीन भागोमें बंटा हमा है। और इसके बीचोबीर १४ राजू ऊंची और १ राजू चौडी लम्बी प्रससाड़ी है, अर्थात् इसके बाहर अस जीव-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय नहीं रहते हैं, परंतु एकेन्द्रिय जीव तो समस्त लोकाकाशमें रहते हैं।
इस असनाड़ीके उर्व भाम में सबसे ऊपर तनु-बातवलयके अन्त में समस्त कर्मोंसे रहित, अनंतदर्शन, शान, सुख और बीर्यादि अनेक गुणोंके धारी अपनी २ अवगाहनाको लिये हुए. श्री सिद्ध भगवान विराजमान हैं, उससे नीचे अहमिन्द्रोंका निवास है, और फिर सोलह स्वर्गाके देवोंका निवास है। स्वर्गासे नीचे मध्य लोक समझा जाता है । इस मध्यलोको ऊर्ध्व भागमें सूर्य चन्द्रादि ज्योतिषी देवोंका निवास है। (इन्हीं को चलने अर्थात् नित्य सुदर्शन मेरुकी प्रदक्षिणा देनेसे दिन रातऔर भूतुओंका भेद होता है।