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सोललास गर्म
( १० ) अर्हत् भक्ति ।
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देव सदा अरिहंत भजो जिहि दोष अठार किया अति दूरा । पाप पखाल भयो आते निर्मल, कर्म कठोर कीये सब बुरा ॥ दिव्य अनंत चतुष्ट्य शोभित, घोर मिथ्यांध निवारण शूरा | ज्ञान कहे जिनराज असो, निरंतर जे गुग मंदिर पूरा ॥ १०॥ [११] अदार्थ अति ।
देव तहि उपदेश अनेकसु, आप सदा परवारथ चारों | देशविदेश विहार करे, दश धर्म घरे मंत्र पर उतारी ॥ ऐसे आवाज भाव घरी, भजनो शिव चार कर्म निवारी | ज्ञान कहे जनभक्ति किनो, नर देखत हो मनमांहि विचारी ॥११॥ [१२] बहुश्रुतभक्ति ।
आगम छंद पुराण पढ़ात्रत, साहित्य तर्क वितर्क बखाणे | काव्य कथा नव नाटक बूडत, जोतिष वेदक शास्त्र प्रमाणे ॥ ऐसे बहुत साधु मुनीश्वर, जो मनमें दोउ भावज प्राणे । ज्ञान कहे तस पाय न श्रुत, पार गये मन गर्व न आणे ॥ १२ ॥ [१३] प्रवचनभक्ति ।
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द्वादश अंग उपाङ्ग सदागम, ताकि निरंतर भक्ति कराये | वेद अनुपम चार कहे तस, अर्थ भले मनमांहि ठराये पढ़ो बहु भात्र लिखो निज अमर, भक्ति का बढ़ पुंजरवाये । ज्ञान कहे निज आगम भक्ति, करो सद्बुद्धि बहुशुम पाये ॥ १३ ॥