________________
[ ८७...
--
सोलहकारण धर्म । षहादिकोंसे विलित न होवे, किन्तु उन्हें स्वकृत कर्मजनित उपाधि जानकर स्थिर रहें. मन, वचन कायको चलायमान न होने देवे, इसे कायोत्सर्ग कहते हैं ।
इस प्रकारसे ये छः आवश्यक स्वशक्ति अनुसार गृहस्थ व साधुको नित्य प्रति करना चाहिये ।
गृहस्थके लिये देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छ: कर्म भी कहे हैं, जो कि यथाशक्ति नित्यप्रति करना आवश्यक हैं । ये छ: ऊपरकी भावनाओंमें गर्भित हो चुके हैं इसलिये यहां पृथक करके विशेष नहीं कहे हैं। जैसे देवपूजा अर्हद्भक्ति में, गुरुसेवा आचार्य व बहुश्रुत भक्तिमें, तप तपभावनामें, दान त्यागभावनामें आ चुका है। संयम पांचों इन्द्रियों और मनको विषयोंसे रोककर वश करना, तथा सः कायके जीवोंकी मन वचन कायसे हिंसा नहीं करना, और स्वाध्याय-आत्मज्ञानको बढ़ानेवाले तथा पापादि क्रियाओंसे विरक्त करनेवाले सच्छात्रोंका :( अन्योंका) पढ़ना, पढ़ाना, मनन करना, धारण करना और उपदेश करना। इस प्रकारसे ये षडावश्यक भी नित्यप्रति पालन करना चाहिये और अन्यान्य पालन करनेवाले साधर्मीजननोंमें भक्ति व प्रेम करना चाहिये । अर्घ उतरन करना चाहिये । इस प्रकार आवश्यकापरिहाणि भावः नाका स्वरूप कहा ! सो ही कहा हैभाव धरे समता सब जीवसे, पाठ पढ़े स्तुति मनहारी । चंदन देव करे स्वाध्याय, सदा मन साथजु पंच प्रकारी॥ तीनहु काल करे प्रतिक्रमण, ध्यान करे तन ममत निधारी। शान कहे धन वे सुनिराज,करे जु अवश्य त्रियोग समारी॥
॥ इति आवश्यकापरिहाणि भावना ॥