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शत प्रामुक उनके योग्य औषधि पथ्यार देना, उनकी विनय तपा वैयावत करना और उनके द्वारा किये हुए उपदेशको ध्यानपूर्वक सुनकर धारण करना, इत्यादि । यही उनका आवर सत्कार है ।
कुछ उन्हें रुपया मुहर वयाभूषण आदि पदार्थ तो चाहिये हो नहीं । उन्हें तो केवल संयम साधनार्थ आयुके अन्त तक शरीरको सरस व नीरस भोजन देकर रक्षा करना है। इसलिये भक्तिसह उनका उनके पपके अनुसार ही सत्कार करना चाहिये क्योंकि धर्मात्माके कारण ही धर्मकी प्रवृत्ति होती है। सो यदि मुम्मादिका सत्कार न करी तो वह मार्ग बंद हो जाता, फिर कोई मुनिव्रत धारण ही न करेगा, तब यथार्थ मोक्षमार्गकी भी प्रवृत्ति न रहेगी । और श्रावक तथा प्राविकाओंका आदरसरकार भी उनके पद ( योग्यता) के अनुसार (कि वे कौनसी प्रतिमाके धारी हैं) करें।
अर्थात् यदि वे उत्तम श्रावक दशमी व ग्यारहवीं प्रतिमाधारी भावक होवे, तो उनका भक्तिपूर्वक भोजन, कोपीन, खंड वन, पीछी, कमंडलु शाखादि भेंट करके तथा यावृत्त करके सत्कार करना और मध्यम व जघन्य धावक हों तो उसी प्रकार भोजन, वक्ष, गृह, पूजी औषधो, शाब इत्यादि, जो उन्हें आवश्यक होने भेंट कर निराकुल करें, उनसे भक्ति और प्रेमपूर्वक वर्ताव :करें, तथा भोजन भेषज शाक उपकरणादि देकर सत्कार करे, और वैयावृत्त करे, करावे ।।
इसी प्रकार यदि अविरती, सम्यक्त्वी गृहस्थ हो तो उसका भी बावश्यकतानुसार भोजन वादिसे सन्मान करके उपदेश