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सोलहकारण धम |
(१६) प्रवचनवात्सल्य भावना ।
प्रवचन वात्सल्य - अर्थात् साधर्मी तथा प्राणीमात्र में निष्कपट भावसे प्रेम करना और सदा उनकी भलाई चाहना यथाशक्ति आदर सत्कार करना इत्यादि । ऐसा ही स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा है-
स्वयुध्यान् प्रति सद्भाव सनाथापे केतवा | प्रतिपत्तिर्यथायोग्यम् बाल्यलिप्यते ।। १०
( रत्नकरण्ड श्रावकाचार अ० १ )
अपने सहधर्मीजनों (मुनि अजिंका श्रावक श्राविकाओं ) के प्रति उत्तम भावोंसे छलकपट रहित यथायोग्य आदरसत्कार करना भक्ति तथा प्रेम प्रदर्शित करना सो वात्सल्य अंग है । अर्थात् मन तथा आर्थिका तो अपने आप कल्याणके मार्ग में गमन करके औगेको भी मार्ग दिखाते हैं। उनका आदरसत्कार तो केवल इतना ही है कि जब वे अपने रत्नत्रय के साधनभूत शरीर की रक्षार्थ आहार के लिये बिहार करते हुए आवें तो उन्हें नवधा भक्ति करके शुद्ध प्रासुक निर्दोष ( छयालिस दोष रहित आहार देना, कमण्डलुमें अष्ट महरकी मर्यादावाला प्रासुक जल भर देना, शौचोपकरण ( कमण्डलु ), संयमोपकरण ( पीछी) और ज्ञानोपकरण ( शास्त्र पुस्तकादि ) आवश्यकतानुसार भेट करना अथवा आयिकाजीको यदि आवश्यक हो तो एक सफेद मोटे कपड़े खादी ) की साड़ी भेट कर देना । यदि मुनि व आर्यिकाके शरीरमें कोई बात पित्त वफादि विकारजनित पीज़ मालूम पड़े तो भोजन के समय