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सोलइकारण धर्म ।
__ _! ... मोनमार्गको ग्रहण कर अपना कल्याण करें। अर्थात् समस्त
संसारमेंसम्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोई, किटेषु जोवेषु कुमपरन्वं । माध्यस्थ भावं विपरीतत्तो, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
(अमितगति आचार्यकृत सामायिकपाठ ) ---का नकारा सब ओर बजने लगे ताकि पंसारके सभी प्राणो निर्माण हुए सुखसे काल व्यतीत करें । अर्थात् सब जोवमात्र परस्पर मित्रवत् प्रेमभावसे रहे, असे गुगवान पुरुषोंमें विनय और प्रमोदभावको धारण करें और उनके गुणोंका अनुकरण करें, न कि डाह (ईपी) । दीन दुखो असहाय जोवोंपर करुणा ( दया ) भाव रख, और जो विपरोत मार्गावलम्बो हैं, और जिनको सन्मार्गका उपदेश करनेसे वे उल्टे कलुषित होते हैं, ऐसे जोवाम क्रोधादि भाव न करके माध्यस्थ भाव धारण करने लमें, इत्यादि भाव सब जोवों में भले ग्कार फैल जायगे तो स्वयमत्र परसरका द्वेषभाव मिट जावेगा, परस्पर एक दूसरेके मित्रवत् सहायक हो जायगे । इस लोक सम्बन्धी सुख ( धनादि ) को भी वृद्धि होगी, और परलोकमें भी कषायोंको मंदतासे देवगति आदि उत्तम गतिको प्राप्त होंगे तथा अनुकमसे निर्वाण पद भो प्राप्त होगा । तालय कहनेका यही है कि जैनधर्मका प्रचार (प्रभाधना) समस्त प्राणियोंके लिये ही उदार भावांसे करना चाहिये ।
प्रभावना-द्रन्य क्षेत्र, काल और भावोंके अनुसार भिन्नर रीतियोंसे होती है अर्थात विद्वान् पुरुष तो तत्वचर्षासे प्रसन होते हैं- उन्हें न्याय व युक्तिपूर्वक प्रमाण, नय. इत्यादिके द्वारा