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सोलहकारण धर्म ।
ऐसी अवस्था उपस्थित होने पर समताभावको धारण करे और जब सब प्रकार मन व इन्द्रियें वश हो जाय, विषया भिलाषा घट जाय, कषायोंकी अतिशय मंदता हो जाय तो सर्वथा परिग्रह और गृहवास त्यागकर मुनि मुद्रा घरके साधुसमाधि धारण करें, परन्तु यदि बीच में ही मरणका अवसर प्राप्त हो जाय तो सब ओरसे चित्तको खींचकर अपने आत्मा की ओर लगाले और यदि यह भी न हो सके तो धर्म ध्यान में व दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपादि आराधनामें लगावें, और समस्त प्रकार के शुभाशुभ आहारविहार करनरूप अभिलाषाका भी परित्याग कर दे और कर्मयोगसे आये हुए उपसर्ग व परिषहोंसे निति न होने
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उस समय ऐसा विचार करे कि ये उपसर्ग व परीषद् तो पूर्वकर्मकृत उपाधियां हैं, इनका प्रभाव तो केवल पुद्गल पर हो सकता है, जीवका स्वरूप तो उपाधि रहित अय्याबाध है, इत्यादि अथवा यों विचारों कि मुझसे पहिले भी ऐसे ऐसे व इससे अधिक उपसर्गादि बड़े बड़े पुरुषोंको जा चुके हैं, जैसे देशभूषण कुलभूषणस्वामीको कुः युगिरीपर, पांडवोंको शत्रु जय गिरिपर अकंपनाचार्यादि सातसौ मुनियोंको बलि मंत्री द्वारा, सात सौ मुनियोंको दंडकवनमें घाणी में पेल दिया गया, इत्यादि और भी अनेकों महात्माओं को अनेकों उपसगं सुरनर पशु चेतन प्राणियों द्वारा व अचानक अचेतन वस्तुओं द्वारा उपस्थित हुए हैं, परन्तु उनसे वे किचित् भी नहीं विचलित हुए तो मेरे कितना कष्ट है, इत्यादि चितवन करके अपने चित्तको स्थिर रखें ( पंडित सुरचन्द्रजीका समाधिमरण अर्थात् मृत्युमहोत्सव पाठका अर्थ विचारें ) अथवा यह सोचें कि घबराने ब रोनेसे कुछ दुःख दूर नहीं होगा, किन्तु उल्टा कर्म-बन्ध
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