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सोलहकारण बम । ।७७ क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी मांडकर ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ़ करके पीछे पर जाते हैं और अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन कालतक पुनः संसारमें भटकते फिरते हैं। फिर संघमें बाल ( तुरतके नवीन दीक्षित !, युवा (कुछ समयके दीक्षित ) और वृद्ध : बहुत समयके दीक्षित) सबल, निर्बल, स्वस्थ, अस्वस्थ रोगी थोडे पढ़े और विशेष पढे विद्वान, अनेक देशोंके,अनेक प्रकारको प्रकृतिके धारी साघु होते हैं। उनसे आहारविहार, समय प्रमादादि कितनेक कारणोंसे तपादि चारित्रमें दोष लग जाते हैं, गुप्ति भंग हो जाती है, कर्मके उदयसे अथवा अन्य कारणोंसे परस्परमें रागद्वेष आदि कषायें उत्पन्न हो जाती हैं संघका पक्ष पड़ जाता है, पठनपाठनमें शिथिलता हो जाती है, इत्यादि अनेक कारणोंसे धर्ममार्गमें रोड़ा अटक जानेका सन्देह रहता है ।
ऐसी अवस्थामें यदि संघमें कोई एक सुयोग्य, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका ज्ञाता, न्याय नीति और धर्मशारुका पारगामी, घीरवीर शांत स्वभावी, दर्शन ज्ञान चारित्र, तप और वीर्य ये पंचाचारपरायण, बाह्याभ्यंसर बारह प्रकार के तप, दशलक्षणरूप ( उत्तम क्षमादि) धर्ममें लवलीन मन वचन और काय इन तीनों गुप्तियोंका यथावत पालनेवाला, शत्रु मित्रमें, महल श्मशानमें कांच और मणिमें जीवन और मरणमें सममावी, संघपर प्रेम (वात्सल्य ) रखनेवाला, जिनाज्ञाका प्रवर्तक संसारपरिभ्रमण से भयभीत, षडावश्यकमें सावधान दीक्षा शिक्षा प्रायश्चित्त आदिका देनेवाला समस्त संघकी सम्हाल रखनेवाला, वैयावृत्यमें निपुण इत्यादि उत्तम गुणोंसे भूषित संधाषिपति अर्थात आचार्य न हो तो मार्ग बिगड जाय, धर्मकी प्रवृत्ति उठ जाय, अनेक प्रकारके उन्मार्ग फैल जांय इत्यादि बहुत अनर्थ