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सोलहकारण धर्म । संघमें उसकी आज्ञाकी प्रवृत्ति चलती है, वह दीक्षा शिक्षा व प्रायश्चित्तादि देनेका अधिकारी होता है, और उपाध्यायको ये अधिकार नहीं होते है।
संघमें आचार्य तो एक ही होते हैं. परन्तु उपाध्याय तो बहुन भी रहते हैं । विद्या मानाने समान होते हुए भी मर्यादाका उलंघन न करके आचार्यको आज्ञाप्रमाण ही चलते हैं। ओर अब अपनो सामर्थ्य और परिणामोंकी बढ़ता देखते हैं, तो आचार्यको आज्ञा लेकर अन्य संघमें भी जाते हैं, और एकलविहारो भी हो जाते हैं। मूलगुणोंमें तो सर्व संघके मुनिजनोंको समानता ही होती है किन्तु कषायोंके असंख्यात स्थानों के अनुसार उतम गुणोंम अन्तर हो सकता है ।
ऐसे ओ परम दिगम्बर ज्ञानसागरके पारदर्शी श्री उपाध्याय महाराजको भक्ति पूजा, नमस्कार, गुणानुवाद करनेसे शुद्ध आत्मज्ञावको प्राप्ति होतो है; भक्ति धडा. नम्रतादि गुणोंको प्राप्ति होती है इसलिये सदा मन वचन और कायसे धी उपाध्याय प्रमूका भक्ति उपासना करता चाहिये । इस प्रकाय बहुश्रु तभक्ति नाम भावनाका स्वरूप कहा ।
जैसा कि कहा हैद्वादरा अंग उपांग जिनागम, ताकि निरंतर भक्ति काये। वेद अनूपम चार कहे तम, अयं भले मनमाहि ठराये ॥ पढ़ो धर भाव लिखो सु लिखायो,करोश्रुत भक्ति मुपूज्य रचाये। ज्ञान कहे इस भांति करे जिन,आराम भक्ति सपुण्य उपाये ॥१२॥
इति बहुश्रतभक्ति भावना ।