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सोलहकारण धर्म |
[ ७९ सदाचारको प्रवृत्ति होती है, धर्म और धर्मोजनोंमें प्रेम बढ़ता है, ज्ञानानुभव होता है, घने दिनोंको शंकाओं और दुर्वासनामोंका नाश होता है, इत्यादि अनेक लाभ होते हैं। इसलिये अपना बादर्श ऐसे हो महामुनियों आचायोंको बनाना चाहिये । जैसे गुरु वंसा हो ना, "यथा राजा तथा प्रज्ञा " होता है। कहा है- " गुरु कीजिये जान, पानी पोजे छान
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यदि शंका करो कि इस काल में तो ऐसे गुरु हैं ही नहीं तत्र क्या बिना गुरु निमुरे हो बने रहें? जैसा मिले वैसा हो गुरु बनाकर अमात्यको प्रवृत्ति क्यों न करें ? तो उत्तर यह
कि भूख भोजनसे हो मिटतो है । कहीं भोजनके अभाव में ईंट पत्थर नहीं खाया जा सकता है । यदि ईट पत्थर या विवादिक खाया जायगा, तो शोघ्र हो मरण हो जायगा । इसलिये यदि सच्चा गुरु न मिले तो पूर्वकालमें हो गये, जो श्री कुन्दकुन्दादि महामुनि तिनहोके आदर्श चरित्रोंका ध्यान करो, स्तवन चन्दन करो, उन्हें ही आदर्श बनाये रहो ।
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नितुरे तो जब कावांगे जब कि गुरुको न मानोंगे, परन्तु तुम्हारे जंते परम ताखो नित्य जानो सपथदर्शी गुह ता कदाचित हो किलोको मिलेंगे, तब क्या ऐसे गुदमोंके स्वानमें स्वार्थान्ध, अशानों विषयों, कषायी पुरुषों को पूजता चाहिये ? नहीं नहीं, कभी नहीं पूजना चाहिये । हमारे गुरु वे ही कुन्दकुन्दस्वामी हैं. गौतम गणेश है सुब स्वामी हैं इत्यादि । हमें उन्हीं की उपासना करना चाहिये। वर्तमान कालमें उनका अभाव होनेसे उनके उपदेश से हो लाभ लेना चाहिये. उनके द्वारा रचित ग्रन्थोंसे लाभ लेना चाहिये और परोक्ष विनयभक्ति करता चाहिये, उनको छवि उतारकर साम्हने रखना चाहिये, यहाँ
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