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सोलहकारण धर्म । उत्पन्न हो जाय इसलिये संघमें आचार्यका होना आवश्यक है।
ऐसे परम दिगम्बर संसार-समुद्रसे भव्य प्राणियोंको तारनेवाले जहाजके समान आप भी तरें औरोंको भी तारें, ऐसे श्री महामुनिराज आचार्य महाराजकी भक्ति, उपासना, स्तवन, कीर्तन (गुणानुवाद गाना ) इत्यादि करना, पूजा करना, अिर्ध उतारण करना, प्रत्यक्ष व परोक्ष वंदना नमस्कार करना, उनके द्वारा उपदेश किए हुए मार्गपर चलना, उनके निकट अपने किए हुए दोषोंको आलोचना करके प्रायश्चित लेना, उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना इत्यादि सो आचार्य भक्ति है।
गृहस्थाचार्य व राजादिक तो केवल इह लोक सम्बन्धी पथप्रदर्शक हैं परन्तु निन्याचार्य उभयलोक सम्बन्धी पथप्रदर्शक हैं ।
राजाको आज्ञा तो दण्ड नोतिके कारण येन केन प्रकारेण माननी ही पड़ती है, परन्तु आचार्य महाराज तो किसीपर बलात्कार आज्ञा नहीं करते हैं । निम्रन्थाचार्योंका प्रभाव तो उनके सम्माचारित्रसे ही पड़ता है । कारण आचार्य महाराज केवल दुरसे कहकर ही पंथ नही दिखाते किन्तु आप स्वयम् ही उसपर चलकर औरोंको दिखाते हैं।
संसारमें "पर उपदेश कुशल बहुतेरे । ये आचरहिं ते नर न बनेरे ॥" को उक्तिको चरितार्थ करनेवाले तो बहुत हैं। परन्तु दिगम्बराचार्योकी उपमाको तो केवल बे स्वयं ही धारण कर सकते हैं, उनको किसीको उपमा नहीं लगती, सात्पर्य-के अनुपम हैं।
असएव ऐसे आचार्योंकी पूजा भक्ति करना आवश्यक है। हीसे आचार्योंकी पूजा, भक्ति, उपासना, स्तवन, वन्दन करनेसे