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सोलहकारण धर्म । [६३ - माती है न कि स्वस्थ हृष्टपुष्ट संडेमुस्तंडे लोगोंकी; क्योंकि चिकित्सा तो रोगको होती है। और जबकि कोई रोग हो नहीं है. तो चिकित्सा काहेको को जाय ? जो लोग स्वस्थ अवस्थामें भो किसी भेष विशेषको धारण करके स्त्री पुरुपौने अपनी सेवा टहल कराते हैं, हाथ पैर मलबाते हैं, शरीरमर्दन व लेपादि कराते हैं, या औषादि मोगर नकस रसास्वाद करते हुए भोजन करते हैं वे यथार्थमें ठग, धूर्त,
व्यभिचारी, चोर विषयलम्पटी, कायर और नीच हैं। ऐसे __ लोगोंसे दूर रहकर ही अपने धर्मकी रक्षा करना उचित है, F और अपने साथियों व जन साधारणको ऐसे भयंकर जीवोंसे - बचानेके लिये सचेत कर देना उचित है ।
उत्तम पुरुष-तो जहांतक संभव है और उनके शरीरमें शक्ति रहती है व उनके परिणाम स्थिर रहते हैं, वहांतक वे कभी किसो से सेवा कराते ही नहीं हैं, वे शरीरसे बिल्कुल निष्पह रहते हैं यहांतक कि वे अपने आप भी अपनी वैयावृत्त्य शक्ति रहते हुवे भी नहीं करते हैं, और अपनी संपूर्ण शक्ति आत्माकी ओर लगाकर एकांत स्थान (गिरि, वन, गुफा) में एकासनसे समाधिष्ट हो जाते है। वे आत्मच्यानको ही संपूर्ण रोगोंकी परिहार करनेवाली औषधि समझते हैं ।। __ मध्यम पुरुष-अपनी चिकित्सा ( वयावृत्य ) यथासंभव आप ही कर लेते हैं वे दूसरोंको उनके आवश्यक कार्योग रुडाकर अपनी सेवा नहीं कराते हैं। - जघन्य अपने आप शक्ति न रहते हवे अपने परिणामोंको
स्थिर रखनेके हेतु रोगका परिहार करने की इच्छासे किसी - साधर्मी सज्जन सदाचारी पुरुष द्वारा उसकी सेवा करनेकी - इच्छा देखकर वैयावृत्य कराना स्वीकार कर लेते हैं ।