________________
६]
सोलहकारण धर्म |
निर्वाह विना परस्परके उपकार, सहायता, सेवा, सुश्रुषा, मेलमिलाप आदिके नहीं हो सकता है, इसलिये वेयात्म करना परमावश्यक है ।
निश्रयसे वैयावृत्य द्वारा स्थितिकरण अंगका पोषण होता है । वैयावृत्यमें अतिथिसंविभाग व्रतको भी कहीं कहीं गभित किया जाता है । कारण क्षुषा भी एक प्रकारका रोग है जो भोजनरूपी औषधिसे मिटता है, और क्षुधाकी वेदना बढ़ने से अनेकानेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा परिणाम भी विचलित हो जाते हैं इसलिये अतिथिसंविभागव्रत भी वैयावृत्य में गर्भित हो सकता है ! इस प्रकार वैयावृत्यकरण भावनाका स्वरूप कहा। कहा भी है
कर्म संयोग विथा उदये मुनि पुंगवको शुद्ध भेषज दीजे । पित्तकफानल श्वास भगंदर, ताप कुशूल महां छौजे || भोजन साथ बनायके औषधि, पथ्य कुपथ्य विचारके दीजे । ज्ञान कहे नित ऐसे वैयावृत्य, जोहि करे है देव पतीजे ॥३९॥
इति वैयावृत्य भावना ।