Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 75
________________ सोलहकारण धर्म । [३. परन्तु इसमें यह न मान लेना चाहिए कि इनके सिवाय और कोई उस परमपदको नहीं पा सकता है, किन्तु जो उस मार्गका मातम्घन करता है, वहीं प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार अर्हन्तदेवका संक्षिप्त रोतिसे वर्णन किया । ऐसे देवको भक्ति ( उपासना ), पूजादि स्तवन, गुग कार्तन, भजन, चितवन करने से आने आत्मामें भो दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है, अपने पुरुषार्थका ध्यान होता है और अपने आपका भों उस अविनाशो अखण्ड सच्चिदानन्द स्वरूप परमादके प्रात करने को इच्छा होती है। संसारके विनाशिक विषयनित सुखोंसे घृणा और भय उत्पन्न होता है, दुर्वासनायें मनमें स्थान नहीं बनाने पातो हैं, चित प्रफुल्लित रहता है; कायरता, भय, मोह, शोक, मदादि दोष पलायन कर जाते हैं, उपसर्ग और परोष होंसे चित विचलित नहीं होता है. साहस, बल, इना, गम्भोरता बढ़तो है, बुद्धि निर्मल होती है, ज्ञानानुभव बढ़ता है, दया, । क्षमा, शोल, सन्तोष, विनय, निष्कपटता, प्रेम, उल्लास, श्रद्धा, निराकुलता इत्यादि अनेकानेक गुण दिनोंदिन बढ़ते हैं। इसनिये अहक्ति नाम भावनाका चितवन अवश्य करना चाहिये । यद्यपि इस समय साक्षात् अर्हन्त भगवान नहीं हैं, तो भा उनके गुण और पवित्र चरित्रके चितवन करनेके लिये स्मारक रूपसे ताकार मूर्ति बनाकर मंत्र के द्वारा प्रतिष्ठित करके किसो उत्तम एकान्त स्यानमें रखकर उनके साम्हने अर्हन्तके गुणोंका स्तवन (चितवन) करके अर्घ उतारण करनेसे । भी अर्हद्भक्ति नाम भावना हो सकती है। क्योंकि यह मूर्ति भो हमको विना बोले साक्षात् अर्हतका स्वरूप हो दर्शानेवाली । है । इस वैराग्यमष मूर्तिको देखते हो वैराग्यभाव उदित हो

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