Book Title: Solahkaran Dharma Dipak
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 73
________________ सोलहकारण चर्म । बंध नहीं होता, केवल योगोंके सद्भावसे ईर्यापथ आश्रन होता है सो उपचारस एक समयको स्थिति लिये बंधं कहा जाता है, और पूर्व बंधे शेष अघाति कर्मोकी ८५ प्रकृतियोंकी कर्मवर्गणाओंकी निर्जरा समय समय प्रति असंख्यातगुणी होती माती है। तब इंद्रादिकः देव अपने अवविज्ञानके बलसे प्रभुको केवलशान उत्पन्न हुआ जानकर समयसरण या गंवकुटीकी रचना करते हैं, जिसके मध्य वह विशुद्धात्मा, वीतराग, सर्वश प्रभु अपने दिव्य केवलज्ञानके द्वारा देखे और जाने हुए संसारके तत्वोंका स्वरूप यथावत् सुर, नर,तिर्यंचादिक जोवोंको अपनी अमृतमयी दिव्यध्वनिके द्वारा सकल जीवोंके कल्याणार्थ उपदेश करता है, सुनाता है। ऐसे उत्कृष्ट केवलज्ञानसंयुक्त विशुखात्माको सकल परमात्मा, जिन, अर्हन्त या आप्त कहते हैं। इसे हो जीवन्मुक्त भी कहते हैं, क्योंकि अब इसको मुक्ति दुर नहीं है। क्योंकि आयुके अंत होते ही शेष ८५ प्रकृतियोंको क्षय करके शरीर त्याग कर लोकशिखर पर तनवातवलयके अंतमें सदाके लिये स्वस्वरूपमें निमग्न होकर अविनाशी, अखंड, सच्चिदानंद स्वरूपको प्राप्त करेगा तब उसे निकल ( शरीर रहित ) परमात्मा या सिद्ध या मुक्तजीव कहते हैं। यह पद प्रत्येक भव्य जीव प्राप्त कर सकता है, परन्तु प्रत्येक कालचक्रमें चौवीस विशेष जीव होते हैं, जिन्हें अवतार या तीर्थंकर ( चर्मतीर्थ के प्रवर्तक ) कहते हैं, ये विशेष पुण्यात्मा होते हैं, और इनके गर्भ में आते ही वह नगरी जिसमें ये उत्पष होनेवाले हों, इन्द्रादिक देवोंके द्वारा सजाई जाती है। वह माता जिसके ये गर्भ में आनेवाले हों, देवियों कर सेवित होती है । नगरीमें नित्य प्रतिदिनमें ३ वार १५ माइतक इन्द्राविशेष

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129